Sunday 25 July 2010

छूटे किनारों के बीच...

माँ का हर बार का रोना... ऐसे आने का क्या मतलब है? सुबह आती है और शाम को निकल जाती है। थोड़ा सा रूक जा, आधे घंटे में खाना बन जाता है। शाम का खाना खाकर चले जाना।
मैंने घड़ी की तरफ देखा, माँ को झिड़का – माँ पाँच बजे कोई खाने का समय होता है क्या?
माँ ने फिर कहा – बस घोड़े पर सवार होकर आते हो, ठीक से बात तक नहीं हो पाती, एक समय के खाने में क्या-क्या तेरी पसंद का खिला सकती हूँ। फिर तू हर बात में तो मना-मना करती रहती है।
पापा की आँखें बरजती है, ऐसे मानो मिलने तो आ जाती है। लेकिन माँ की आँसुओं से धुँधलाई आँखें ये बरजना देख ही नहीं पाती है। आँसू तो यहाँ भी आ जाते हैं। अबीर अधीर होने लगे हैं और पापा भी... अबीर की अधीरता मेरी आँखों में आ पहुँचे आँसुओं को लेकर है तो पापा की समय को लेकर.... हमेशा सेफ साइड चलते हैं। बारिश का समय है, जल्दी निकल जाओ तो अच्छा है। माँ पैक करती जा रही है, लंगडा आम, देसी आम का रस, भुट्टे का हलवा, अबीर के लिए रबड़ी, नया बना अचार और मैं कह रही हूँ, इतना खाने का समय ही नहीं है। शेड्यूल इतना फिक्स है कि कहीं अलग से कुछ जुड़ नहीं पाता है। दादी कहती हैं – बेटा मिठाई तो खाने के साथ भी खा सकते हो दोनों टाइम खाना खाती है या नहीं... औऱ नया-नया अचार को बहन-बेटी को खिलाए बिना क्या गले से उतरे... ?
अब उनसे कैसे कहें कि मिठाई खाना कम कर दिया है। बैठे-बैठे का काम और उस पर मिठाई.... मोटे हो जाएँगें सो तो है ही, लेकिन बीमारी-सीमारी का भी तो डर...!
माँ हिदायत दे रही है – घर पहुँचते ही अचार को छोड़कर सब कुछ फ्रिज में रख देना, देख कुछ खराब नहीं हो जाए।
पापा अब चिढ़ने लगे हैं, बस....बस बहुत हो गया। चलो अब जाओ... देर करने से रात हो जाएगी। बारिश के दिन है और समय कैसा तो खराब चल रहा है!
माँ से गले मिली तो दादी ने दोनों को बाँहों में भर लिया। तुझे खुश देखकर मेरा जनम सार्थक हो गया। पापा और अबीर इस असहज स्थिति से बचने के लिए पहले ही गाड़ी के पास पहुँच गए थे।

आषाढ़ खत्म होने को है। दो-तीन दौर बारिश के हो चुके हैं तो हर जगह हरियाली नजर आ रही है। जगह-जगह धरती पर हरी घास उग आई है। पेड़-पौधे भी धुले-धुले चमक रहे हैं। बादल छाए हुए हैं, और शाम गहरी हो रही है। हम सफर में है, न तो माँ का घर साथ है और न ही अपना घर... दोनों ही घर के सिरे छूटे हुए हैं, ठेठ वर्तमान। माँ के घर की गर्माहट, बचपना और भावुकता से बाहर आ गई और अपने घर के अहसास से अभी बहुत दूर हूँ। गोकुल काका ने हाथ बढ़ाकर म्यूजिक सिस्टम ऑन कर दिया। गाना तैरने लगा – ये मौसम आया है... कितने सालों में... आजा खो जाए ख्वाबों-खयालों में.....। कहाँ हूँ, क्या हूँ, कहाँ जा रही हूँ, क्यों जा रही हूँ? जैसे सवालों से बहुत-बहुत दूर.....। शहर की सीमा से बाहर हुए तो अबीर कुछ सहज हुए... अभी तक हम दोनों के बीच मेरा पर्स पड़ा हुआ था, अब अबीर ने उसे उठा कर पीछे रख दिया और थोड़ा पास सरक आए....शायद शहर का भी लिहाज पाल रहे थे, मुझे हँसी आ गई, लेकिन अबीर का ध्यान नहीं गया। हाथ पर हाथ रखा – खुश.... ?
आँसू छलक आए, जवाब नहीं निकला, सिर हिला दिया। सीधे आँखों में उतर आए।
मुझे सहज करने की गरज से उन्हें हाथ को थोड़ा सहलाया.... और फिर बाहर देखने लगे.... थोड़ी देर में बड़ी-बड़ी बूँदें गिरने लगी.... अबीर ने अपना हाथ बाहर कर कुछ बूँदें हथेली पर ली और मेरी ओर उछाल दी। मैंने भी ऐसा ही किया... दोनों ही खिलखिला पड़े.... गाड़ी चलाते हुए गोकुल काका को भी हँसी आ गई। आधा रास्ता पार कर चुके थे।
एकाएक यूँ लगा कि ये सफर यूँ ही चलता रहे.... क्यों जरूरी है दुनिया का बीच में आ जाना.....? अंदर-बाहर जादू-सा फैला हुआ है, बाहर प्रकृति जादू कर रही है और अंदर अबीर....। गोकुल काका के होने का लिहाज है, फिर भी बार-बार उँगलियों से सिहरा रहे हैं। आश्चर्य है, अभी कुछ भी याद नहीं आ रहा है। अबीर को कल से जल्दी निकलना होगा, अम्मा तो कल डॉक्टर को दिखाना है, और मुझे कल से नया चैप्टर पढ़ाना है, जिसे इससे पहले मैंने कभी नहीं पढ़ा और घर पर थी तो बहुत चिंतित थी, यहाँ याद करके भी उस चिंता का अंश तक नहीं पकड़ पा रही हूँ। रिमझिम बारिश अब भी हो रही थी। गोकुल काका चाय पिएँगे....- अबीर के बोलने से मैं लौट कर आई।
और पकोड़े भी....- मैं शरारत से मुस्कुराई।
यहाँ मिलेंगे तो....- अबीर ने बाहर देखते हुए ही कहा।
नहीं मिलेंगे तो भी....
अबकी अबीर ने चौंक कर देखा.... क्यों क्या मेरी इतनी-सी इच्छा भी पूरी नहीं कर सकते? – मैंने मान दिखाया।
वो मुस्कुराए, जो हुक्म रानी साहिबा... मैं खिलखिलाकर हँस पड़ी।
गोकुल काका ने एक तरफ कर गाड़ी खड़ी की और पूछा – मैं चाय यहीं ले आऊँ भैयाजी? बाहर बारिश हो रही है।
तो क्या हुआ... गल थोड़े ही जाएँगें, चलेंगे....- अबीर ने कहा।
उस छोटी-सी गुमटी में इक्का-दुक्का लोग ही बैठे थे। लोहे की टेबलों और पत्थर की पट्टी से कुर्सी का काम लिया जा रहा है। मैं जाकर पट्टी पर बैठ गई.... तेल गर्म हो रहा था, अबीर ने जाकर पूछा – पकोड़े हैं क्या?
सामने खड़े एक मध्यवय के पुरुष ने कहा – नहीं है जी, अभी तो आलूबड़े तैयार हो रहे हैं।
अबीर ने कहा- बस इसी में थोड़ा-सा मसाला और प्याज डालकर पकोड़े बनाओ भैया।
मैं तब तक अबीर के पास जाकर खड़ी हो गई। - नहीं, आलूबड़े ही खाएँगे।
दुकानदार ने कहा – अभी बन जाते हैं जी पकोड़े.... क्या देर लगती है। अबीर ने भी हाँ में हाँ मिलाई।
ऊँ हू.... आलूबड़े ही खाने हैं।– मैंने ठुनकते हुए कहा। अबीर ने फिर चौंक कर मेरी तरफ देखा... अजीब हो, अभी तो पकोड़ों की फरमाई कर रही थीं और अब....।
अरे यार मुझे यदि आलूबड़े ही खाने हो तो..... – इस बार थोड़ी बनावटी चिढ़ दिखाई।
ओके....- अबीर ने हथियार डाल दिए।

लहसन डले गर्मागर्म आलूबड़े और अदरक वाली गर्म चाय.... दुकान के रेडियो पर बजता गाना – बैरिया वे.... ओ... ओ किया क्या कुसूर मैंने तेरा वे....., बारिश..... ओ गॉड.... बस इसी तरह सफर में जीवन कट जाए.... सपना, रोमांस.... सफर.....। निकलने लगे तो चिप्स का बड़ा सा पैकेट लाकर अबीर ने मेरे हाथ में थमाया.... आँखों से बहुत-सारा कुछ उमड़ा.... अबीर ने उसे अपनी आँखों से थाम लिया। बारिश थोड़ी तेज हो गई। गोकुल काका भागकर गाड़ी की तरफ गए और छाता लेकर आए। मुझे थोड़ी शर्म आई... अरे, इतनी बारिश नहीं हो रही है काका, पहुँच जाते। अबीर ने छाता खोलकर मुझे थमाया और खुद दौड़कर गाड़ी में जाकर बैठ गए।

मौसम कैसा तो साँवला-सुरमई हो रहा था, कोई पागल कैसे नहीं हो जाए.... फिर से गाना – मौसम-मौसम, लवली मौसम, कसक अनजानी ये मद्धम-मद्धम, चलो घुल जाए मौसम में हम.... हाँ... इसी मौसम में घुल जाए ये सफर.... ये सफर.... बस चलता रहे.... नहीं तो हम गुम हो जाएँ। ना जाने कहाँ से फिर आँसू निकल पड़े.....।
धीरे से बादलों के साथ रात भी जुगलबंदी करने आ पहुँची। अँधेरा थोड़ा गहराने लगा। अपने शहर की सीमा में दाखिल हो गए। ट्रेफिक, रोशनी और जाम.... छुट्टी के दिन का उन्मुक्त माहौल। गाड़ी अब रेंग-रेंग कर चल रही थी। कुल 8 किमी के रास्ते को पार करने में पूरा आधा घंटा लग गया।

कॉलोनी में घुसे तो अँधेरा.... घर के बाहर गाड़ी रूकी तो देखकर चौंक गए.... अँधेरा घुप्प पड़ा है। अम्माँजी बाहर ही इंतजार करती मिली। पैर छुए तो बजाय आशीर्वाद देने के फट पड़ी – ई देखो, मरा इनवर्टर भी गया। दोपहर से बिजली नहीं है। कब से अँधेरे में ही बैठी है। ऊ.... शकुन भी नहीं आई।
मैंने अबीर की तरफ देखा और अबीर ने मेरी तरफ... हम दोनों बेबसी में मुस्कुराए.... सफर के साथ ही रोमांस भी खत्म हो गया.... अब तो खाँटी दुनियादारी है....।

कहानी का मॉरल –
सूत्र – 89 - सफ़र रोमांस है, मंज़िल दुनियादारी

Sunday 11 July 2010

सिस्टम की अफीम

सुबह ट्रेन से उतरते ही यूँ लगा कि बस नैनीताल फैलता हुआ मेरे स्वागत के लिए काठगोदाम तक आ पहुँचा है। मैं यहाँ पहली बार आया हूँ। बाहर निकलते ही होटल की गाड़ी मिल गई। रात भर के सफर के बाद नींद आँखों में किरकिरा रही थी। 30-40 मिनट के सफर के बाद मैं उस शहर में पहुँच जाने वाला हूँ, जिसके बारे में स्मिता बहुत रूमानी बातें करती थीं। कहीं एक ख़लिश सी होकर गुजर गई.... नहीं अब कुछ भी ऐसा नहीं जो उदास करें। आखिरकार मैंने वो सब पा लिया था, जिसके सपने देखे थे, 15 दिन पहले ऐसी ही एक चमकती सुबह आई थी, जब रातभर जागने के बाद भी न थकान थीं, न नींद और न ही अनमनापन... रात भऱ फोन पर फोन और फोन.... सुबह से ही दोस्तों रिश्तेदारों का आना-जाना.... खुद के साथ रहने की शिद्दत से प्यास के बीच लगातार खुद से दूर खींच लिया गया था। फिर सोचा... मेरी ये सफलता मेरी अकेले की तो नहीं है। ठीक है मेहनत मेरी है, लेकिन दुआएँ और आशीर्वाद तो सबके हैं, तो फिर इस पर उनका भी कुछ हक है। माँ से कह चुका था, 15 दिन के बाद मैं हफ्ते भर के लिए बाहर जाऊँगा। कुछ दिन अपने साथ रहूँगा। माँ से कहा नहीं था, लेकिन सोचा था, अपने जख़्म देखूँगा, वो सब देखूँगा जिसने मुझे तपाया....जलाया और आखिर कुंदन कर दिया, लेकिन कोई नहीं जानता है कि इस तपिश में कहाँ, क्या खोया है मैंने.... च्च फिर से वही.... नहीं। आईपीएस में सिलेक्शन के बाद के 15 दिन भारी व्यस्तताओं के बीच निकले। दोस्तों-रिश्तेदारों के बीच, माँ की मन्नतें पुरी करने और पिता की बहुत कुछ कहतीं भरी-भरी आँखों और मेरे सिर पर लगातार जाते उनके काँपते हाथों के बीच कभी मुझे बहुत जिम्मेदारी का अहसास होता तो कभी यूँ लगता कि मैं एक बहुत छोटा बच्चा हूँ, जिसे पापा के ऐसे ही स्पर्श की जरूरत है।
आखिरकार मैं अपने टूटे-फूटे अतीत को जैसे-तैसे गठरी में समेटे नैनीताल पहुँच ही गया। झील के ठीक सामने वाली होटल थी, इंटरनेट पर बुक की थी, इसलिए ज्यादा कुछ पता नहीं था, लेकिन लोकेशन पसंद आ गई, वेल बिगिन इज हाफ डन....। सामान रखा और पूरी दीवार पर पड़े उन भारी पर्दों को हटाया तो जैसे सुबह नैनी झील में मुस्कुरा रही थी, तबीयत खुश हो गई। कहीं नहीं जाना है..... कुछ दिन यहीं खिड़की के सामने कुर्सी लगाकर झील और उसके उस तरफ के पहाड़ों को निहारते ही निकल जाएँगें।

दोपहर खाना खाया और सो गया। सोकर उठा तो रूम सर्विस को चाय के लिए ऑर्डर दिया.... और खिड़कीसे पर्दे हटा दिए... शाम खिलखिलाती हुई-सी कमरे में आ घुसी। मुझे ये बिल्कुल जादू सा लगा.... फिर से पर्दे खींच दिए तो जैसे कमरे में रात घिर आई हो... फिर हटाए तो शाम झिलमिलाई, एकाएक मुझे खुद पर ही हँसी आ गई। कहाँ तो यहाँ आने के मैंने बहुत भारी-भरकम कारण अपने सामने रखे थे और कहाँ ये बचपना.... फिर से स्मिता याद आई- ग़म हो के ख़ुशी दोनों कुछ देर के साथी हैं, फिर रस्ता ही रस्ता है, हँसना है ना रोना है...तो क्या मैं रास्ते पर आ खड़ा हुआ हूँ? ख़ुशी चुक गई है? फिर सवाल सरसराया.... मैं आखिर यहाँ आया क्यों हूँ? खुद को कुरेदने.... नहीं.... बस, बहुत हो गया। मैंने पूरी ताकत से पर्दों को खींच दिया.... सर्रर्र की आवाज हुई और शाम अपने खुशनुमा रंग के साथ पूरे कमरे में आ पसरी। धीरे-धीरे झील के आसपास चहल-पहल बढ़ने लगी। झील में भी लोग बोटिंग कर रहे थे। सड़क पर लोग घुमते-टहलते नजर आ रहे थे। खूब हल्का-हल्का लग रहा था।


डिनर के लिए मैं लाउंज में ही आ गया था। सोच लिया था डिनर करने के बाद, जब सारी दुकानें बंद हो जाएगी तो झील के किनारे बैठूगाँ। अपनी प्लेट लेकर मैंने एक छोटी टेबल का रूख किया..... सामने बैठी लड़की को देखकर मैं अटक गया... यूँ बहुत आकर्षक तो नहीं है, फिर..... मैं खुद से उलझा.... अरे इसे तो कहीं देखा है। राइट ये तो सुचेता है। कुल तीन ही महीने तो साथ रही थी, फिर गुल हो गई थी। करूणा ने ही बताया था कि उसके भाई की डेथ हो गई है.... फिर वो लौटकर नहीं आई। कुछ भी पता नहीं चला कि वो कहाँ चली गईं। उन दिनों सबको अपने-अपने सपनों को पूरा करने का जुनून था, कौन किसकी खबर लेता। यूँ भी वो तीन महीने ही हमारे साथ पढ़ी, उसमें भी वो बहुत कम बोलती थी, बस एक ही बार सेक्स एज्यूकेशन के मामले पर इतना बोल्ड स्टेटमेंट दिया था कि सारे लड़के-लड़कियाँ हक्के-बक्के होकर एक-दूसरे को देखने लगे थे। फिर बहुत दिनों तक उसके जाने के बाद भी उसका स्टेटमेंट तमाम तनावों और दबावों के बीच भी हँसी की लहर ला देता था। उसे याद कर मैं थोड़ा असहज हो गया था। लेकिन उस बात से ही सुचेता मुझे याद रह गई थी, बस.... नहीं तो उसमें याद रहने जैसा कुछ था नहीं।
थोड़ी देर असमंजस में रहा.... खाना खत्म कर चुका था, सोचा जाऊँ, फिर सोचा पता नहीं पहचानेगी भी या नहीं! उन लोगों का भी खाना खत्म हो चुका था, वो अपने साथ बैठे लोगों के साथ ही उठकर बाहर चली गई। मैं भी डायनिंग हाल से बाहर आ गया। वेटिंग लाउंज में जाकर बैठ गया, एक चांस लिया.... यदि वो लौटकर आएगी तो फिर मैं उससे बात करूँगा, यदि चली गई तो फिर तो कोई बात ही नहीं है। ऐसा होता है... और हुआ... वो अपने साथियों को बाहर छोड़कर लौट आई... लिफ्ट की तरफ बढ़ रही थी कि मैं उसके सामने जा पहुँचा।
हाय.... पहचाना.... ? – मैंने पूछा
हाँ... सूरत तो पहचानी लग रही है, बट सॉरी.....- उसने कंधे उचकाते हुए वाक्य अधूरा छोड़ दिया।
मैं गौतम त्रिपाठी... सक्सेस में हम साथ थे...
अरे हाँ... राइट.... गौतम, हाऊ आर यू? ऑन हनीमून? – उसने फिर से उतनी ही बेबाकी से पूछा। मैं फिर से सकुचा गया, इस लड़की की बोल्डनेस समय के साथ और शार्प हो गई है, इतने लंबे अर्से के बाद मिली फिर भी उसके तेवर उतने ही तीखे हैं।
नहीं.... जस्ट फार चेंज....। – कहा। उठा तो मेरे अंदर भी.... कि पूछूँ, ऑन...?. लेकिन मध्यमवर्गीय पारंपरिक संस्कारों ने मुझे अटका दिया। फिर भी मैंने पूछा – और तुम....?
मैं.... मैं यहाँ एक कांफ्रेंस में आई थी। फिर सोचा आई ही हूँ तो थोड़ा बहुत घुम भी लूँ। सो... उसने फिर से कंधे उचका दिए।
उसके हाव-भाव और कपड़ों से यूँ लगा कि वो किसी कॉर्पोरेट ऑफिस में काम करती हो। मैं सोच रहा था कि मैं उससे कैसे पूछूँ कि मेरे साथ घुमने चलोगी, तभी उसने पूछ लिया, सोने जा रहे हो....?
मैं फिर से थोड़ा हड़बड़ाया – नहीं सोच रहा था, थोड़ा झील के किनारे टहलूँगा, यू गो अहेड।
गुड मैं भी कुछ ऐसा ही सोच रही थी... मे आई....।
हाँ क्यों नहीं....।

मॉल रोड की सारी दुकानें बंद हो चली थी। सड़क के दोनों ओर विंडशीटर और लोअर-टीशर्ट के बड़े-बड़े पुट्टल खोले लड़के आ जमा हुए थे। दिन भर के थके हारे टूरिस्ट अपने-अपने डेस्टिनेशन की तरफ जा रहे थे। मौसम थोड़ा सर्द हो चला था। दुकानों के बंद होने से रोशनी भी कम हो गई थी। हम दोनों ही सड़क पर उतर आए थे। शाम की तुलना में रात में चहल-पहल थोड़ी कम और सर्दी थोड़ी ज्यादा हो गई थीं। जींस और फुल स्लीव्ज के टी-शर्ट पर उसने जैकेट पहन रखा था, और एकबारगी वो मुझे कुछ अजनबी लगी। यूँ तब भी मैंने उससे तीन या चार बार ही बातचीत की थी, लेकिन यहाँ पता नहीं मैं किस मनस्थिति में था कि उसके सामने जा खड़ा हुआ।
तुम किस चीज की कांफ्रेंस में आई थी?- मैंने पूछा
मैंनेजमेंट रिलेटेड...एक्चुली मैं एक एमएनसी के लिए काम कर रही हूँ। ये उसी का आयोजन था। इसलिए मेरा यहाँ होना जरूरी था। फिर सोचा एक्सपोजर का भी मौका था। आज शाम को ही मैंने अपना सारा पैंडिग वर्क निबटाया और यहाँ आ गई। - उसने कहा।
मतलब.... ?
मतलब.... रामपुर के होटल में कार्यक्रम था। तुम सुनाओ, तुम क्या कर रहे हो आजकल.... ? – आखिरकार उसने पूछा, मैं पता नहीं कब से इस सवाल का इंतजार कर रहा था।
मेरा आईपीएस में सिलेक्शन हो गया है.... अभी पोस्टिंग का इंतजार कर रहा हूँ। - बहुत कोशिश करके भी मैं अपनी जनरोसिटी का वाल्यूम वैसा नहीं रख पाया, जैसा मैं चाहता था।
ग्रेट.... वो खुशी से चीख ही दी थी.... पार्टी...- मुझे फिर अजीब लगा कि हम एक दूसरे को बहुत अच्छे से नहीं जानते हैं, लेकिन सुचेता कितनी सहजता से मेरे साथ है, मैं कहीं सहज नहीं हो पा रहा हूँ, लाख कोशिश करने के बाद भी..... कहीं.... मैंने कहा – एनी टाइम... कल लंच या फिर डिनर जो चाहो....।
अरे.... कौन जीता है तेरी जुल्फ के सर होने तक... आज.... चलो फिलहाल तो वो रिक्शा स्टैंड पर कॉफी मिलती है, ना, यदि वो होगा तो कॉफी... पी तुमने..... गुड कॉफी। - उसने अपनी आँखें घुमाते हुए यूँ कहा जैसे वो अभी भी पी रही है।

दोनों कॉफी के कप हाथ में लेकर भूटिया मार्केट की तरफ बढ़ गए। मार्केट बंद हो गया था। झील के किनारे लगी बेंच पर जाकर वो बैठ गई। थक गए यार...। वो सवाल बहुत देर से मेरे अंदर कुलबुला रहा था। आखिरकार मैंने पूछ ही लिया – तुमने सिविल सर्विसेज की तैयारी क्यों छोड़ दी? – पता नहीं मैं क्या सुनना चाहता था।
यू नो उस दौरान मेरे जीवन में एक एक्सीडेंट हुआ था। मेरे भाई की डेथ हो गई थी। ही वाज डीएसपी और डेड इन कम्युनल राइट्स...- कहते कहते उदासी झील की सतह की तरह फैल गई थी।
हाँ, करूणा ने बताया था।
दैट एक्सीजडेंट वाज टर्निंग पाईंट ऑफ माय लाइफ। यू नो, हम उसकी शादी की तैयारी कर रहे थे। मेरी दोस्त थी रोशनी, ही चोज हर टू मैरी, एंड वी आर वेरी हैप्पी विथ हिज डिसीजन। बट.... – उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। मैं सामने फैली कालिख में से झील ढूँढ निकालने की बेकार कवायद करने लगा। बात बहुत फैल गई थी, मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि इसमें मेरा सवाल कहाँ गुम हो गया है। कभी-कभी हम बहुत संवेदनशील होते हुए भी बहुत निस्संग हो जाते हैं, जब हम खुद को देख पाते हैं तो सोचते हैं कि क्या हम ऐसे हो सकते हैं.... लेकिन हो जाते हैं। मुझे अपने अंदर के जमाव का अहसास हुआ।
तब मैं बहुत दिनों तक सो नहीं पाई.... मैंने खुद से बहुत सारे सवाल पूछे। क्योंकि मैं किसी और से पूछ नहीं सकती थीं। माँ उन्हें समझ नहीं सकती थीं और पापा.... पापा समझते तो, लेकिन चौंकते और हो सकता है, कहीं वो अपनी परवरिश को ही दोष दे डालते, इसलिए मैंने किसी से नहीं पूछा, वो सवाल.... खुद को ही कुरेदा और जवाब पाया। - वो कहते-कहते गुम हो चुकी थी।
बहुत देर तक हम दोनों ही चुप रहे। मेरी कॉफी खत्म हो चुकी थी, शायद उसकी ठंडी.... डस्टबीन में कप फेंक कर वो खड़ी हो गई। ऐसे जैसे वो कहीं और हो और ये शरीर कोई ओर.... मैं भी खड़ा होकर उसके साथ-साथ चलने लगा। ठंड और तीखी हो गई थी। थोड़ा चलने के बाद चिनार के पेड़ के नीचे लगी बेंच तक हम आए और वहाँ बैठ गए। तब तक वो थोड़ी स्वस्थ हो गई थी।
क्या होता है कि व्यवस्था को दो तरह के लोग ही जिंदा रखते हैं एक वो जो उसका शोषण कर सके और दूसरे वो जिसका व्यवस्था शोषण कर सके। -उसने बहुत स्थिरता से अपनी बात शुरू की। - अब शोषण करने के लिए स्वार्थी होने की जरूरत है और शोषित लोग अक्सर मध्यमवर्गीय भावुकता से संचालित होने वाले लोग होते हैं। नहीं तो सेना और पुलिस में हमें मध्यमवर्गीय घरों के बच्चे नहीं मिलते..... । यदि आप स्वार्थी हैं तो आप ये जानते हैं कि कहाँ से क्या पाया जा सकता है, लेकिन यदि आप भावुक हैं तो फिर स्वार्थी लोग जानते हैं कि आपका कैसे शोषण किया जा सकता है। ये हर जगह की कहानी है। इफ यू रेड दैट थ्योरी ऑफ एलिट क्लास.... दोनों ही तरह के समूह में उत्तराधिकार चलता है। शोषक तो अपनी जगह छोड़ना नहीं चाहते हैं, और जो शोषित होते हैं, उनके लिए विकल्प ही नहीं होते हैं....।
लेकिन व्यवस्था से छुटकारा नहीं है.... – मैंने कहा।
हाँ, ये सही है, लेकिन बिना इमोशनल अटैचमेंट के काम किया जाना सबसे ज्यादा निरापद है। क्योंकि रोजगार का मामला तो गिव एंड टेक है ना....। फिर इसमें जान क्यों दी जाए, जबकि हमें जान दिए जाने की कीमत तक नहीं मिले। - उसने बहुत तीखी बात कहीं थी। - मैंने तय कर लिया था कि बिना किसी गिल्ट के मैं विशुद्ध रोजगार करूँगी। काम करूँगी, पैसा लूँगी, बस.... न इससे कम, न इससे ज्यादा। जब तक काम करूँगी 100 परसेंट दूँगी, जब काम छोड़ा सब खत्म.... क्योंकि यहाँ आपकी भावनाओं की जरूरत ही नहीं है, लेकिन इफ आई एम इन एडमिनिस्ट्रेशन दैन आई हैव टू इंवेस्ट इमोशंस ......यदि मैं ऐसा नहीं कर पाती तो गिल्ट होता.... क्यों मैं खुद को इतनी सारी परेशानियों में डालूँ....? मैं जानती हूँ कि मैं यहाँ भावुकता के तहत नहीं हूँ। इट इज माय कांशस डिसीजन....। मैं व्यवस्था के लिए मरने को तैयार नहीं हूँ। इट्स ए काइंड ऑफ प्रोफेशनलिज्म.... आप पैसे देते हैं, हम काम करते हैं, दैट्स इट..... नो भावुकता एट ऑल....। - उसने बहुत स्पष्ट होकर अपनी बात रखी।
मेरे पापा चाहते थे, मैं भी सिविल सर्विसेज में जाऊँ, भाई की डेथ से पहले मैं भी यही सोचती थी.... लेकिन उस सबने मुझे बड़ी उलझन में खड़ा कर दिया था, बहुत सारे सवाल थे.... और जवाब कोई नहीं दे सकता था। जब मैं जवाब तक पहुँची तो खुद मैं भी चौंकी थी..... लेकिन मुझे लगा कि मुझे रास्ता मिल गया है और मैंने अपना डिसीजन बदल डाला..... फादर हर्टेड विथ माय डिसीजन, बट.... इट्स.... - फिर से आँसू आँखों की कोरों तक आ पहुँचे। इस बीच बादल गरजने लगे थे।
मैं अपने काम और योग्यता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं देना चाहती थी.... भावना तो बिल्कुल भी नहीं। मार्क्स ने तो सिर्फ धर्म को अफीम कहा, मुझे तो सारी व्यवस्थाएँ अफीम लगती है। जितने खाँचों में हम बँटते हैं, वे सब अफीम का-सा नशा देते हैं। देखो न देश, जाति, धर्म तो है ही, राज्य और कभी-कभी सामूहिक पहचान तक के लिए जान ली और दी जाती है, युद्ध, धार्मिक उन्माद, जातिगत दंगे, राज्यों के बीच उपद्रव और हाँ ऑनर कीलिंग.... ये क्या है, नशे का ही तो एक रूप है, इतना बड़ा नशा कि हम जान ले भी सकते हैं और दे भी.... इससे मिलेगा क्या, व्यक्तिगत तौर पर तो कुछ नहीं, हाँ व्यवस्था का ही कुछ भला हो तो हो...? व्यवस्था का अस्तित्व जीवन को आसान बनाने के लिए है, लेकिन अब ये ही हमें खत्म करने पर तुली हुई है। आखिर भाई की मौत का नुकसान किसको हुआ? सिस्टम को तो कोई दूसरा मिल जाएगा। - वो फिर चुप हो गई। हवा चलने लगी थी, बिजली के कड़कने ने हमें चौकन्ना कर दिया था।
डोंट गेट मी राँग, इट्स माय पाइंट.... हो सकता है, तुम्हारा पाइंट कुछ और हो...., आय थिंक यू हर्ड व्हाट दुष्यंत कुमार सेड फॉर एक्सप्लायटेड पीपल कि –
न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए
आय एम नॉट रेडी फार दिस...। – उसने बात खत्म कर दी और चुप हो गई... बड़ी-बड़ी बूँदें, बौछारों के रूप लेने लगी थी। हम होटल की तरफ दौड़े..... मेरे अंदर आग लगी हुई थी।

कहानी का मॉरल
सूत्र – 92 – व्यवस्था का अस्तित्व स्वार्थ और भावना जैसी दो विपरीत प्रवृत्तियों पर टिका है।

Monday 5 July 2010

एनर्जी मैनेजमेंट

मैं उसके तर्कों के आगे पूरी तरह से निरूत्तर थी, और इसने मुझे बुरी तरह से उदि्वग्न कर दिया था। मैं वहाँ से निकल आई थी, प्रकट में मैंने नहीं माना, लेकिन अंदर कहीं वो बात कहीं अटक गई कि स्त्रियाँ इतनी प्रतिभासंपन्न नहीं होती है, माना तो वहाँ भी नहीं था, लेकिन यूँ कहा जा सकता है, जैसे मुझे एक हाइपोथिसिस मिल गई थी। अब घटनाएँ, परिस्थितियाँ और लोग इसी हाइपोथिसिस पर रखे जाएँगें, लेकिन ये सब तो बहुत बाद की बात थी, उस वक्त तो अपना सारा पढ़ा-लिखा, जाना, सोचा और विश्लेषित किया हुआ बेकार लगा था। बहुत याद करने के बाद भी मैं इतिहास से कोई उदाहरण नहीं ला पाई थी। वो सारे नाम जो उसने गिनाए थे, पुरुष थे, हर क्षेत्र के धुरंधर.....मैं बस इतना ही कह पाई थी कि स्त्री पुरुष को बनाने और उसके घर को सँवारने में ही खुद को होम कर देती हैं।
उसने चिढ़ाती-सी हँसी से पूछा था – किसने कहा.... उन्हें ये सब करने के लिए, किसी ने कोई जबरदस्ती तो नहीं की, वे खुद ही अपनी मर्जी से करती हैं, न करें। कुछ होकर दिखाए।
स्त्री को जीवन से सब कुछ चाहिए, इसलिए वो कुछ देकर सबकुछ पाना चाहती है। - मैंने ऐसा कहा तो उसने तो इस पर भी उपहास ही किया - अच्छा.... तो फिर शोषण की दुहाई क्यों देती हैं?
क्योंकि वे पुरुष को बनाती है, लेकिन पुरुष उन्हें सीढ़ियों की तरह इस्तेमाल करता है और फिर फेंक देता है। उनके त्याग के लिए कभी भी उनका आभारी नहीं रहता है। - मैंने जवाब दिया था
यही तो.... यही तो मैं कहना चाहता हूँ। त्याग क्यों करती है? जब उनका कोई प्रतिदान उन्हें नहीं मिलता है। देखो, थोड़े ठंडे दिमाग से सोचो..... यदि वेग होता है, तो फिर उसे किसी भी तरह से रोका नहीं जा सकता है, यहाँ वेग की ही कमी है। - उसने बहुत संयत हो कर कहा था।
एक बार फिर से मैं निरूत्तर थी। एकबारगी गुस्सा उन स्त्रियों पर आया था, जिन्होंने अपना उजला करियर अपने पति और बच्चों के नाम कुर्बान कर दिया था.... और मेरे पास प्रतिभासंपन्न स्त्री के उदाहरण के नाम पर कुछ भी नहीं रहने दिया था। आँसू उमड़-उमड़ कर बाँध तोड़ने की ताक में थे.... उसी झोंक में मैं वहाँ से बाहर आ गई थी। इतना बुरा मूड लेकर मुझे घर नहीं जाना था, यूँ भी आज माँ का जन्मदिन हैं और भाभी ने इसके लिए एक सरप्राइज पार्टी रखी है। मूड ठीक करने और माँ के लिए कुछ खऱीदने के उद्देश्य से मैं मॉल में आ गई।
भाभी को फोन कर पूछा कि बाजार से कुछ लाना तो नहीं है...? उन्होंने कुछ छोटी-मोटी चीजें लाने के लिए कहा और याद दिलाया कि एक बार संजू को फोन कर कह दें कि आज थोड़ी जल्दी घर आ जाए। मैंने पूछा कि – भाई को मालूम नहीं है क्या?
भाभी हँसी थीं..... – अरे मर्दों को इस तरह की चीजें कहाँ याद रहती है।
कुछ चट से कौंधा.....और पापा... – मैंने पूछा था
हो सकता है पापा को याद हो, लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ जाहिर नहीं होने दिया। - भाभी ने जवाब दिया- अच्छा तू जल्दी से बाजार का काम कर घर आ।
घर पहुँची फिर भईया को फोन किया। भाई ने पूछा - क्यों, कुछ खास काम है क्या?
हाँ थोड़ा जरूरी काम है, बस तू आजा।
घर पहुँची तो भाभी ने दरवाजा खोला था। माँ कहाँ हैं? – मैंने पूछा था, क्योंकि दरवाजा हमेशा माँ ही खोलती हैं।
भाभी ने मीठा-सा मुस्कुराते हुए इशारे से बताया उपर..... हम दोनों को ही समझ में आ गया था कि माँ थोड़ी उदास, थोड़ी नाराज है। आखिर घर में किसी ने भी उन्हें जन्मदिन की बधाई जो नहीं दी।
शाम को जो हुआ, उससे माँ की आँखें भर आईं और वो उन्हीं भरी-भरी आँखों से भाभी को निहारती रहीं। हमारे घर की धुरी हैं भाभी.... यदि मैं यूँ कहूँ कि परिवार किसे कहते हैं, इसका अहसास हमें भाभी ने कराया है, तो ज्यादा नहीं होगा। भाई-भाभी की लव मैरिज है। माँ थोड़ी नाराज थी, लेकिन पापा ने हाँ कर दी थी, तो माँ को भी मानना ही पड़ा था। अब तो माँ जैसे भाभी की ही माँ हैं और सच पूछो तो मुझे भी भाभी ने माँ का ही सा प्यार दिया। अब हो सकता है ये मानना थोड़ा मुश्किल हो, लेकिन आज भी हमारे समाज में ऐसे घर हैं। कह सकते हैं कि स्त्री को जीवन की मूल चीजों की समझ है, हाँ..... फिर से कुछ कौंधा।

सावन खत्म होने को था.... आज सुबह जब मैं घर से निकली तो मौसम धूप-छाह का हो तो रहा था, लेकिन ऐसा नहीं लगा था कि इतनी बारिश होगी.... करीब 2 बजे से लगातार बादल बरस रहे हैं और एक घड़ी को भी नहीं लगा कि थके हो.... बहुत देर लायब्रेरी में बैठने के बाद.... आखिर मैंने तय किया कि अपनी गाड़ी कॉलेज में रखकर ऑटो से घर चली जाती हूँ। जब मैं लायब्रेरी से बाहर निकली तो राहुल को सामने से आता देखा....मैंने अपनी चाल थोड़ी धीमी कर ली, सोचा निकल जाए, फिर मैं बाहर निकलती हूँ, लेकिन पता नहीं मुझे क्यों लगा कि वो भी धीरे-धीरे चलने लगा.... दोनों एक-दूसरे के सामने आ खड़े हुए..... आप अभी तक गईं नहीं.... ? – राहुल ने पूछा
उस दिन के बाद से मैं उससे थोड़ा कटने लगी थीं, पता नहीं क्यों मुझे ये लगने लगा था कि स्त्री की योग्यता का तर्क कहीं न कहीं मुझसे भी आकर जुड़ता है। फिर भी जब उसने सवाल पूछा तो जवाब तो देना ही ठहरा, आखिर इतनी बदतमीज तो नहीं ही हो सकती हूँ।
हाँ इंतजार कर रहीं थी कि बारिश कम हो तो निकलूँ, लेकिन बहुत देर हो गई, अब तो जाना ही होगा। - मैंने मायूस होकर कहा।
चलिए मैं आपको छोड़ देता हूँ। - राहुल ने सौजन्यता दिखाई
नहीं, आपको तो दूसरी तरफ जाना होगा। आई विल मैनेज....- मैंने कहा।
आप मुझे अपने घर नहीं ले जाना चाहतीं हैं? – उसने सीधे ही गोला दागा
अरे नहीं.... – मैं थोड़ा हड़बड़ाई - ऐसी कोई बात नहीं है, आप क्यों बेकार में तकलीफ करें, इसलिए...
कहीं मुझे यूँ लगा कि ये खामख्वाह ही घर आना चाहता है, लेकिन अब इतना कहने के बाद मेरे पास उसके साथ जाने के अलावा और कोई विकल्प बचा नहीं था। उसने जेब से चाभी निकालते हुए मुझसे कहा – आप इंतजार करें, मैं गाड़ी निकालकर लाया।
घर पहुँचे तो भाभी ने दरवाजा खोला...... – भाभी.... ये – मैं तो अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाई थी, कि राहुल चहका.... राजी दी.... आप यहाँ?
भाभी भी चौंकी – अरे राहुल, तुम यहाँ कब से हो?
मतलब आप एक-दूसरे को जानते हो.... ? – मैं दोनों को आश्चर्य से देख रही थी।
हाँ, राहुल और रोनित दोनों बचपन के दोस्त थे... फिर एकाएक भाभी की आँखों में उदासी घिर आई। रोनित भाभी का भाई था, प्यार के चक्कर में उसने अपनी जान ले ली और उसके मरने के बाद घरवालों को पता चला कि दरअसल हुआ क्या था?
एक तरह से अच्छा ही हुआ कि भाभी और राहुल दोनों एक-दूसरे को इतने अच्छे से जानते हैं, मुझे थोड़ा सा अवकाश मिल गया।
जब मैं चेंज कर लौटी तब तक भाभी नाश्ता लगा चुकी थीं। मैं चाय बनाने चली गईं तो दोनों पुरानी यादें ताजा करने में लग गए। शनिवार था, भाई भी जल्दी घर आ गया। भाभी ने राहुल का परिचय भाई से कराया। चाय का कप सबको पकड़ाकर मैं भाभी की बगल में बैठ गई। राहुल भाभी से पूछ रहा था – आपके म्यूजिक का क्या हुआ?
कहाँ यार.... शादी के बाद दो-तीन साल तो चला फिर मुश्किल आने लगी तो छोड़ दिया। कभी-कभी घर पर ही रियाज कर लेती हूँ। - भाभी ने मुस्कुराते हुए कहा
भाई को पता नहीं क्यों लगा कि कहीं वह इसके लिए दोषी न ठहराया जाए तो उसने कहा – मैंने तो कहा था कि इसे कंटीन्यू रखो, लेकिन राजी ने ही बंद कर दिया।
अब देखो ना घर-परिवार, नौकरी और सबसे खास बिहाग, उसकी पढ़ाई लिखाई, जरूरतें और फिर संस्कार... इस सबके बीच हम कहाँ अपने शौक पूरे सकते हैं? फिर यही जीवन है।– भाभी ने एक तरह से भाई को बरी कर दिया।
..... फिर कुछ कौंधा..... अपनी हाइपोथिसिस याद आ गई। मैं फिर से खुद में उलझ गईं....।

भाई को एक पार्टी में जाना था, तो मैं और भाभी कॉफी का कप लेकर छत पर चले आए। दिन भर बरस-बरस कर बादल रीत गए थे, रात ज्यादा स्याह हो गई थी और थोड़ी ठंडी भी...।
भाभी आपने संगीत सीखना क्यों छोड़ दिया? आपको नहीं लगता कि आपको इसे जारी रखना चाहिए था? – मेरे अंदर वो चुभन कम हो ही नहीं रही थी....
लगता है कभी-कभी, लेकिन फिर हमें अपने जीवन में कई चीजें तय करनी होती हैं, यू नो प्रायरीटिज.... हमें तय करना होता है, कि हमें क्या चाहिए और किस कीमत पर....। मुझे अपना परिवार चाहिए, हर कीमत पर ; तो बात खत्म हो जाती है, फिर ऐसा भी नहीं था कि मैंने सबकुछ को मैनेज करने की कोशिश नहीं की... की, लेकिन.... सबकुछ कर पाने के बाद भी समय तो उतना ही है ना? बस.... – भाभी बहुत स्पष्ट है, अपने तईं।
आपको क्या लगता है, भाई ने आपके लिए क्या या छोड़िए, परिवार के लिए क्या छोड़ा? – मैं थोड़ी तीखी हो आई...।
देखो, मैंने शायद तुम्हें पहले भी कहा था कि पुरुष भागता है, बस..... उसे समझ नहीं है कि आखिर उसकी खुशी किसमें हैं? औरत जानती है कि उसे कौन-सी चीज खुश करती है, वो जिंदगी की मूल चीजों को बहुत बचपन से पहचान जाती है। बिना बेटी के परिवार कभी भी बँधा हुआ नहीं रह सकता है। क्यों? क्योंकि औरत ये जानती है कि आखिर खुशियों का मूल कहाँ है, उसका स्रोत कहाँ है? – कह कर भाभी कॉफी का आखिरी घूँट भरने लगीं।
मुझे हमेशा से लगता आया है कि भाभी कितनी निर्द्वंद्व रहतीं हैं, कभी भी उन्हें किसी भी तरह के द्वंद्व में नहीं पाया, अब भी नहीं हैं।

आज अंतिम लैक्चर के दौरान ही गले में तकलीफ बढ़ गई। लैक्चर बीच में ही छोड़ा और प्रिसिंपल को बता कर घर आ गई। भाभी अभी तक ऑफिस से लौटी नहीं थीं। चाय के दौरान माँ ने बताया प्रज्ञा आई हुई है, कल तुम लोग जल्दी आकर उससे मिल आना। भाभी घर लौटी तो प्रज्ञा दी के लिए कुछ गिफ्ट लेकर.... एकाएक मुझे लगा कि वो तो हमारी बहन हैं, लेकिन भाभी..... शायद इसे ही तो स्त्री की ऊर्जा कहते हैं.....। तमाम जिम्मेदारियाँ संभालते, अपना, अपने पति, बच्चे, करियर और शौक के लिए जूझते, करते और संघर्षरत रहने के बाद भी अपने सराउंडिंग को लेकर इतना सजग रहना तो एक औरत के बूते की ही बात है। भाभी सही है, पुरुष एक समय में एक ही काम में अपनी ऊर्जा लगाते हैं।
रात होते-होते तक तो बुखार आ गया और चार दिन तक उसी में पड़ी रही। इस बीच राहुल ने भाभी को फोन किया।
राजी दी, अदिति की तबीयत कैसी है?
डॉक्टर ने वायरल बताया है, हफ्ता तो कम से कम स्वस्थ होने में लगेगा ही।
और उसी शाम राहुल घर आ गया। इस बीच मैं अपनी हाइपोथिसिस पर बहुत सारा काम कर चुकी थी। बहुत सारा कुछ सोच चुकी थी। क्या करूँ कि बहुत कोशिश करने के बाद भी मैं उस सबसे उबर नहीं पा रही थी।
राहुल तुम्हारी पेंटिंग का क्या हुआ? – भाभी ने भी भूली हुई सी बात को याद कर पूछा, यूँ लगा मुझे जैसे सब कुछ मेरे ही लिए बुना गया हो।
अरे दी.... पढ़ाई और करियर में सबकुछ बह गया। और अब जब सब कुछ ठीक है तो समय ही नहीं मिलता। - उसने सफाई दी
मैं तो जैसे भरी हुई ही थी – क्यों टाइम मैनेजमेंट का क्या हुआ?
टाइम मैनेजमेंट.... ? – एकसाथ सभी चौंके
हाँ, उस दिन आपने ही तो कहा था कि टाइम मैनेजमेंट करना होता है, सब कुछ किया जा सकता है। - पहली फायरिंग
राहुल ने माइल्ड करने के लिए कहा – कौन कहता है राजी दी कि अदिति बीमार है, लड़ने के लिए कैसी तैयार बैठी है? कोई बीमार आदमी इस तरह से लड़ पाएगा...
मैं हँसी - हाँ आदमी तो नहीं, लेकिन औरत तो लड़ सकती है।
अरे....- सारे लोग हँसने लगे।
भाई ने कहा – अरे, इसमें आदमी औरत कहाँ से आते हैं?
आते हैं भाई, आते हैं....औरत के पास ऊर्जा का असीमित स्रोत होता है, आपको नहीं पता होगा कि बिहाग को कौन सी ड्रेस अच्छी लगेगी, भाभी को पता होगा, आपको नहीं पता होगा कि फीमेल फैशन के ट्रेंड्स क्या है, भाभी को पता होगा कि मेल फैशन ट्रेंड्स क्या होंगे? आपको नहीं पता कि कॉलोनी के नुक्कड़ पर कौन-सी नई दुकान खुली है, हमें पता होगा। हमारे पास भी उतना ही समय होता है, जितना आपके पास, हमारे पास उल्टे दबाव ज्यादा होते हैं। हर जगह हम सिद्ध होने की चुनौती का सामना करते हैं। कभी कर भी पाते हैं और कभी नहीं भी, लेकिन जब नहीं कर पाते हैं तो हमें माफी नहीं मिलती है। - मैं बोलते-बोलते हाँफ गईं थीं।
भाभी मुस्कुराई.... अदिति भरी बैठी है क्या?
थोड़ा स्वस्थ होने के बाद मैंने फिर बोलना जारी रखा – मैं बहुत दिनों से इस बारे में सोच रही थी.... दरअसल जब आपके पास चीजें सीमित होती है तो आप उसे बहुत सोच समझ कर मैनेज करते हैं और इसलिए वो बहुत अच्छे से यूज हो पाती है। टाइम और मनी मैनेजमेंट को ही लो... जब इनकी कमी लगी तभी तो इन्हें मैनेज करने का विचार आया। तो औरतों के पास ऊर्जा की इफरात होती है और इसलिए उस ऊर्जा को बाहर आने के लिए बहुत सारे रास्तों की जरूरत होती है। और वे उसका ठीक से उपयोग नहीं कर पाती हैं। इसे इस तरह से समझे जब गर्मियों में पानी की किल्लत होती है तो हम पानी को किस किफायत और समझदारी से इस्तेमाल करते हैं, और बारिश में..... उसी पानी को खूब बर्बाद करते हैं, तो इन शॉर्ट पुरुष के पास सीमित ऊर्जा होती है, इसलिए वे उसका ठीक से उपयोग करते हैं, जो काम कर रहे होते हैं, उस पर पूरा ध्यान लगाकर करते हैं और सफल हो जाते हैं। - मैं पानी पीने के लिए थोड़ा रूकी।
राहुल ने कोई प्रतिवाद नहीं किया, मुझे आश्चर्य हुआ। भाई आश्चर्य से मुझे देख रहा था, पूछा – मामला क्या है?
राहुल ने पूरा मामला समझाया तो भाई ने एक नई बात कही – ओशो कहते हैं कि पुरुष में एक किस्म की बेचैनी होती है, और स्त्रियों में एक किस्म का ठहराव....। बेचैनी उससे बहुत कुछ करवाती है, स्त्री का ठहराव उसे कुछ भी करने के लिए प्रेरित नहीं करता है।
हाँ तो ठीक है, अब इस दौर की स्त्रियों ने भी उस ठहराव को त्याग दिया है। आधुनिक दौर के लांछन सहते-सहते कि उन्होंने मानवता के लिए कुछ नहीं किया, अब वे करने पर उतरीं हैं, लेकिन देखना अब जो होगा, वो मानवता के लिए ज्यादा बुरा होगा। स्त्री जब जागेगी तो सबसे पहले समाज का विघटन होगा, क्योंकि उसी के क्षरण पर समाज का किला खड़ा है। - मैं चुप हो गईं
भाभी ने सभी के हाथ में चाय के कप पकड़ा दिए थे।

कहानी का मॉरल
सूत्र - 93 - पुरुष की उपलब्धियों का राज उसकी 'सीमित' ऊर्जा में हैं