Monday 18 April 2011

भरीपूरी प्यास....! - 6

मुझे याद है उन दिनों तुम अक्सर प्रेरणा मैम की क्लास बंक करके घर चली जाती थी। तुम बस शाम तक अपने घर पहुँच जाना चाहती थी, और सर्दियों में तो यूँ भी शाम बहुत जल्दी होती थी और छोटी भी… तो लगभग हर दिन सवा तीन वाली क्लास बंक करके चली जाती थी, एक दिन जब पिछले रास्ते से तुम जा रही थी, तभी प्रेरणा मैम सामने पड़ी थी और उन्होंने तुमसे पूछा था – सलोनी तुम मेरी क्लास में क्यों नहीं आ रही हो...?
और तुम्हारे पास कोई जवाब नहीं था, तुम हड़बड़ा गई थी और तुमने कहा था – क्योंकि शाम जल्दी हो जाती है... और प्रेरणा मैम सहित सारे ही ठहाके मार कर हँस दिए थे। कभी-कभी तुम्हारी बातें बड़ी अजीब हुआ करती थीं, तुम कहती थीं कि तुम्हें शाम इसलिए पसंद हैं, क्योंकि वो उदास करती है... तो क्या उदास होने के लिए तुम बेचैन हुआ करती थी? उस दिन सेमिनार का आखिरी दिन था और शाम को संजुक्ता पाणिग्रही का ओडिसी था... हाँ ओडिसी..., जिसे मैंने कथक कह दिया था और तुमने मेरे सिर पर एक चपत लगाई थी... कथक नहीं, ओडिसी...। मैंने भी लापरवाही से कहा – हाँ क्या फर्क पड़ता है, दोनों ही तो डांस हैं...
तो तुमने सीधे मेरी आँखों में आँखे डाल कर सवाल किया था – सचमुच फर्क नहीं पड़ता...? स्मिता या मैं... दोनों ही तो लड़कियाँ हैं? मुझे नहीं पता था कि तुम्हें कहाँ और कब ऐसा लगा था कि मैं तुमसे सचमुच प्यार कर बैठा हूँ... स्मिता के बावजूद...।
उस दिन सेकंड सैशन से निबटते-निबटते ही चार बज चुकी थी, तुम्हारा घर जाना और लौटकर आना संभव नहीं था... उस दिन मैंने पहली बार तुम्हें शाम को देखा था और शायद पहली ही बार उदास होते भी। टी-ब्रेक के बाद हमारा काम यूँ भी खत्म हो जाया करता था, इसलिए सब इधर-उधर हो गए थे... तुम भी... थोड़ी देर तो मुझे अहसास ही नहीं हुआ था, लेकिन जब याद आया कि आज तुम घर नहीं जाने वाली हो तो, तुम्हें ढूँढना शुरू किया। तुम फूड टेंट के पीछे एक कुर्सी लगाकर बैठी थी, मैं जब तुम्हें ढूँढता हुआ वहाँ पहुँचा तो एकाएक मुझे लगा कि – तुम पूरा-का-पूरा आसमान ओढ़े बैठी हो... हालाँकि तुम्हारे कपड़ो का रंग गहरा आसमानी... नहीं डार्क ब्लू था, फिर भी... तुम्हारी आँखों में शाम उतर आई थी... गीली-सीली-सी...। और जब मैंने आकर तुम्हें जगाया था, तब तुम बुरी तरह से खिन्न नजर आई थी... क्या हुआ? – मेरे पूछने पर तुमने कुछ भी नहीं कहा था, बस ‘कुछ नहीं’ में गर्दन हिला दी थी।
तुम कभी-कभी बहुत अजीब तरीके से बिहेव करती थी... उस दिन मैंने तुम्हें बहुत उदास पाया था... बहुत-बहुत, इतना कि मैं डर गया था। आखिर तुम्हें तो मैंने कभी भी उदास नहीं देखा था। मैं बहुत असमंजस में था कि क्या कहूँ, कैसे कहूँ? तुम्हें इस उदासी से कैसे बाहर निकालूँ? कि देखता हूँ कि थोड़ी ही देर बाद तुमने चहक कर कहा था – कितना अच्छा लग रहा है ना मन...? और मैं तुम्हारे चेहरे को पढ़कर जानने की कोशिश कर रहा था कि क्या सचमुच तुम्हें अच्छा लग रहा है या फिर तुम मुझे बहला रही है, लेकिन तुम्हारा चेहरा उस वक्त पूरी तरह से पारदर्शी था, चमक रहा था उस अच्छे लगने से जिसे अभी-अभी तुमने कहा था।
क्रमशः

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