Sunday 21 November 2010

हारना... खुद से....

अजीब दलदल-सा महसूस हो रहा है... जितना बाहर की ओर आने की कोशिश कर रही हूँ, उतना ही धँसती जा रही हूँ, कोशिश छोड़ी भी नहीं जाती और यहाँ रहा भी नहीं जाता... आमतौर पर तर्कों में किसी से हार न मानने वाली मैं, एक पागलपन का शिकार होती जा रही हूँ, कोई तर्क, कोई आश्वासन मेरी परेशानी को कम नहीं कर पा रहा है। ऐसी स्थितियों में जो बात मैं किसी को कहकर समझा सकती हूँ, सांत्वना दे सकती हूँ, वे ही शब्द मेरे लिए बस शब्द हो कर रह गए है, अर्थहीन शब्द....।
कॉफी का कप तभी से टेबल पर पड़ा हुआ है, बस दो घूँट कॉफी ही पी पाई थी... उसके बाद से न स्क्रीन पर कुछ नजर आ रहा है, न टेबल पर और न ही दिमाग में कुछ है...। नीरा ने आकर कंधे पर हाथ रखा... नित्या मोबाइल बज रहा है, कहाँ है तू...?
ओ... अनिंद्य का मुस्कुराता फोटो... फोन।
हाँ
ठीक हो ना...? – अनिंद्य की चिंता से लबरेज आवाज
अँ... हाँ..., ठीक हूँ।
नहीं... तुम्हारी आवाज ठीक साउंड नहीं कर रही है। यू डोंट वरी... मम्मा इज नाऊ ओके... आनंद ने मेरी बात भी कराई है मम्मा से... - अनिंद्य ने समझाया।
हाँ... – गला भर्रा गया और इसके आगे के शब्द अंदर ही कहीं खो गए।
प्लीज नीतू... बिहेव लाइक ए मैच्योर वूमन... सब ठीक है। - अनिंद्य की तड़पती आवाज भी जैसे मेरे ज़हन से टकराकर लौट रही हो... मुझ तक कुछ भी नहीं पहुँच रहा है।
सुनो नीतू... सब ठीक हो जाएगा, बिलीव मी... हेव फेथ इन गॉड...। देखो यदि तुम इस तरह करोगी तो आनंद को कौन संभालेगा? उसके बारे में तो सोचो जरा, वो तुमसे छोटा है, उसे कौन हिम्मत बँधाएगा? – अनिंद्य के शब्द तो कानों तक पहुँच रहे हैं, लेकिन या तो उसका अर्थ मुझ तक नहीं पहुँच रहा है, या फिर मैं ही वहाँ नहीं पहुँच पा रही हूँ।
मेरी ट्रेवल एजेंट से बात हो गई है, हमें परसों सुबह की फ्लाइट लेनी है, प्लीज एक दिन और.... प्लीज.... नीतू... तुम सुन रही हो ना...।
हाँ... फिर से भर्राई-सी आवाज। - आय एम ओके... बस इतना ही कह पाई और फोन काट दिया। टेबल पर पड़े फोन को लगातार एकटक देखती रही और फिर उसे उठाकर वाशरूम की तरफ चली गई।
जब से आनंद ने बताया है कि मम्मा की तबीयत ठीक नहीं हैं, उन्हें हॉस्पिटलाइज किया है, मेरे अंदर बहुत जल्दी-जल्दी कुछ घट रहा है। तुरंत तो मैंने उसे बस इतना ही कहा था, तू घबराना मत, डोंट बी पैनिक... हम जल्दी ही आने की कोशिश करते हैं। खुद पर बड़ा आश्चर्य भी हुआ कि कितना सधा हुआ व्यवहार था। अपनी जगह से उठी थी, कॉफी मशीन से कॉफी भरकर लाई... एक-दो घूँट कॉफी पी भी... फिर धीरे-धीरे जैसे मन की ठोस और शांत परत दरकती चली गई... अंदर की हलचल से... शांति और स्थिरता का सारा तिलस्म टूट गया... तूफान-सा उठ खड़ा हुआ... अंदर बाहर।
वॉश रूम में घुसते ही, जैसे बाँध टूट गया। हथेली से मुँह को दबाकर आवाज को तो घोंट लिया सिसकी नहीं घोंट पाई, बहुत देर तक वहीं खुद से संघर्ष करती रही, लेकिन कितना रोया जा सकता है? जो वक्ती ग़ुबार था, उसे निकालकर चेहरे पर पानी की छींटे दिए नैपकीन से पोंछा... और बाहर निकल आई। पता नहीं क्यों आज फोन बार-बार ध्यान खींच रहा है। बार-बार लगता है, आनंद से एक बार और बात कर लूँ... फिर डर लगने लगता है, कहीं कोई ऐसी-वैसी खबर हुई तो...। टेबल पर आकर काम करने में मन लगाया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। सोचा घर चली जाऊँ, लेकिन फिर खुद ही जवाब भी दिया घर जाकर क्या होगा? यहाँ तो फिर भी कहीं मन लगेगा, घर जाकर तो बस रोने के अलावा और कुछ भी नहीं होगा।
फिर से फोन बजा... अनिंद्य की असायन टोन थी, इसलिए घबराहट वैसी नहीं हुई।
हाँ... फिर से आवाज भर्रा गई – पता नहीं क्यों अनिंद्य के सामने मैं इतनी कमजोर कैसे हो जाती हूँ, जबकि जानती हूँ कि मेरी परेशानी में वो पागल हो जाते हैं, फिर भी मैं खुद को उनके सामने क्यों नहीं संभाल पाती हूँ?
मैं बाहर हूँ, तुम्हें लेने आया हूँ। - अनिंद्य ने कहा
लेकिन...
तुम आ जाओ, हम घर चल रहे हैं, बस...- आदेश दे चुके थे अब कोई और विकल्प बचा भी नहीं था।

घर पहुँचकर बिना चैंज किए ही मैं तो निढ़ाल होकर पलंग पर पड़ गई थी... रोना तो नहीं आ रहा था, लेकिन बेतरह बेचैनी हो रही थी। जब रोने की जरूरत हो और रो नहीं पा रहे हों तो कैसी तीखी घुटन होती है, बस वैसी ही हो रही थी। अनिंद्य जूस बनाकर ले आए थे। मैं आँखें बंद किए पड़ी थी, खुद से लड़ती हुई-सी। सवाल-जवाब अंदर ही चल रहे थे। मैं खुद से ही कह रही थी, हुआ क्या है? बस मम्मा चक्कर खाकर ही तो गिरी हैं!
नहीं, शायद चक्कर खाकर नहीं गिरी थीं, क्या पता स्ट्रोक हो... ?
नहीं ऐसा होता तो आनंद ये बताता ना...!
हो सकता है, वो मुझे परेशान नहीं करना चाहता हो, हो सकता है, वो भूल गया हो।
च्च भूल कैसे सकता है? कोई ऐसी बात भी भूल सकता है भला?
तो क्या हुआ, यदि स्ट्रोक हो तो भी, क्या उसके बाद सबकुछ ठीक नहीं होता है? सैकड़ों उदाहरण हैं।
हाँ, हैं तो... लेकिन... मेरे ही साथ ऐसा क्यों हो रहा है?
अरे... क्या ऐसा मेरे ही साथ हो रहा है? तीन महीने पहले ही तो पुनीत के पापा... पुनीत तो कितना छोटा है।
हाँ, लेकिन... नहीं ऐसा मेरे साथ नहीं हो सकता।
क्यों नहीं हो सकता है? आखिर तो एक दिन खुद तुम्हें भी तो जाना है...!
हाँ इससे कौन बच सकता है?
तो फिर... ?
लेकिन मेरी ममा...
वो सब कुछ जो ऐसे समय में किसी को भी कहा जा सकता है, कोई भी कह सकता है, मैं खुद को कह रही हूँ। वो सारी सकारात्मक और हिम्मत बँधाने वाली बातें मैं याद करने की कोशिश कर रही हूँ, जो कभी पढ़ी, सुनी और अच्छी लगने पर कहीं नोट भी की थी... खुद को समझाने की कोशिश कर रही हूँ, लेकिन लगता है कि यहाँ कोई भी बात असर नहीं कर रही है, सब कुछ जो साधारणतः आपको प्रोत्साहित करता है, आश्वस्त करता है, मुश्किल समय में सब व्यर्थ हो जाता है, खोखला और अर्थहीन होकर रह जाता है, बेजान शब्द... निरे, बेकार-से शब्द...।
नीतू....- अनिंद्य से सिर पर हाथ रखा था।– जूस...

सारी तैयारी शाम को ही कर चुकी थी। तैयारी क्या करनी थी? कोई शादी में तो जा नहीं रहे थे। बस कुछ कपड़े बैग में रखने थे। हाँ, जेवर वगैरह सब अनिंद्य के हाथों लॉकर में रखवाए थे। अलमारी में से सारी नकदी निकालकर अपने पर्स में रख ली थी। खुद ही सोच रही थी – आदमी कितने स्तरों पर जीता है? परेशानी में भी, हम पूरी तरह गाफ़िल नहीं हो जाते हैं। हमारा कुछ हिस्सा ऐसा होता है, तो सतर्क होता है, हमसे अलग होता है, हमारी दुख-तकलीफ और संवेदना से अलग... खालिस दुनियादार होता है। नहीं तो कैसे ऐसे हाल में भी मुझे अपने गहनों, घर और पैसों की याद रहती ... क्या दुख-सुख हमें पूरा नहीं डुबो पाते हैं... ? कहीं कोई हिस्सा सूखा ही रह जाता है, क्या ये वो दरार है, जहाँ से जिंदगी अपनी राह निकाल कर भीतर दाखिल हो जाती है?


टैक्सी में बैठते ही... फिर से ममा और आनंद याद आ गए। आनंद को फोन लगाया।
हाँ, बेटा ममा कैसी है?
ममा ठीक है। बल्कि शायद आज डॉक्टर डिस्चार्ज दे दें। - आनंद की आवाज में जैसे जिंदगी लौट आई हो। मुझे लगा कि सिर से कुछ नीचे बहना शुरू हुआ है... बहुत धीरे-धीरे...।
डॉक्टर क्या बताते हैं? – मेरे पूछने में आत्मविश्वास लौट आया है। मेरी आवाज और लहजे को सुनकर अनिंद्य मुस्कुरा रहे हैं।
सारी रिपोर्ट नॉर्मल हैं। कोई कॉर्डिएक कॉम्प्लीकेशन भी नहीं है।
फिर ऐसा क्यों हुआ? – कहीं छुपे बैठे संदेह ने फिर से सिर उठाया है।
कुछ टेबलेट का रिएक्शन बता रहे हैं। शायद बीपी की टेबलेट का..., उसे बदल दिया है। - आनंद बता रहा है।
ठीक है हम घंटे भर में पहुँच रहे हैं।
ओके... शायद हम भी घर पहुँच जाएँ... डॉक्टर राउंड पर हैं, डिस्चार्ज कर रहे हैं। चलो फिर बात करते हैं। - आनंद ने कहकर फोन काट दिया।
एकाएक मेरे अंदर बहुत सारा कुछ उमड़ा। ड्राइवर के होने को भी नजरअंदाज कर गई और अनिंद्य के कंधे पर सिर रखकर सुबकने लगी।
वो थोड़ा खीझ गए... क्या है यार... अब क्यों रो रही हो... ? तुम्हारा मुझे कुछ समझ ही नहीं आता है। परेशान थी, तब भी रो रही थी और अब भी...। सारी दुनिया को तुम समझा सकती हो, खुद अपने आपको नहीं। और मुश्किल ये है कि तुम मेरी भी कोई बात न तो सुनती हो न समझती हो...।
क्या करूँ... ? परेशानी में मैं बस पागल हो जाती हूँ, मैं जानती हूँ ये गलत है। जहाँ ऊर्जा की जरूरत होती है, वहाँ तक पहुँच ही नहीं पाती है, लेकिन... आय एम हेल्पलेस...। – फिर से आवाज भर्रा गई।
चलो... बहुत नाटक हो गया... नाऊ चीयरअप...- अनिंद्य ने मीठे-से झिड़ककर कहा और मेरा सिर अपने सीने पर टिका लिया।
कहानी का मॉरल – सूत्र 107
दुनिया की सारी सकारात्मकता, प्रतिकूलताओं में अर्थहीन हो जाती है.