Wednesday 4 September 2013

सहना-होना

जाने किसका नुकसान बड़ा है, या किसका दुख बड़ा है, लेकिन लगभग पांच महीने बाद जब मैंने उसे देखा तो लगा कि शायद मैंने अपने दुख को बड़ा समझ लिया है। उस दोपहर जब मैं उससे मिला तो वह अपनी खिड़की के नीचे दीवार से पीठ लगाए बैठा था, हमेशा की तरह कमरे का दरवाजा खुला हुआ था पश्चिम की तरफ खुलती खिड़की से आती धूप की कतरनें उसके सिर से गुज़रकर कमरे के बीचों बीच बिछी हुई थी। वो बेख़याली में था... इतना कि मैं चलकर कमरे के बीचों बीच तक पहुँच गया था, धूप के जिस चोकोर टुकड़े को वो एकटक देख रहा था, मैंने उसे काट दिया था... तब भी वो उसे ही देख रहा था। कुछ देर मैं ऐसे ही खड़ा रहा, उसकी धूप पर अपने शरीर को टिकाए हुए... एकाएक वो लौटा खुद में... मुझे देखकर वो खड़ा हो गया। खिड़की की चोखट पर दोनों हथेलियाँ टिकाए, जैसे वो खुद को मेरे हवाले कर रहा हो... जाने क्या था उसकी आँखों में कि मेरा अपराध बोध गहराने लगा था। पाँच महीने गुज़र गए थे, मैंने पलटकर उसे देखा नहीं था।
इतना ही वक्त लगा था, मुझे ये समझने में कि चाहे हम दोनों के दुख की शक्लें अलग-अलग हैं, उसकी तासीर एक सी है और एक-सी तासीर वाले दुख को साथ-साथ ही बहना चाहिए। क्योंकि दुख की तासीर ही तरल है... आँसू की शक्ल-सी। मैंने उसके चेहरे की तरफ नज़र की तो उसके चेहरे का कातर भाव सहा नहीं गया... मैं खुद को रोक नहीं पाया। दौड़कर उससे लिपट गया... वो शायद किसी और चीज़ की उम्मीद कर रहा था, मेरे इस व्यवहार से वो हतप्रभ रह गया। जाने किस विचार ने उसके हाथों को जकड़ा लेकिन फिर उसका दुख भी बहने लगा था... उसने मुझे कस लिया था। हम दोनों रोते रहे थे, न जाने कितनी देर तक। या शायद रो नहीं रहे थे, दुख का संवाद सुन रह थे, वैसे ही एक दूसरे के गले लगे हुए।
जब हम अलग हुए तो वो सॉरी-सॉरी कह रहा था। मैंने उसके सिर को थपथपाया था... जाने कैसे इतना बड़प्पन आ गया था कि अपनी ही उम्र के दोस्त को सांत्वना दे रहा था, उसी दुख के लिए, जो उसी शिद्दत के साथ मेरे भीतर भी बह रहा था। हम दोनों बहुत देर तक साथ बैठे... मौन, अव्यक्त। मैं उससे सुनना चाहता था, कुछ कहना भी... लेकिन हम दोनों में से कोई कुछ भी नहीं बोला... और मैं यूँ ही चला आया था। आने के बाद लगा था कि मैं उसके पास बहुत कुछ भूल आया हूँ, या फिर शायद छोड़ ही आया हूँ।

वो इन दिनों खुद से बहुत-बहुत नाराज़ था, इतना कि बुखार में पड़ा रहता, लेकिन कोई ट्रीटमेंट नहीं लेता, कहीं दर्द हो रहा हो, वो उसे सहता रहता है। पूर्वा का स्यूसाईड नोट जो उसने उसे पोस्ट किया था, अक्सर वो उसे पढ़ता रहता था। उस शाम अपने कमरे की खिड़की से टिककर उसने पहली बार मुझे बताया था कि ‘पूर्वा के न रहने के लगभग 20 दिन बाद मुझ ये नोट पोस्ट से मिला था। और इस एक नोट ने मुझे खत्म कर दिया... इतनी पीड़ा तो उसके न रहने पर भी नहीं थी, जितनी इस नोट के मिलने से मिली है।’ मैं जानता था कि ये उसकी नितांत अपनी पूँजी है... क्योंकि पूर्वा ने ये मुझे नहीं लिखा था, उसे लिखा था। इसलिए मैंने ये जानने की कोशिश ही नहीं की कि आखिर उसने इसमें लिखा क्या है? पता नहीं शायद वो रेनडमली इसे पढ़ रहा था शुरुआत से, लेकिन मुझे सुना रहा था ‘जबसे तुमसे मिली हूँ, बस खुद के साथ द्वंद्व में ही रहती हूँ। तुमसे मिलने के बाद मेरी खुद को लेकर और दुनिया को लेकर समझ गड्डमड्ड हो गई है। खुद को लेकर आजकल सबसे ज्यादा संशय में रहने लगी हूँ। क्योंकि अब तक मैंने अपने बारे में जो जाना, समझा है, तुम मुझे मेरे बारे में जो बता रहे हो, बिल्कुल उलट है...। मैं इतनी बुरी तरह से उलझ गई हूँ कि मुझे अपने-आप से वितृष्णा होने लगी है। हो सकता है तुम मुझे ऐसा नहीं कह रहे हो, लेकिन मेरे भीतर जो पहुँचता है, वो इसी तरह पहुँचता है। पता है, ऐसा होता है कि जो मैं अनजाने या फिर अनचाहे कर देती हूँ, उससे मुझे खुद ही बहुत ग्लानि और चिढ़ होती है, लेकिन जब तुम उसे पाइंट आउट करते हो, तो लगता है कि आय हेट दिस... मतलब मुझे अपने ‘उस होने’ से घृणा होने लगती है। मैं ये भी जानती हूँ कि तुम सब कुछ सहज भाव में करते हो, कहते हो... लेकिन बस इससे आगे की मेरी समझ चुक जाती है...। मैं एक किस्म के पागलपन में फँस जाती हूँ, मुझे लगने लगता है कि मैं अपने होने को बदल दूँ... साफ कर दूँ मैं उसे जो मैं हूँ। और बस जो शुरू होता है, उसे त्रास कह लो, संघर्ष कर लो, जुनून कह लो फिर कुछ और... मैंने बहुत कोशिश की कि मैं खुद को वैसे कर लूँ जैसा तुम चाहते हो, लेकिन मैं यहाँ भी हार गई। अब मैं न तो वह रही जो मैं थी और न ही वह जो तुमने चाहा था। और दुनिया को लेकर भी मेरी सारी समझ मेरे अपने स्वभाव से उपजी है, मुझे लगता है कि मुझे वो सब कुछ जानने की कतई जरूरत नहीं है, जो मुझे सचेत करे, चौकन्ना बनाएँ। आखिर क्यों मुझे उस सबको जानना चाहिए जो मुझसे मेरी सहजता छीन सकता है। ये मेरी बुराई ही है कि मैं दिखाई देने के पार जाकर नहीं देखती। असल में मैं देखना चाहती ही नहीं, सोचती हूँ, उससे हासिल क्या होगा?
ऐसा सोचना बहुत पेनफुल था, करना तो फिर... लेकिन फिर लगा कि आय हैव नो ऑप्शंस... तुम जो हो वो हो, लेकिन मैं वो भी नहीं हूँ जो मैं हूँ और वो भी नहीं जो तुम चाहते हो। बहुत मुश्किल वक्त था, जब मुझे निर्णय करना था। तुम शायद समझ पाओ कि मेरे लिए खुद को खत्म करना आसान लगा बनिस्बत इसके कि इस रिश्ते को खत्म कर दूँ। सोचकर देखो कि किस तरह की मजबूरी रही होगी मेरी।
मैं एक जीत चाहती हूँ तुम पर, जीते जी न सही मर कर ही। वैसे तो नहीं जीत पाती, इसलिए...।’ वो रूक जाता है... एक धीमी-सी कराह उभरती है और डूब जाती है, उसी अँधेरे मौन में जिसमें से उसकी आवाज़ आ रही थी। बहुत देर तक सब कुछ बिल्कुल शांत रहता है।

उस दिन वो पूर्वा की लिखी हुई कतरनें लेकर बैठा था... मेरे सामने। एक-एक करके उसने उसे अपने पलंग पर बिखरा दिया था। देख, क्या-क्या लिखा करती थीं वो, कितना कुछ। फिर एकाएक चुप हो गया, हवा में खो गई उसकी नज़र... फिर लौट आया उसने मेरे कंधे पर अपना हाथ रखा... सिसकी रोकते हुए कहा-‘अब सोचता हूँ तो लगता है कि किसको लिखकर दिया था उसने ये सब... किसको? मुझे....? कौन हूँ मैं, और क्या किया मैंने उसके लिखे का... मुझे क्यों...? क्या मैं इसके लायक हूँ...?’ वो फिर से शून्य में खो गया और सिसकने लगा।
पूर्वा मेरी हमज़ाद... जुड़वाँ। आयडेंटिकल नहीं थे, लेकिन कुछ गहरे जुड़ा हुआ था, हम दोनों के बीच। साथ-साथ बड़े हो रहे थे, उसका हर बदलाव मैं देख रहा था, महसूस कर रहा था। यहाँ तक कि उसके बड़े होने की घटना को भी मैं ही देख रहा था। मलय दाखिल हुआ था, हमारी जिंदगियों में। मेरा दोस्त होकर। जैसे मैंने उसके दोस्त हैरिस को स्वीकार किया था, उसने मलय को, लेकिन हैरिस को लौटना पड़ा था, मलय ठहर गया था। पूर्वा मुझसे छुपाने लगी थी, कुछ... बहुत कुछ। मैं जान नहीं पाया था, लड़कियों के बड़े होने का सबसे पहला संकेत गोपनीयता हुआ करती है, ये मैं आज जान पा रहा हूँ। पूर्वा की डायरी मुझे नहीं मिली होती तो यकीन ही नहीं होता कि मलय और पूर्वा के बीच कुछ बहुत गहरा, बहुत गाढ़ा सृजित हो रहा था। जब मैंने पहले पहल उसकी डायरी पढ़ी थी तो मुझे लगा था कि मैं ठगा गया हूँ। मैंने जाना था कि मैं उसके हरेक मूवमेंट का गवाह हूँ, साक्षी भी, लेकिन मैं नहीं था। मलय था, इसलिए मैं बहुत हर्ट था। वक्त लगा था, ये जानने में कि भाई कब दूर हो जाता है? और कब कोई और उसकी बहन की जिंदगी में करीब हो जाता है। तो क्या देह भी रिश्तों की सीमा है... ये बड़ा खतरनाक सवाल था, और मैं इससे बचना चाह रहा था, क्योंकि पूर्वा मेरी बहन थी। हाँ थी... वो अब नहीं थीं... नहीं मेरी बहन तो वो अब भी थी, लेकिन वो नहीं थी। मर गई थी, अपनी जान उसने खुद ली थी। पूरी डायरी पढ़ते-पढ़ते मुझे लगा था कि पूर्वा एब्नॉर्मल थीं। क्योंकि मैं मनोविज्ञान पढ़ रहा हूँ तो मैंने समझा कि वो एक उलझा हुआ किरदार थी।
उस रात हम दोनों देर तक यूँ ही टहलते रहे थे। मलय में बदलाव देख रहा था, गहरा बदलाव। हाँलाकि वो डूबता-उतराता लगता था, लेकिन फिर भी कभी-कभी ऐसा लगता था कि वो, वो नहीं है। उस रात हम दोनों बहुत देर तक चुपचाप टहलते रहे थे। फिर एकाएक उसने कहा था ‘समीर, मैं जब खुद को देखता हूँ तो लगता है कि मैं इस सबको डिज़र्व करता हूँ। आखिर सिर्फ उसने ही नहीं, मैंने भी तो उससे प्यार किया था। मैं उसके स्तर पर जाकर उसे क्यों नहीं समझ सका? मैं क्यों नहीं समझ सका कि उसमें एक बहुत छोटी बच्ची है, जो ज़हनी तौर पर बहुत नाज़ुक है, मैं क्यों नहीं समझ सका कि सारी दुनिया के आगे जो बहुत परिपक्व और मैच्योर नज़र आने की कोशिश करती है वो पूर्वा असल में एक खोल में है... खोल के भीतर वो बहुत नाज़ुक और बहुत संवेदनशील है। और जब मैंने उसे नहीं समझा है तो जाहिर है कि इस दुख का हकदार भी हूँ मैं...। तुम्हें पता है, उसने ऐसा क्यों किया? ’
इस बार उससे मिलना बहुत लंबे समय बाद हुआ था। कुछ दुनियादारी के काम थे, सो बाहर था। जब हम मिले तो चलते हुए नदी के किनारे जा पहुँचे थे। तीन-चार महीनों के अंतराल में मैंने पाया कि वो बहुत बदल गया है। घाट की सीढ़ियों पर बैठे हुए वो दूसरी तरफ देख रहा था। लगा कि वो बहुत स्थिर हो गया है। इतना कि न दुख नज़र आता है और न ही सुख। जब मैंने उसकी आँखों में देखा तो लगा कि वो पारदर्शी हो गया है। मैंने नज़रे झुका ली, वो शायद बहुत कुछ समझ गया। ‘पता है दुख जीवन का सच है। और कोई चाहे कुछ भी कह ले लेकिन अगला-पिछला जन्म कुछ नहीं होता है, जो कुछ भी होता है, यहीं होता है। मैंने उससे प्यार तो किया, लेकिन उसकी कद्र तक नहीं पहुँच पाया। मुझे लगता है कि मैंने उससे जितना प्यार किया, लगभग उतनी ही तकलीफ भी दी... तो जब तक वो थी, तब तक मैंने प्यार को भोगा और अब उसके नहीं होने पर उस तकलीफ को सहूँगा जो मैंने उसे दी थी। हिसाब बराबर... ।’ हालाँकि ये मेरे मन में ये सवाल तब तक नहीं उठा था, लेकिन जब उसने कहा तो लगा कि वो खुद को देखने लगा है, दूर से। ‘... लेकिन सोचता हूँ कि उस गुनाह का क्या और कहाँ हिसाब होगा, जिसकी वजह से उसने अपनी जान ली। आखिर तो जाने-अनजाने वजह तो मैं ही हूँ ना!’ मेरे लिए कुछ भी कहने की कोई गुंजाईश नहीं थी। ‘होगा... होगा... किसी वक्त उस सबका भी हिसाब होगा। अभी मेरी सज़ा पूरी हुई नहीं है। मैंने कहीं पढ़ा था कि हर दुख किसी गुनाह का परिणाम है, अब लगता है भोगा सच लिखा होगा लिखने वाले ने।’ मैंने उसकी तरफ देखा, भावहीन चेहरा था, जैसे वो किसी और के बारे में बात कर रहा हो। मैंने याद किया आज दिन भर में एक बार भी उसकी आँखें नहीं भीगी... एक बार भी उसकी आवाज़ नहीं लरज़ी, लगा कि वो शायद अपने दुख से बाहर आ गया है, लेकिन तुरंत ही लगा कि यदि दुख से बाहर आ गया होता तो इतना निर्लिप्त होकर दुख को नहीं सोचता-कहता... तो क्या उसने खुद को खुद से अलग कर लिया है? मुझे याद आया उसने एक दिन कहा था... ‘आजकल मैं अक्सर खुद से अलग हो जाता हूँ, देखता हूँ कि आखिर इस दुख से मुझे कहाँ-कहाँ दुख रहा है। पता है, कभी-कभी खुद को तड़पते देखते हुए अजीब-सा नशा होता है... जैसे मैं अपने किसी दुश्मन को तड़पते हुए देख रहा हूँ। मैं समझ ही नहीं पा रहा हूँ, कि मैं क्या कर रहा हूँ और मुझे हो क्या रहा है?’ मैं उसकी तरफ देख रहा था और वो झुककर नदी के पानी में अपना अक्स... मुझे दो-दो मलय दिख रहे थे, शायद ऐसा हो भी रहा हो।
कहानी का मॉरल - सूत्र 139
ज्ञान का लक्ष्य इंसान को 'भोक्ता' से 'दृष्टा' बनाना है