Saturday 24 December 2011

दुख का आश्वासन

थक चुकी थीं संघर्ष करते-करते.... पता नहीं कितने अरसे से वो इसी तरह जी रही है। अब सोचें तो याद ही नहीं आता है, अब क्या करें? छोड़ दे खुद को डूबने के लिए...., क्योंकि संघर्ष करते-करते न सिर्फ थक गई है वह बल्कि अब तो ऊब भी होने लगी है। यदि छोड़ दें खुद को तो... या तो डूब जाएगी या फिर ये प्रवाह कहीं लेजाकर छोड़ ही देगा। हाथ-पैर मारना छोड़ ही दिया, डूब रही है या फिर प्रवाह का हिस्सा हो रही है कह नहीं सकती। लड़ना छोड़ दो तो शांति होती है, नीरव... गहरी, काली-अँधेरी, गाढ़ी... बस थोड़ी ही देर डर लगता है, फिर... फिर उसमें नशा आने लगता है, तीखी सर्दी में लिहाफ़ के गुनगुनेपन की तरह, नर्म और सुविधाजनक होने लगती है ये उदासी...। आखिरकार थककर या फिर ऊबकर उसने लड़ना छोड़ दिया था। समय हर ज़ख्म की दवा है, हर घाव का मरहम... सुना है, आजमाकर भी देख ही लें।
शाम रात में तब्दील होने लगी थी। खिड़की से सड़क की रोशनी दाखिल हो रही थी, उसे होश ही नहीं है कि शाम खत्म हो गई है और रात होने लगी है। वो समय के परे जाकर खड़ी हो गई थी... नहीं डूब रही थी या फिर... शायद बह रही थी। अगरबत्ती का धुँआ कमरे में फैला हुआ था, जब मैं वहाँ दाखिल हुई थी। कोई उदास-सी धुन बज रही थी, अँधेरा घना और माहौल में घुटन थी। पलंग पर उसका सिर टिका हुआ था... और वो नीचे बैठी हुई थी। पता नहीं चल रहा था कि वो जाग रही है या सो रही है, निश्चल, निश्चेष्ट...।
ये क्या हो रहा है? – मैंने कड़कते हुए पूछा था।
उसने सिर के नीचे पड़े अपने हाथ को थोड़ी जुम्बिश दी थी, सिर तब भी नहीं उठाया था, बस ऐसे ही सिर रखे हुए बुदबुदाई थी... आजा....। उसकी बढ़ी हुई हथेली मैंने थामी तो लगा कि बर्फ का टुकड़ा हाथ आ गया है। - अँधेरा क्यों कर रखा है?
बस... रोशनी में खुद को बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगी ना... इसलिए! – वाक्य का आखिरी सिरा घुटा हुआ सुनाई दिया।
हुआ क्या है? – मैंने खीझते हुए पूछा।
मुझे ही नहीं पता... – आँखें डबडबा आई थी – बस, खुद को सहने की कोशिश कर रही हूँ।
खुद को सहना... ये कौन सा तरीका है यार...!
अब सिर उठाया था, उसने – सारे तरीके आजमा चुकी हूँ। सोचा अब कोई तरीका नहीं... बस यूँ ही छोड़ दूँ खुद को, गुजर जाने दूँ, इस उन्माद को, हो जाने दूँ, सब कुछ को बरबाद...। आखिर विनाश के बाद ही तो सृजन होता है ना...! यही जाना-पढ़ा है।
मैं हतप्रभ हूँ...- इसका क्या मतलब है?
मतलब... – वो उदासी से मुस्कुराती है – मतलब...? बस यहीं तो मात खा जाती हूँ। मतलब पर ही तो अटक जाती हूँ। हर चीज और हर बात का मतलब होना ही चाहिए... कोई कारण, कोई तर्क और वो ही मेरे पास नहीं होता... । क्या करूँ...? – वो मुझसे ऐसा सवाल पूछ रही है, जिसका जवाब मेरे पास नहीं है... मैं कुछ नहीं कहती, एक बार फिर धुँधआता कमरा, गाढ़े अँधेरे में डूबती हर चीज, उदास और नशीले माहौल इस सबको नजर भर देखती हूँ। एक गहरी खामोशी पसरी है हम दोनों के बीच... बहुत देर तक हम दोनों ही छोटी-छोटी और बारीक ध्वनियों को सुनते रहे। फिर उसने सिर उठाया – मुझे देख... क्या मैं खूबसूरत लग रही हूँ! वो कहता था कि दुख इंसान को खूबसूरत बनाता है...। – वो जिस तरह से बैठी थी, वो मुझे किसी पेंटिंग फ्रेम-सा लग रहा था। वो दृश्य फ्रीज हो गया था मेरे ज़हन में...। मैंने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरा – तुम तो हमेशा ही खूबसूरत लगती हो, तुम्हें खूबसूरत होने के लिए दुख की जरूरत नहीं है। - लेकिन लगता है उसे मेरे कुछ भी कहने की दरकार नहीं है, और इसीलिए उसने कुछ सुना भी नहीं... – ये दुख कहाँ से आता है...! शरीर को कोई दुख नहीं है, बुद्धि कहती है कि ये बेकार है बर्बाद है... बस मन को दुख है... लेकिन मन कहाँ है...? कहीं इसका कोई सिर-सिरा मिलता क्यों नहीं है? न दुख का, न मन का...! बस कुछ सुलगता सा महसूस होता है... हर वक्त – उसने बुझती अगरबत्ती की तरफ डबडबाई आँखों से देखा था, फिर कहा - यदि मिले तो उसे ही जला डालें... कुछ दिन का शोक मना लें और फिर जिंदगी सरल हो जाए।
उसके सवालों के जवाब मेरे पास नहीं है – तू पागल हो गई है।
हाँ... मुझे भी लगने लगा है कि मैं पागल हो रही हूँ। पता है, वो कहता था कि दुख में दृष्टा हो जाना, उसे सह लेने का सबसे आसान तरीका है, लेकिन तू ही बता, अपने दुख से निस्संग होते हुए दृष्टा होना इतना आसान है क्या...? – मैं बस उसे सुन रही हूँ, मुग्ध भाव से, वो कहना जारी रखती है - लेकिन कभी-कभी मैं भी वहाँ पहुँच जाती हूँ, जहाँ मैं भोक्ता और दृष्टा दोनों हो उठती हूँ। और हकीकत में खुद को दुख में देखते हुए अच्छा लगता है... यू नो, नशा आता है। ऐसा लगता है कि जैसे ये जो दुख में है कोई और है और हम जो इसे देख रह हैं, कोई और है...। – चूँकि मेरे कुछ भी कहने की कोई गुंजाइश नहीं थी, इसलिए मैं चुप ही रही। - कभी ऐसा नहीं लगता है कि हममें से हरेक में एक सैडिस्ट होता है, जो खुद से बाहर को दुख में देखकर खुशी महसूस करता है। ... और जब हम दृष्टा हो जाते हैं तो हम भी खुद से बाहर चले जाते हैं...।
बहुत गहरी शांति है, कोई ध्वनि कहीं से नहीं आ रही है। लगता है रात गहरी हो गई है। हम दोनों ही एक-दूसरे का हाथ थामे मौन हैं, चुप हैं...। अँधेरा पहले भी था, लेकिन ठहरा हुआ-सा लग रहा था। अब महसूस हो रहा है कि वो हमारे बीच से गुजर रहा है। मुझे लगा उसे नींद आ गई है, लेकिन एकाएक उसकी ऊँगलियों की पकड़ मुझे हथेली पर कसती-सी लगी... उस गहरी निशब्दता में उसकी सिसकी की आवाज अपनी पूरी दहशत में उभरी थी... आँखों में जैसे समंदर उभरा था, उस अँधेरे में भी उसके चेहरे की सौम्यता चमक रही थी, वो मुझे बहुत स्थिर दृष्टि से देख रही थी – कुछ भी नहीं ठहरता है, सब कुछ बीत जाता है। बस कुछ निशान छूट जाते हैं...। ये उन्माद भी गुजर जाएगा, बस चाहती हूँ कि इसे पूरी गरिमा से सह लूँ... बिना आत्मदया के... सुबह हर हाल में होगी, ये बहुत बड़ा आश्वासन है दुख के दौर का..., जब हम इस आश्वासन को पा लेते हैं तो दुख को सहना आसान हो जाता है...- उसकी आँखों में मैंने बिजली कौंधती-सी देखी थी...।
अँधेरा गुजर रहा था, सुबह की दूधिया रोशनी कमरे में दाखिल हो रही थी...।
कहानी का मॉरल – सूत्र – 117
गहनतम दुख को भी इस उम्मीद से सह लिया जाता है कि भविष्य के गर्भ में खुशी छिपी है।