Sunday 26 June 2011

कुछ न समझे खुदा करे कोई...!

सूरज बस अभी-अभी तालाब के उस सिरे से झाँका ही था कि बादल ने आकर उसे दबोच लिया... बचपन की छुपाछाई उन दोनों के बीच चलने लगी थी। हवा मंद थी और हौले से छूकर गुजर रही थी। वो कहीं और थी हाथ में कुछ छोटे-छोटे पत्थर लेकर बैठी वो कभी-कभी कोई पत्थर तालाब में उछाल देती और वहाँ उठती तरंगों को तब तक देखा करती, जब तक कि वो शांत नहीं हो जाती। फिर कहीं गुम हो जाती और तालाब यूँ ही उसके पत्थर के इंतजार में दम साधे रहता।
शिशिर अपने नए कैमरे से उस प्राकृतिक नजारे को कैद करने में जुटा हुआ था। थोड़ी देर बाद थक कर वो भी रेवा की बगल में जा बैठा। वो समझ रहा था... समझ क्या रहा था बल्कि महसूस कर रहा था कि उसके अंदर फिर से आग धधक रही है, क्योंकि उसकी आँच खुद शिशिर को भी झुलसा रही थी। तीन दिन से वो पता नहीं कहाँ होती थी। जब भी दोनों साथ होते थे उदासी की एक पतली-सी झिल्ली रेवा के गिर्द उसे महसूस होती थी।
उस दिन तो रेवा ने उससे पूछा भी था – ये दुख क्या होता है?
शिशिर पहले उलझा... फिर उसी का कभी कहा हुआ दोहरा दिया – जो चाहो न हो वो दुख है...।
उसने इंकार में सिर हिला दिया – नहीं... उतना ही नहीं है दुख... कुछ और भी है दुख... या... या कि महज मन की स्थिति है दुख...? – उसने खुद से ही फिर से सवाल कर डाला था।
वो लगातार उस सवाल से जूझ रही थी, लेकिन सिर्फ इतना ही नहीं था...। ऊब थी, एंक्जायटी, एक निराशा... या पता नहीं और क्या-क्या....? रेवा अक्सर कहती है कि ये जेनेटिक डिफेक्ट है या फिर (अक्सर हँस कर) मैन्यूफैक्चरिंग...।
सालों-साल शिशिर समझ नहीं पाया था कि कोई ऐसे ही बिना वजह कैसे उदास, निराश हो सकता है? बहुत साल लगे थे रेवा को समझाने में कि ऐसा होता है। बहुत सारे बेतुके सवाल उठते हैं और वो फिर उसे घेर लेते हैं, वो उनसे निकलने के लिए बहुत कसमसाती है, खुद से बहुत संघर्ष करती है, लेकिन नहीं निकल पाती, बस ऐसे ही चलता रहता है और फिर किसी दिन सारी आग धीरे-धीरे बुझ जाती है और सबकुछ सामान्य हो जाता है। शिशिर को अब भी रेवा की बात समझ नहीं आती है, लेकिन उसने खुद को समझा लिया है।

शनिवार की शाम दोनों के लिए बहुत खास होती है, देर तक जागना, दूर तक टहलने जाना... रविवार को अपने रूटीन को तोड़कर देर तक सोना... लेकिन शनिवार को जब वो अपनी दुनिया में पहुँची तो उसे कोफ्त हुई... उसे वो जैसा छोड़कर गई थी, वो अब भी वैसी ही थी। हर दिन तो शिशिर मुस्कुराहट और मीठी चुहल से उसका स्वागत करता था और आज वो अब तक नहीं पहुँचा। लेपटॉप जैसा खुला छोड़ गई थी, वो वैसा ही था, पलंग पर कंवर्सेशन विथ काफ्का वैसी ही खुली-उल्टी पड़ी थी। पहनने के लिए निकाला नया काला कुर्ता वैसे ही उल्टा पड़ा हुआ था और उसकी स्लीपर एक टेबल के नीचे और दूसरी बाथरूम के दरवाजे के पास पड़ी थी... उफ् सब कुछ वैसा ही है कोई बदलाव नहीं...। पता नहीं क्यों उसे लगता है कि उसे हर दिन कुछ बदला हुआ सा मिले... जैसा वो छोड़कर जाती है, सब कुछ यदि उसे वैसा ही मिलता है तो एक अजीब किस्म की निराशा होती है, कल शाम भी कुछ ऐसा ही हुआ। शाम के यूँ जाया होने पर उसे गुस्सा भी आया था, गुस्सा, निराशा के साथ मिलकर और जहर हो गया था। शिशिर के पहुँचते ही फटने को आतुर... जैसे-तैसे खुद को नियंत्रित किया था, लेकिन तीन दिन की बेचैनी को जैसे रविवार का दिन मिला था पसरने के लिए...।


उसने फिर से कंकर तालाब में फेंका... गोल-गोल तरंगों को देखते हुए बोली – पता है शिशिर अपना अहम्, अपनी सफलता, सुविधा, उपलब्धि, प्रशंसा, ‘होना’... ये सब ‘स्व’ के उपर का आवरण हैं। इनका होना उस ‘स्व’ के नुकीलेपन को कम करते हैं, जिसकी वजह से वो हमारे लिए असहनीय बना रहता है, और इसीलिए हम बमुश्किल उसके करीब जा पाते हैं। - वो चुप हो गई और कहीं और चली गई। शिशिर के लिए उसमें कहने के लिए कुछ था ही नहीं, वो बस उसकी बातें सुन रहा था। वो सोच रहा था – कितनी गुत्थियाँ हैं, अभी तक समझ नहीं पाया कि इसे कहाँ से सुलझाऊँ और कैसे...?
फिर भी शिशिर ने प्रतिवाद किया – नहीं, ऐसा नहीं है। हम जब खुद के साथ होते हैं खालिस ‘स्व’ के साथ, तब ये सब कुछ नहीं होता है, ये सब बाहरी है और हम इसे बाहर ही छोड़ देते हैं, या यूँ कह लें कि ये अंदर पहुँचने से पहली ही झर जाता है।
वो सहमत है- हाँ, वही तो मैं कह रही हूँ। लेकिन... लेकिन जब सारी बाहरी चीजें बाहर रह जाती है तब क्या ये सवाल नहीं उठता कि फिर हम है क्या? क्यों हैं? और... और कब तक रहेंगे? ऐसे ही...
यार... तुम अंदर-बाहर को गड्डमड्ड कर रही हो... – शिशिर ने कहा।
तो क्या तुम दोनों को अलग कर सकते हो? – जैसे उसने चुनौती दी।
हाँ, जब मैं अपने साथ होता हूँ, तो फिर अंदर होता हूँ। जब बाहर होता हूँ तो दुनिया साथ होती है। - शिशिर ने स्पष्ट किया।
यू आर लकी... मैं ऐसा नहीं कर पाती। पता नहीं कैसे बाहर फैलकर अंदर तक चला जाता है। और जब मैं खालिस ‘मैं’ होना चाहती हूँ, तो सारे आवरण छोड़ने पड़ते हैं, और जब निरावृत्त होती हूँ तो सह्य नहीं हो पाती, क्योंकि दरअसल तब महसूस होता है कि ‘मैं’ तो कुछ हूँ ही नहीं... जो कुछ है बस आवरण है। और पता है, जब आपको अपना ‘न-कुछ’ होना महसूस होता है, तब आपको लगता है कि कर्म, दुनिया, रिश्ते, धर्म, विश्वास इन शॉर्ट जीवन... सब... सब कुछ अर्थहीन है, क्योंकि हकीकत में तो कुछ है ही नहीं... इट्स टू पेनिंग...। – उसने फिर से कंकर को तालाब में उछाला...।
शिशिर को लगा उसने अपने अंदर के सवाल को चिमटे से पकड़ लिया है, जल्द ही वो उसे फेंक भी सकेगी। थोड़ी देर दोनों ही चुप रहे। हल्की-हल्की फुहारें पड़ने लगी थी, रेवा ने शिशिर की तरफ देखा। शिशिर के बालों पर जैसे मोती जमा हो रहे थे। रेवा ने शिशिर के बालों में हाथ फिराकर उन मोतियों को झराते हुए कहा – बक रहा हूँ जुनूँ में क्या-क्या कुछ/ कुछ न समझे खुदा करे कोई...- और मुस्कुराई। शिशिर ने उसकी तरफ हाथ बढ़ाया और उसने थाम लिया। जब वो खड़ी हुई, तो शिशिर को लगा कि उसके आसपास की झिल्ली जैसे उतर गई हो। वो मुस्कुराई थी... फुहारों ने बड़ी-बड़ी बूँदों का रूप ले लिया था। शिशिर अपने कैमरे को बचाने की जुगत में लग गया और रेवा ने दोनों हाथ फैला कर अपने चेहरे को आसमान की तरफ कर लिया। वो भीगने लगी थी...।

कहानी का मॉरल, सूत्र – 123
खालिस ‘मैं’ को सह पाना दुनिया की कुछ सबसे मुश्किल चीजों में से एक है।
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Wednesday 1 June 2011

रिसती हुई जिंदगी

चीख कर रोने के साथ एक सुविधा ये रहती है कि इसमें यूँ लगता है जैसे दुख का ज्वालामुखी फट पड़ा है और आँसुओं की शक्ल में लावा बह निकला... कुछ दिन, शायद कुछ महीने बहेगा और फिर सब कुछ पहले जैसा सामान्य हो जाएगा, लेकिन सिसकना मतलब खुद को सुलगाना... धीमे-धीमे दर्द में डूब जाना औऱ फिर उसका आनंद उठाना। पता नहीं कितना अंदर उतर गई थी कि अपने दुख के साथ बस कोई पास आया सवेरे-सवेरे गाते जगजीतसिंह की आवाज ही सुनाई दे रही थी मुझे। कॉरीडोर में हो रही चिल्लपों पर मेरा ध्यान ही नहीं गया। दरवाजा बजा तो झटके से उबरी... खोला... वो ऊर्जा से लबालब बाहर खड़ी थी। मैंने थोड़ा साइड में होकर उसके आने के लिए जगह बनाई और वो धड़ाक् से आकर कुर्सी में धँस गई।
कितने दिन हो गए, नजर नहीं आ रही है तू...- उसने सीधा सवाल किया। नजरें मेरे चेहरे की ओर थी... तीखी और चीरती हुई। मैं चाह रही थी कि कैसे भी उसकी नजरों से बच पाऊँ, मैं जानती थी कि ये नामुमकिन है, फिर भी... कई बार नामुमकिन की आस भी जागती है ना...!
वो खड़ी हुई और एक चक्कर मेरे छोटे से कमरे का लगाया। खुदा याद आया सवेरे-सवेरे... – सुनकर उसका ध्यान गया। बड़ी हिकारत से उसने आदेश दिया – सबसे पहले तो इसे बंद कर। उसका मतलब गज़ल से था। कैसे सुन लेती है यार इतना उबाऊ और बोरिंग...? मुझे तो नींद ही आ जाए। - हमेशा की तरह गज़लों को लेकर उसका एक ही जुमला।
फिर मुस्कुराती है और कहती है – कितना दर्द है यार तेरे सीने में, कहाँ से लाती है, इतना दर्द...? जरा अपना सोर्स बाँट लिया कर। दर्द भी बँट जाएगा।
वैसी ही जिंदादिली...। मैं प्लेयर बंद कर देती हूँ।
चल अब फटाफट तैयार हो जा। बाहर चल रहे हैं। - उसका आदेश।
मैं जानती हूँ कि अब मेरे कहने का कोई मतलब है नहीं, फिर भी चांस लेती हूँ – यार मेरा मन नहीं है बाहर जाने का, तू किसी और को ले जा ना...! - रिकवेस्ट भी है मेरे कहने में।
नहीं, जाना तो तेरे साथ ही है, चल जल्दी से तैयार हो जा। - वो कहती हुई फिर से खड़ी हो जाती है। उसमें इतनी ऊर्जा है कि वो 10 मिनट किसी एक जगह टिककर नहीं बैठ पाती है। छोटे से कमरे के छोटे से अंतराल में कई बार चक्कर लगाएगी।
मैं फिर से जोर लगाती हूँ – प्लीज....
वो खारिज कर देती है – नो प्लीज... गेट रेडी फास्ट।
पता नहीं क्या करने वो बाहर जाती है। मैं अब भी खुद से लड़ती हुई असमंजस में टँगी हुई हूँ, वो लौटकर आती है, झिड़कता-सा स्वर – क्या है यार... अभी तक वहीं खड़ी है। कितना टाइम वेस्ट करती है तू... समझती क्यों नहीं, स्साली जिंदगी भाग रही है, हमें उसके साथ कदम मिलाकर चलना है और तू है कि...! – उसने मुझे धकियाते हुए कमरे से बाहर किया। मैं हाथ-मुँह धोकर लौट रही थी, तभी मुझे याद आया कि मुझे देखकर उसने अभी तक कोई सवाल नहीं किया है, इस विचार ने ही मुझे सहमा दिया। उसके साथ जाना मतलब फिर से अपने दुख से दो-चार होना..., लेकिन क्या करें, कोई चारा नहीं है।

तालाब की पाल पर पैर लटकाकर जा बैठे हम दोनों ही।
तो... – उसने सवाल टाँग दिया।
मैंने उसकी तरफ देखा तो आँखों में पानी उतर आया।
सो सुकेतु डिच्ड यू...? – फिर से बेधती नजरें। टीस उठा था घाव, लेकिन वो इतनी ही निर्मम है।
आँखों में दयनीयता उभर आई थी मेरे, शायद ये प्रार्थना करती कि इस विषय को छोड़ दे यार... लेकिन मैं जानती थी ऐसा नहीं होगा। मैंने नजरें झुका ली।
आई न्यू इट... ही इज रियली ए बास्टर्ड... – वो बहुत गुस्से में थीं।
मेरा गला रूँध गया था – फिर तूने मुझे बताया क्यों नहीं?
अब वो उतर आई थी, भीतर – मैं बताती तो क्या तू मान जाती? मैं जानती थी, तू गल गई है, घुल गई है। सच्चाई का वजन तुझसे सहा नहीं जाएगा, इसलिए नहीं कहा। फिर... – वो कहीं शून्य में चली गई थी। न जाने कैसे आँसू उतर आए थे – फिर कहीं हमें ये लगता है ना हो सकता है ये हमारे साथ न हो...।
मैं थोड़ा हल्की हो रही थी, उसे थाम लेना चाहती थी – तू तो ऐसे कह रही है जैसे तुझे भी प्यार हुआ है।
इस बीच वो कहीं गुम हो गई थी। जब मैंने पूछा तो उसने बात टाल दी - तू उसे भूल जा... वो तेरे लायक यूँ भी नहीं था।
मेरी बेबसी उभर आई थी। - और कोई चारा है? सहना ही सच है... – मुझे लगा कहीं पढ़ा है।
बहुत देर तक हम दोनों अलग-अलग खुद से उलझते रहे। फिर एकाएक उसने कहा – तुझे लगता होगा ना कि मैं जल्लाद हूँ, निर्मम, क्रुएल...। क्यों तुझे दर्द के साथ छोड़ नहीं देती, या फिर क्यों उस घाव को छेड़ती रहती हूँ, जिसके भर जाने की शिद्दत से जरूरत है।
मैं फिर भरी हुई आँखों से उसे देखती हूँ। शायद मेरी आँखें उस जिज्ञासा को कह देती है। वो कहती है – पता है, जब जख्म नासूर बनने लगता है तो उसे ऑपरेट करना पड़ता है। और चाहे जिस्म को ऑपरेट करो या फिर भावनाओं को... दर्द तो होता ही है। और डॉक्टर को तो जरा भी भावुक नहीं होना चाहिए, नहीं तो वो इलाज नहीं कर पाएगा...।
तो तू मेरी डॉक्टर है...? – मैंने मुस्कुराकर पूछा था और खुद से ही चौंक गई थी .... क्या मैं इतने दिनों से तकलीफ में थी? – सच में हम महसूस भी नहीं कर पाते हैं और जिंदगी पता नहीं किस दरार से रिस कर अंदर आने लगती है।

कहानी का मॉरल सूत्र – 3
जिंदगी अपने रास्ते ढूँढ लेती है