Wednesday 20 April 2011

भरीपूरी प्यास....! - समापन किश्त

वसंत-पतझड़
हॉल में काफी गहमा-गहमी थी। स्टेज पर चलने वाले कार्यक्रमों की तरफ किसी का भी ध्यान नहीं था। हर कोई अपने पुराने दिनों को पुराने रिश्तों और दोस्तों के बीच जिंदा कर लेना चाहता था। पता नहीं सलोनी को क्यों उम्मीद नहीं थी कि तन्मय आएगा। और तन्मय को भी ये उम्मीद नहीं थी कि सलोनी आएगी। लेकिन कोई आस तो होगी, तभी तो दोनों इस अलम्नाई मीट में आए थे। तो जब तन्मय संजना के हस्बैंड से बात कर रहा था, तभी उसकी नजर गेट की तरफ पड़ी थी। सलोनी... पीली कांजीवरम में...। पता नहीं कैसे कदम उसी ओर बढ़ गए। ये बेखुदी थी... तो क्या दूरियों में भी कुछ ऐसा रह जाता है, जो दिल की तरह ही लगातार धड़कता रहता है, लेकिन हमें उसकी इतनी आदत होती है, कि हम उसका धड़कना महसूस ही नहीं कर पाते। वो बहुत बेखयाली में वहाँ पहुँच तो गया था, लेकिन सामने जाते ही समझ नहीं पाया कि क्या करे तो थोड़ी दूर ही ठिठक गया...। सलोनी ने आगे बढ़कर उसे बाँहों में ले लिया। तन्मय के अंदर कुछ पिघलकर बह निकला।
कितने सालों बाद... – वो बुदबुदाया था, लेकिन सलोनी ने सुन लिया था।
पंद्रह... – वो उसी तरह खिलखिलाई थी। - देखो अभी तक सेंसेज वैसे ही हैं।
तुम... सचमुच नहीं बदली। अभी भी वैसी ही हो।
क्यों... ?- उसने आँख मारकर पूछा था – बदल जाना चाहिए था?
तन्मय ने थोड़ा झेंपते हुए कहा था – पता नहीं, लेकिन इतने सालों में सब बदल जाते हैं। तो यही एक्सपेक्टेड होता है ना... ?
वो फिर खुलकर हँसी। - और यदि ऐसा नहीं हो तो... – सीधे आँखों में झाँका था। - निराशा होती है... ? – जवाब का इंतजार किया थोड़ी देर, फिर बोली - तुम भी तो नहीं बदले। - फिर थोड़ा हट कर उसे तौलती नजरों से देखा, फिर बोली – पहले ही बड़े-बड़े लगते थे, अब थोड़ा और बड़े लगने लगे हो... ।
धीरे-धीरे सारे दोस्तों ने आकर उसे घेर लिया। अकेली आई हो? – राजवीर ने पूछा था।
नहीं... अनिरुद्ध और बिहाग भी है, दोनों आ रहे हैं।
दिनभर दोस्तों से मिलने का क्रम चलता रहा। शाम को कल्चरल प्रोग्राम था, स्थानीय वोकल क्लासिकल आर्टिस्ट गाने वाले थे। अनिरुद्ध और बिहाग ने सलोनी से अलग अपना प्रोग्राम बनाया था। रात के खाने के बाद कैंपस के लॉन में ही सारे पुराने दोस्त जमा हुए थे। अलग-अलग गुजरे अपने वक्तों की जुगाली करते हुए। तभी राहुल ने गाना शुरू किया था – हम हैं राही प्यार के हमसे कुछ ना बोलिए...। धीरे-धीरे सभी उसके गाने में शामिल होते चले गए और फिर ये सामूहिकता सोलो गानों की माँग में बदल गई। सलोनी और प्रियंका साथ में बैठी थीं। सलोनी ने ब्लैक कलर का सलवार कमीज पहना था। तन्मय ने उसे पहली बार ब्लैक कपड़ों में देखा था, वो सोचने लगा था कि उन दिनों सलोनी ब्लैक कलर क्यों नहीं पहनती थी, जबकि उस पर ये रंग अच्छा लग रहा है। अरे...! कभी मुझे भी तो नहीं सूझा कि मैं उससे पूछूँ कि तुमने काले रंग को क्यों छोड़ रखा है, जबकि रंगों के प्रति तो यूँ भी सलोनी बड़ी खुली थी। राजबीर ने सीटी से आए तुम याद मुझे गाना शुरू किया।
प्रियंका ने सुनाया ओ सजना बरखा बहार आई.... तन्मय सोच रहा था, सलोनी क्या गाएगी और कैसा, क्योंकि इससे पहले कभी सोचा ही नहीं कि सलोनी गाती होगी, गा सकती होगी या कैसा गाती होगी...? सलोनी ने सुनाया – एक ख़लिश को हासिल-ए-उम्र-ए-रवां रहने दिया/ जानकर हमने उन्हें नामेहरबां रहने दिया.... तन्मय कहीं डूब गया, सलोनी का गला तो मीठा है, लेकिन वो सुरीली भी है, ये आज पता चला। वो सोच रहा है कि हम समझते हैं कि हमने किसी को पूरा जान लिया, लेकिन ये बड़ा भ्रम होता है, क्योंकि जान लेना अभी है, जबकि हर क्षण कुछ नया जुड़ता-बढ़ता या घटता है। फिर क्या किसी का होना क्या इतना ही होता है कि अपनी समझ के दायरे में समा ही जाए? हम अपने होने को खुद भी नहीं जान पाते हैं.... ये तुम ही कहती थीं ना सलोनी.... फिर वहीं आकर अटक गया वो ...। तन्मय की बारी आई तो उसने सबको सैड कर दिया बीते हुए लम्हों की कसक साथ तो होगी... गाकर। तन्मय के खतम करते न करते तपन ने शुरू कर दिया - ओए तू रात खड़ी थी छत पे नी मैं समझा के चाँद निकला... और सारे ही झूमने लगे। वक्त गुजर रहा था, सबने एक-दूसरे का पता लिया, कांटेक्ट नंबर लिए और फिर से मिलने का वादा किया, सब अपने-अपने रास्ते चले गए। सलोनी पता नहीं किस चीज का इंतजार कर रही थी और तन्मय भी।
रात बहुत घनी हो गई थी। सलोनी थोड़ा आगे बढ़ी तो सूखे पत्तों की चर्रमर्र हुई। तो... – तन्मय ने उसकी तरफ देखा। सलोनी ने हाथ आगे बढ़ाया और तन्मय ने थाम लिया। दोनों साथ-साथ चलने लगे। तुमने मुझे अपना कांटेक्ट नंबर नहीं दिया – तन्मय ने बहुत सहजता से पूछा।
सलोनी ने सुबह वाली मुस्कान बिखेर कर कहा – मैंने लिया भी तो नहीं...!
उसे ध्यान आया, अरे हाँ... – तो ले लो...
नहीं, मन... वो सब इसलिए नहीं हुआ था कि फिर बूँद-बूँद खुद को भरते रहे। - वो बहुत गंभीर थी।
हुआ नहीं था, किया था... – तन्मय न चाहते हुए भी तल्ख हो गया था।
ठीक है, किया था, और मैंने ही किया था। क्या तुम्हारी जिंदगी में अब भी कुछ कम है? - उसका हाथ तन्मय के हाथ में पसीज रहा था। - बहुत सोचकर जवाब देना।
कभी-कभी लगता है, हाँ है...
और अक्सर....
अक्सर तो... – तन्मय हड़बड़ा गया
रस्ता ही रस्ता है, हँसना है न रोना है, यही ना... ! – सलोनी ने उसकी बात पूरी की।
तन्मय जवाब नहीं दे पाया, लेकिन उसने सलोनी के चेहरे की तरफ देखा। वो गर्दन झुकाए थी, कुछ बचा रही थी या फिर ...?
हाँ, कहो... क्योंकि यही सच है। मन, .... मैं नहीं चाहती थी कि हम एक-दूसरे की जीवन में बस यूँ ही रह जाए। रूटीन की तरह... बिना किसी उष्मा, गर्माहट या फिर तड़प के...।
लेकिन हम अब भी ऐसे ही हैं ना... मैं आरती के साथ और तुम अनिरूद्ध के साथ... ? – तन्मय ने जान-बूझकर चोट की थी।
हाँ, यही तो... यही तो मैं नहीं चाहती थी कि जो उन्माद वैसे जिया है, वो रूका हुआ पानी हो जाए। हम एकदूसरे को जब भी याद आते हैं, तब तीखी तड़प महसूस होती है.... होती है ना...! – सलोनी तन्मय के बिल्कुल सामने आ खड़ी हुई। वो हड़बड़ा गया।
हाँ... – एकाएक उसका मन हुआ कि सलोनी को बाँहों में ले लें, लेकिन फिर रूक गया।
बस... क्योंकि याद... ख्वाहिश... और उम्मीद, यही तो वो चीजें है, जिनके सिरे पकड़कर जिंदगी रंग-बिरंगी होती है, हर दिन नई होती है। पता है, सपने पूरे हो जाने का मतलब है उनका मर जाना। जिंदगी कभी मरती नहीं है, हर मरे हुए सपने की कब्र पर एक नया सपना जन्म लेता है। मैं तुम्हारी जिंदगी में मरा हुआ सपना बन कर नही रहना चाहती थी, और न ये चाहती थी कि तुम्हारे साथ ऐसा हो...। – उसका गला रूँध गया, वो चुप हो गई।
लेकिन इसकी कितनी बड़ी कीमत दी है, मैंने, तुमने सोचा है? कितनी रातें, कितने मौसम...
तो क्या मैं इससे अलग रही?- सलोनी ने बीच में से ही बात लपक ली।
बहुत देर तक दोनों ही चुपचाप चलते रहे। रात गुजरती जा रही थी और दोनों अँधेरे के बीच अपने-अपने जज्बातों को कुछ खोलते, कुछ छुपाते एक-दूसरे का हाथ थामे चलते रहे। एकाएक वो उनींदे अँधेरे से निकलकर सड़क की धुँधली-शांत रोशनी में आ खड़े हुए। कैम्पस से निकलकर मुख्य सड़क पर... यहाँ दूर-दूर तक शांति थी। सूनी-सी सड़क के दोनों ओर जल रही स्ट्रीट लाइट और दूर-दूर तक फैला सन्नाटा...।
सलोनी ने ही चुप्पी तोड़ी – मन... सोचो, यदि हम पति-पत्नी होते तो बच्चों की पढ़ाई, उनका भविष्य, तुम्हारे भाई की शादी, मेरी माँ की बीमारी, हमारे भविष्य की प्लानिंग, राशन की किटकिट, बिजली का बिल, टेलीफोन का बिल, मकान की किश्त, हमारे ईगो, हमारे सामाजिक संबंध, रसोई गैस के खत्म होने से लेकर ट्रांसफर या फिर प्रमोशन जैसी कितनी गैर-जरूरी चीजों से हमारा सरोकार हो जाता और मूल चीज कहीं हाशिए पर चली जाती। सपना मर जाता.... हम बस सामाजिक संबंधों के दायरे में कैद हो जाते, ख्वाहिशें मर जाती और हकीकत ही हमारे बीच रह जाती। अभी हम ये सोच तो सकते हैं कि यदि हम साथ होते तो कैसा होता... तब हो सकता है, हम ये सोचने की बजाए शायद ये सोचते कि ये यदि ये नहीं होता तो हमारा जीवन कैसा होता... यदि साथ रहते हुए हम ये सोचते तो कितना बुरा होता... सोचो....।
मुझे पता नहीं है, शायद तुम ही सही हो, लेकिन दिल कहता है कि यदि वैसा होता तो हम उसे मरने नहीं देते, दिमाग कहता है कि रूका पानी हर हाल में सड़ता ही है... मैं अभी निश्चित नहीं हूँ, कि तुम सही हो। - तन्मय ने जवाब दिया।
और मेरे सही या गलत होने को लेकर क्या कहना है आपका... – सलोनी फिर मस्ती में लौट आई।
तुम गलत हो.... – तन्मय ने हाथ की पकड़ कड़ी कर कहा।
तो... माफ कर सकते हो?
कर दिया यार... माफ करना भी मजबूरी है, प्यार जो... - तुरंत सलोनी ने उसके होंठों पर हाथ रखकर उसे रोक दिया। दोनों चलते-चलते शहर के उस होटल के नीचे आ खड़े हुए जहाँ सलोनी ठहरी हुई है।
दोनों एक दूसरे के सामने थे। तन्मय जानता था कि अब पता नहीं कब मिले, मिलें या कि नहीं मिले। - केन आई हग यू...? – तन्मय ने पूछा था
सलोनी ने बाँहें फैला दी... – अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिले... वो बुदबुदा रही थी। तन्मय की आँखों में पानी तैरने लगा था। वो देख नहीं पाया कि सलोनी की आँखों में भी वही उतर गया था। दोनों अलग हुए, सलोनी तेजी से सीढ़ियाँ चढ़ गई... तन्मय ने उसे आखिर तक जाते हुए देखा और फिर उस सूनी सड़क पर चल दिया... जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिले... सलोनी की छोड़ी हुई लाइन को गुनगुनाते हुए।
समाप्त
कहानी का मॉरल सूत्र – 85
जिंदगी प्यास है, तृप्ति मौत

Tuesday 19 April 2011

भरीपूरी प्यास...! - 8

करीब साल भर बाद तुम्हारा एक लेटर मिला था, जिसमें तुमने अपना पक्ष रखा था और कहा था कि – ‘हमने रिश्ते को शिद्दत से जिया है और हम अब इसे एक मीठी कसक और मधुर याद के साथ अपने साथ रखें। बस इतना ही मैंने चाहा था, यदि ये गलत है तो फिर मुझे माफ कर देना, क्योंकि मुझे यही सही लगा था।‘
मेरे लिए तुम्हारे इस पत्र का कोई औचित्य ही नहीं बचा था, तुम मुझे अकेला छोड़कर चली गईं थी, अपनी जिद्द और कथित सपनों के लिए। बहुत साल मुझे तुमसे शिकायत रही, लेकिन उसका फायदा क्या रहा, तुम्हारे बारे में बाद में मुझे कभी कुछ भी सुनने को नहीं मिला। बल्कि यूँ कहूँ कि हकीकत ये है कि मैंने ही तुम्हारे बारे में जानने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। मैंने वो शहर हमेशा के लिए छोड़ दिया और फिर कभी-कभी पलट कर वहाँ नहीं गया। बल्कि मैंने हर उस शख़्स से अपना रिश्ता तोड़ दिया, जो कभी तुमसे जुड़ा हुआ था। आज मैं तुम्हें याद कर रहा हूँ, क्योंकि मैं स्थिर हो गया हूँ, अब तुम मुझे जब भी याद आती हो, बहुत मीठा-सा कुछ लगने लगता है। शायद उम्र ने सारी कड़वाहट धो डाली है। सुनो लूनी गज़ल चल रही है – तुम भी उस वक्त याद आते हो, जब कोई दूसरा नहीं होता...। अब तो यूँ भी सब कुछ ठहर गया है, शायद इसलिए यादों की जुगाली ही बाकी रह जाती है, भविष्य में कुछ होता नहीं और वर्तमान पूरी तरह से ठहरा हुआ है...। कभी-कभी मैं भी तुम-सा हो जाता हूँ, सच अब भी...। उम्र के फासलों के इस पार फिर मैं वही मैं हो जाता हूँ और तुम वही तुम...। सारा गुजरा वक्त कहीं गुम हो जाता है, मेरी दुनिया जो दिखाई देती है, वो भी कहीं अदृश्य हो जाती है, तुम्हारी दुनिया का तो मुझे कोई पता ही नहीं है तो वो तो कोई मसला ही नहीं है, तुम वैसी ही बेलौस, बिंदास और खुली हुई-सी मेरे साथ होती हो, जैसी हुआ करती थी। मेरा दिमाग कहता है कि तुम सही थी, क्योंकि तुमने वो देखा था, जिसे मैं नहीं देख पाया। तुम्हें मैं किसी भी तरह याद कर सकता हूँ, जी सकता हूँ, साथ हो सकता हूँ। साथ होती तो शायद ये संभव नहीं हो पाता..., लेकिन दिल नहीं मानता है। वो कहता है तुमने अपनी जिद्द को जिंदा रखने के लिए मेरे साथ खिलवाड़ किया है, पता नहीं कौन सही है?
क्रमशः

भरीपूरी प्यास....! - 7

और... और यही वो दिन थे, जब तुमने कहा था कि – अब हमें इस खूबसूरत सपने को अपनी यादों में जिंदा रखना है।
मैंने चौंक कर पूछा था – क्या मतलब है इस बात का? – उस वक्त मेरा प्लेसमेंट हो चुका था, मुझे दो महीने बाद सिंगापुर जाना था औऱ मैं तुमसे शादी करके तुम्हारे साथ जाना चाहता था, मैं तुम्हें ये बता भी चुका था, लेकिन तुम... तुम्हारे अंदर पता नहीं क्या चल रहा था?
मतलब... बिल्कुल साफ है... प्यार रात का सपना है, यदि उसे शादी में कंवर्ट कर दो तो वो टूट जाएगा। न वो बचेगा न उसकी खुशनुमा यादें... हम शादी में कंवर्ट करके उसे सड़ा नहीं सकते हैं। - तुमने कहा था।
मतलब तुम मुझसे शादी नहीं करना चाहती हो? – मैं तिलमिला गया था।
नहीं... – तुमने कहा था, आँखों में आँसू उतर आए थे, तुम्हारी, फिर भी तुम दृढ़ थीं।
मैंने एक तरह से तुम्हारी चिरौरी की थी, - मैं तुम्हारे पापा से बात कर लूँगा ना... हैव फेथ ऑन मी।
नहीं... मैं तुमसे शादी करना ही नहीं चाहती... – तुमने बहुत संयत होकर कहा था
मुझ पर पागलपन सवार होने लगा था। - क्यों – मैं लगभग चीखने लगा था - तुम मुझे क्या समझती हो? क्या मैं खिलौना हूँ, जब तक तुम्हें मेरा साथ अच्छा लगा मेरे साथ रही, फिर एकाएक एक दिन कह देती हो कि अब बस...। मैडम ये फैसला तुम अकेली नहीं ले सकती हो...।
तुम बहुत संयत होकर सुनते रही। कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, मैं बहुत देर तक चीखता रहा और फिर थककर चुप हो गया। तुम्हें पता है, वो शायद पहली और आखिरी बार हुआ है कि मुझे तुम्हारे कपड़ों का रंग याद नहीं है।
थोड़ी देर बाद तुम खड़ी हो गई... मैं अपना सिर पकड़कर तुम्हारे सामने बैठा था, मुझे नहीं पता चला कि तुम खड़ी हो गई हो, तुमने कहा – तो ठीक है, शादी का फैसला भी तुम अकेले नहीं ले सकते हो..., मैं नहीं करना चाहती हूँ, अब बोलो तुम क्या करने वाले हो?
मैं अवाक था... और अब मजबूर भी... लेकिन क्यों? आई प्रॉमिस मैं कुछ भी नहीं सड़ने दूँगा, कुछ भी नहीं टूटने दूँगा। भरोसा तो रखो...
नहीं...- फिर तुमने सीधे मेरी आँखों में झाँका और कहा – तुम चाहो तो मुझे भोग सकते हो...
मेरे बदन में आग लग गई। चेहरा लाल हो गया और कान तपने लगे, मैं झटके से खड़ा हुआ और तुम्हें जोर से धक्का दिया और तेजी से वहाँ से चला गया। फिर कभी मैंने पलट कर तुम्हें नहीं देखा न ही तुम्हारे बारे में जानना चाहा और न ही सुनना...।
क्रमश:

Monday 18 April 2011

भरीपूरी प्यास....! - 6

मुझे याद है उन दिनों तुम अक्सर प्रेरणा मैम की क्लास बंक करके घर चली जाती थी। तुम बस शाम तक अपने घर पहुँच जाना चाहती थी, और सर्दियों में तो यूँ भी शाम बहुत जल्दी होती थी और छोटी भी… तो लगभग हर दिन सवा तीन वाली क्लास बंक करके चली जाती थी, एक दिन जब पिछले रास्ते से तुम जा रही थी, तभी प्रेरणा मैम सामने पड़ी थी और उन्होंने तुमसे पूछा था – सलोनी तुम मेरी क्लास में क्यों नहीं आ रही हो...?
और तुम्हारे पास कोई जवाब नहीं था, तुम हड़बड़ा गई थी और तुमने कहा था – क्योंकि शाम जल्दी हो जाती है... और प्रेरणा मैम सहित सारे ही ठहाके मार कर हँस दिए थे। कभी-कभी तुम्हारी बातें बड़ी अजीब हुआ करती थीं, तुम कहती थीं कि तुम्हें शाम इसलिए पसंद हैं, क्योंकि वो उदास करती है... तो क्या उदास होने के लिए तुम बेचैन हुआ करती थी? उस दिन सेमिनार का आखिरी दिन था और शाम को संजुक्ता पाणिग्रही का ओडिसी था... हाँ ओडिसी..., जिसे मैंने कथक कह दिया था और तुमने मेरे सिर पर एक चपत लगाई थी... कथक नहीं, ओडिसी...। मैंने भी लापरवाही से कहा – हाँ क्या फर्क पड़ता है, दोनों ही तो डांस हैं...
तो तुमने सीधे मेरी आँखों में आँखे डाल कर सवाल किया था – सचमुच फर्क नहीं पड़ता...? स्मिता या मैं... दोनों ही तो लड़कियाँ हैं? मुझे नहीं पता था कि तुम्हें कहाँ और कब ऐसा लगा था कि मैं तुमसे सचमुच प्यार कर बैठा हूँ... स्मिता के बावजूद...।
उस दिन सेकंड सैशन से निबटते-निबटते ही चार बज चुकी थी, तुम्हारा घर जाना और लौटकर आना संभव नहीं था... उस दिन मैंने पहली बार तुम्हें शाम को देखा था और शायद पहली ही बार उदास होते भी। टी-ब्रेक के बाद हमारा काम यूँ भी खत्म हो जाया करता था, इसलिए सब इधर-उधर हो गए थे... तुम भी... थोड़ी देर तो मुझे अहसास ही नहीं हुआ था, लेकिन जब याद आया कि आज तुम घर नहीं जाने वाली हो तो, तुम्हें ढूँढना शुरू किया। तुम फूड टेंट के पीछे एक कुर्सी लगाकर बैठी थी, मैं जब तुम्हें ढूँढता हुआ वहाँ पहुँचा तो एकाएक मुझे लगा कि – तुम पूरा-का-पूरा आसमान ओढ़े बैठी हो... हालाँकि तुम्हारे कपड़ो का रंग गहरा आसमानी... नहीं डार्क ब्लू था, फिर भी... तुम्हारी आँखों में शाम उतर आई थी... गीली-सीली-सी...। और जब मैंने आकर तुम्हें जगाया था, तब तुम बुरी तरह से खिन्न नजर आई थी... क्या हुआ? – मेरे पूछने पर तुमने कुछ भी नहीं कहा था, बस ‘कुछ नहीं’ में गर्दन हिला दी थी।
तुम कभी-कभी बहुत अजीब तरीके से बिहेव करती थी... उस दिन मैंने तुम्हें बहुत उदास पाया था... बहुत-बहुत, इतना कि मैं डर गया था। आखिर तुम्हें तो मैंने कभी भी उदास नहीं देखा था। मैं बहुत असमंजस में था कि क्या कहूँ, कैसे कहूँ? तुम्हें इस उदासी से कैसे बाहर निकालूँ? कि देखता हूँ कि थोड़ी ही देर बाद तुमने चहक कर कहा था – कितना अच्छा लग रहा है ना मन...? और मैं तुम्हारे चेहरे को पढ़कर जानने की कोशिश कर रहा था कि क्या सचमुच तुम्हें अच्छा लग रहा है या फिर तुम मुझे बहला रही है, लेकिन तुम्हारा चेहरा उस वक्त पूरी तरह से पारदर्शी था, चमक रहा था उस अच्छे लगने से जिसे अभी-अभी तुमने कहा था।
क्रमशः

Sunday 17 April 2011

भरीपूरी प्यास...! - 5

सर्दी
शाम को मैं ऑफिस से जल्दी घर आ गया था, थोड़ा बुखार-सा लग रहा था तो डॉक्टर से दवा लेता हुआ पहुँचा था। आरती पीहू को लेकर अपनी माँ के घर गई हुई हैं, तो खुद ही बीमार और खुद ही तीमारदार होना है। मैं पहुँचा तो कुसुम खाना बना रही थी, उससे खिचड़ी बनवाई, खाई और दवा लेकर जल्दी ही सो गया। तेज बुखार से बदन दर्द कर रहा था। दवा के असर होने तक तो दर्द में पूरी तरह से डूब ही चुका था। पता नहीं रात का कौन-सा समय रहा होगा, जब तेज गर्मी और पसीने के साथ बुखार उतर गया और दर्द भी चला गया। तेज दर्द के बाद की राहत और कड़े परिश्रम से पाई सफलता की अनुभूति एक-सी ही होती है। एक धुला-पुँछापन होता है, कुछ गरिमा से सह लिए जाने का गौरव... खुद को प्रति विश्वास और आस्था के साथ ही बड़ा सात्विक-सा अहसास होता है... अरे...! ये सब कहाँ से आ रहा है... ओह लूनी... ये तुम हो।
खासी ठंड के बीच सुबह से ही बादलों का जमघट था। ऑफिस से छुट्टी ले रखी थी। जब कुसुम आई तो उससे तेज अदरक वाली कड़क चाय बनवाई और खिड़की के पर्दे खोल दिए। बारिश शुरू हो चली थी। ऐसा भी कब होता है? दर्द से निकलने के बाद गहरी, सात्विक शांति... साफ-सुथरा और उदास-सा सौंधापन... तुम अक्सर कहती थी, बीमारी के बाद हम बिल्कुल नए हो जाते हैं... नए-नकोर... सब पुराना जो हमारे अंदर जंक होता है, बह जाता है और जो काम का होता है, वो भी धुल-पुँछकर चमकने लगता है। सच तुमसे अलग होने के बाद आज पहली बार उसे मैं ठीक उस तरह से महसूस कर पा ऱहा हूँ, जिस तरह से तुमने कहा है। कितनी अजीब तरह का पागलपन था तुम्हारे अंदर ... पता नहीं कहाँ हो और उस पागलपन का क्या करती होगी? कभी-कभी खुद से ही पूछता हूँ – क्या वो आँच अब भी तुम्हारे चेहरे पर नजर आती है? क्या कोई आग अब भी तुम्हारे अंदर दहकती है?
मुझे याद आ रहा है जब हम सब अपने प्रोजेक्ट से सिलसिले में राहुल के गाँव गए थे। यही दिन थे, राहुल ने हमें अपने और अपने रिश्तेदारों के खेत दिखाए। हम सब खेत में ही मटर खा रहे थे, तब तुमने पूछा था – तुम्हारे गाँव में कोई फूलों की खेती करता है?
हम सबने एक साथ पूछा था – फूलों की खेती...!
हाँ
राहुल ने जबाव दिया था – हाँ एक परिवार करता है, लेकिन हम उस तरफ नहीं जाते हैं, कुछ पारिवारिक झगड़े हैं।
लेकिन मुझे वो खेत देखना है, क्या वो रजनीगंधा लगाते हैं? – तुम अब जिद्द पर आ गई थी।
हाँ, शायद...- राहुल ने जवाब दिया था।
तब तो मुझे उस खेत में जाना ही है। हम सबने तुम्हें बहुत समझाया, लेकिन तुम अपनी जिद्द पर अड़ी रही। तुमने कहा - ठीक है, मैं खुद ही उन लोगों से मिल लूँगी। और... और तुम गईं थीं वहाँ... औऱ जब लौटी थी तो हाथ में रजनीगंधा के स्टिक्स लेकर... बिल्कुल बौराई-बौराई सी। और फिर... जब उनका लड़का शहर आया था, तब तुमसे मिलने कॉलेज भी आया था और ... तन्मय को हँसी आ गई थी। फिर वो बार-बार तुमसे मिलने आने लगा था, तुम खीझी भी थी दो-एक बार लेकिन उसका आना बंद नहीं हुआ था। जब मैंने तुमसे कहा था कि वो तुम पर चांस मार रहा है तो तुम कितने दिनों तक मुँह फुलाए रही थी...? बोलो लूनी क्या तुम उन दिनों का हिसाब मुझे दो सकती हो...? अचानक तन्मय उदास हो गया, फिर मैंने भी तुम्हें मनाने की कोशिश कहाँ की... तुम ही क्यों मेरे पास भी तो उन दिनों का हिसाब नहीं है।
क्रमशः

भरीपूरी प्यास....! - 4

होली के एक दिन पहले की याद है, मुझे रंग पसंद है, इसलिए होली भी। अगले दिन तो कॉलेज बंद होना था, इसलिए एक दिन पहले सुबह जल्दी उठ गई थी। बिल्डिंग के बच्चों को चॉकलेट का लालच देकर गुब्बारों में पानी भरवाया था। भाभी के बड़े से शॉपिंग बैग में सारे गुब्बारे रखकर मैं ऑटो से कॉलेज पहुँची थी। कॉरीडोर में ही तुम, आस्था, तपन, संजना, प्रतीक राजबीर और रोशनी दिखे थे। ऑटो वाले को पैसे दिए और अपने बैग में से गुब्बारे निकाल-निकाल कर मैं फेंकने लगी थी। इस काम में मैं इतनी मशगूल हो गई थी कि मुझे ये भी ध्यान नहीं रहा कि सामने से डॉ. त्रिपाठी तेजी से चले आ रहे हैं और रोशनी पर गुब्बारे का निशाना साधा तो डॉ. त्रिपाठी को लगा... वे एकाएक तमतमा गए... मुझे डर लगा... पता नहीं क्या कहेंगे। कितने सख्त तो थे वे... उनकी क्लास में बैठते हुए मुझे तो हमेशा डर लगता था, क्योंकि क्लास में बैठे हुए भी मेरा ध्यान पता नहीं कहाँ-कहाँ हुआ करता था। और वो पता नहीं कैसे ताड़ लेते थे कि आपका ध्यान क्लास में नहीं है। और मैं पता नहीं कितनी बार पकड़ाई में आई कि वो मुझसे चिढ़ने लगे थे... तो अब... ! तभी तुम तेजी से लपकते हुए उनके पास गए और अपने हाथ तो पीछे कर मुझे भी इशारे से बुलाया। तुमने उनके पैर छुए... सर होली के लिए अग्रिम शुभकामना... और फिर मुझे भी आँखों के इशारे से उनके पैर छूने का आदेश दिया। डॉ. त्रिपाठी नर्म हो गए थे खूब सारे आशीर्वाद दिए थे, तुम्हें तो खैर... लेकिन मुझे भी।
मन... तुम जानते हो, मुझे उस क्षण लगा कि काश तुम मेरे पिता-बड़े भाई होते... कितनी बार और कितने सालों तक मैंने तुममें अपने सिर पर तनी छत की तरह का आश्वासन पाया था। कितनी ऊष्मा... कितना गहरा आश्वासन...बस होने-करने की आजादी... बिना किसी तरह के सवाल-जवाब के... बिना डर, बिना अपराध के अहसास के... तुम गलती करो... मैं हूँ ना संभालने के लिए। अदृश्य सीमाओं से परे के आसमान को नाप पाने की सहूलियत क्या होती है, वहाँ उलझने से बिना डरे करने की आजादी.... बस तुम ही दे सकते थे। पता नहीं तुमने कभी महसूस किया या नहीं, बस इतना-सा आश्वासन ही आपको कैसे सहज-सरल औऱ तरल कर देता है, कितने बच्चों को मिल पाता है? मुझे नहीं मिल पाया। बहुत सारे लोगों की इज़्ज़त और विश्वासों के बोझ को लेकर एक लड़की कैसे गलतियाँ कर सकती है? यूँ भी लड़कियों की गलती तो हमेशा-से ही अक्षम्य होती है। मतलब गलती करने की गलती तो वे कभी कर ही नहीं सकती, हमेशा ही अच्छी लड़की के सिंड्रोम से ग्रस्त मैं... पता नहीं कहाँ-कैसे तुम्हारे प्यार में बुरी लड़की होती चली गई थी।
क्रमशः

Friday 15 April 2011

भरीपूरी प्यास....! -3

गर्मी
बहुत दिनों बाद सलोनी को ऐसी छुट्टी और ऐसा अकेलापन मिल पाया है। फागुन की शुरुआत है, लंबी-सी शाम को सलोनी ने इसी छोर से थाम लिया था। छत पर अपनी आराम कुर्सी पर आकर बैठी, चाय का कप... धीमी सी आवाज में चल रहा संतुर... पश्चिम की ओर उतरता सूरज और उसकी नर्म पड़ती धूप, हल्की शॉल सा गुनगुनापन बिखेर रही थी। शाम होते-होते तक सूरज की सारी तल्खियाँ झर गईं थीं, किरणों के ताप के गिर जाने से वो एक सिंदुरी रंग की बॉल सा नजर आ रहा था, उसका रंग बिल्कुल वैसा लग रहा था, जैसा उस दिन मैंने पहना था, जब तुमने मुझसे कहा था कि – मुझे हमेशा ऐसा लगता है लूनी कि तुम रंगों को नहीं रंग तुमको पहनते हैं।
मुझे पहली बार लगा था कि तुम भी मुझे प्यार करने लगे हो, वैसा ऐसा कुछ नहीं था मुझमें कि तुम्हें मुझसे प्यार हो जाए। लेकिन प्यार में कहाँ तर्क चल पाते हैं। इससे पहले तक तो मैं ये भी नहीं जानती थीं कि तुम्हारी जिंदगी में मैं कहाँ हूँ, क्या हूँ? आखिर तुम्हारी जिंदगी में स्मिता जैसी परी थी, जिसके साथ जब भी मैं तुम्हें देखती थी तो मुझे पता नहीं क्यों तुम पर दया आया करती थी, क्यों...? पता नहीं। शायद इसलिए कि स्मिता की वजह से सारे लड़के तुमसे खार खाए हुए नजर आते थे, और खुद स्मिता... हो सकता है, ये गलत हो, लेकिन मुझे हमेशा लगता था कि वह खुद को प्रिंसेस की तरह प्रेजेंट करती थीं और तुम उसके ग़ुलाम... माफ करना, जैसे रज़िया सुल्तान का प्रेमी याकूत...सलोनी मुस्कुराने लगी थी।
शायद यही दिन थे, वो... तुम और मैं लायब्रेरी में ही बैठे थे, सब जा चुके थे और बाहर निकले तो सूनी सड़कें मिली थी। शाम बस उतर ही रही थी। तब मैंने तुम्हें कहा था कि तुम स्मिता के साथ याकूत की तरह लगते हो... मैंने रात को ही फिल्म देखी थी और तुमने शायद पहले ही देख रखी थीं... तुम झपटे थे मुझ पर, तेज गुस्से में... मेरा पैर उलझा था और मैं धड़ाम से गिरी थी पगडंडी से घास के मैदान पर... पीठ के बल... पता नहीं क्या वजह रही थी, सब कुछ इतना अप्रत्याशित हुआ कि गिर जाने से झटके से या फिर चोट लगने की वजह से भौंचक थी और मुझे रोना आ गया था। बड़े-बड़े आँसू निकल आए... तभी तुमने मेरी आँखों से गिरने वाले आँसुओं को अपने होंठों में समेट लिया और मेरा सिर तुम्हारी छाती से टिक गया...। थोड़ी देर तक हम वैसे ही रहे। मैं वैसे ही सिसक रही थी और तुम इतने फनी तरीके से मुझे मना रहे थे, जैसे बच्चों को मनाया जाता है। चॉकलेट... ओके आइसक्रीम... और मैं हँसी रोककर झूठमूट गुस्सा हो रही थी फिर मैंने जिद करते हुए कहा था नहीं बर्फ का गोला...। तुम्हारे चेहरे पर बहुत बुरे भाव उभरे थे और उसी में तुमने मुझे झिड़का था – बर्फ का गोला? पागल हुई हो क्या? पता भी है उसमें सैकरीन होता है,...
हाँ...हाँ पता है और ये भी पता है कि उससे गला खराब होता है... लेकिन मुझे वही खाना है। - मैंने फिर रूठने का नाटक करते हुए कहा था।
ओके...- तुमने हथियार डाल दिए। - लेकिन कहाँ मिलेगा...?
कैंपस में तो मिलने का सवाल ही नहीं उठता है। लेकिन कभी-कभी नियति भी हमें सरप्राइज कर देती है। हमें एक बर्फ के गोले वाला साइकल पर आते हुए मिला। वो भी यूनिवर्सिटी के पार्क के बाहर वाले रास्ते पर...। मैंने पूछा तुम लोगे... तुमने फिर बुरा-सा मुँह बनाया – नहीं, मैं नहीं खाता।
मैं जानती थी कि तुम ना ही कहोगे। तुम तो आइसक्रीम खाओगे... मटके की कुल्फी भी तुम्हें कहाँ पसंद आएगी। मैंने तुम्हें कहा था – मुझे बर्फ का गोला खाना इसलिए भी पसंद है क्योंकि जिस रंग का गोला हम खाते हैं ना होंठों का रंग वैसा ही हो जाता है।
तुमने मुझे कहा था – तुम कितनी बच्ची हो... ?
तो... मैंने तमककर पूछा था, क्या बच्चा होना बुरा है?
तुमने बाँहों में घेर लिया था। मैंने उससे ऑरेंज और खस बनाने को कहा। तुम बहुत आश्चर्य से मुझे देख रहे थे। हम गोला लेकर पार्क के अंदर आ गए। मैंने तुमसे पूछा भी था – हैव...?
लेकिन तुम वैसे ही बने हुए थे... मैंने चिढ़ाया था – बुड्ढे... तुमने मुझे भींच लिया था।
मैंने बड़े मजे से चुस्की ले-लेकर गोला खत्म किया। ये देखने के लिए कि अब होंठो का रंग कैसा हो गया है उन्हें थोड़ा आगे किया और आँखों की पुतलियों को नीचे झुकाया... तभी तुमने झटके से मेरे होंठो को चूम लिया था और मैं बुरी तरह से हड़बड़ा गई थी। पता है मैं तुम्हें कभी कह नहीं पाई कि तुमने कितनी बार मुझे चौंकाया है।
क्रमशः

Thursday 14 April 2011

भरीपूरी प्यास....! - 2

कितनी अजीब बात है, हम एक-दूसरे की धड़कन की आवाज तक को चाहे पहचानते हो, लेकिन अहसासों के लिए हमें कहे हुए शब्दों पर ही भरोसा करना होता है और शब्द... उनकी भी तो सीमा है... गूँगे का गुड़... तुम्हीं से सुना था। उस दिन तो तेज धूप थीं, तुमने कहा था कि बारिश के दिनों में क्वांर जैसी तीखी धूप... सचमुच धरती गर्म हो रही है। हम बस स्टॉप पर खड़े थे, कैसा इत्तफाक था कि बस स्टॉप पर हम दोनों ही थे। बहुत देर से बस का इंतजार कर रहे थे, लेकिन कोई बस नहीं आ रही थी, वो तो बहुत देर बाद पता चला था कि शहर में कहीं बस-ऑपरेटरों और प्रशासन के बीच कुछ तनातनी हुई है, इसलिए तुरंत बसें चलना बंद हो गई थीं। तो एकाएक तेज अँधड़ चला और तीखी-जलाती धूप की जगह काले-भँवर बादल आकर बरसने लगे थे। तेज-तिरछी बौछारें बस स्टॉप के अंदर आकर हमें भिगो रही थी, एकाएक तुम स्टॉप से निकलकर खुले में पहुँच गई, मैं तुम्हें भीगते देख रहा था। गहरे बैंगनी रंग के कपड़े पहने हुए थे तुमने और एकाएक तुमने अपना हाथ मेरी ओर बढ़ाया था... मेरे अंदर मीठी-सिहरन दौड़ गई थी, मैंने तुम्हारा हाथ थाम लिया था और मैं भी तुम्हारे साथ भीगने लगा था... ये तो बहुत बाद में समझ में आया था कि तुम बहुत तरल हो, पानी की तरह, बिना किसी ग्रंथि के... बहती हुई। मेरे लिए तो दावत थी, लेकिन तुम्हारे लिए तो मात्र दाल-भात...। मेरी जगह कोई ओर भी होता, तब भी तुमने यही किया होता। जब हम फिर से बस स्टॉप पर आए थे तो तुमने कहा था… बारिश में भीगना... क्या सुख है, कितना... जैसे गूँगे का गुड़... बता ही नहीं पाए कि मीठा है औऱ कितना... !
हे भगवान, अब... तुम्हारी याद से ही नशा होने लगा है लूनी... ओह... तन्मय की आँखें भारी हो गई थी और उसने सीट पर ही खुद को स्ट्रेच कर आँखें मूँद ली थी। रेडियो चल ही रहा था... तेरा ना होना जाने... क्यूँ होना ही है, ना है ये पाना, ना खोना ही है...। मूँदी आँखों में पानी भर आया था, क्या सचमुच? तुमने ऐसी जिद्द क्यों की यार...? क्या बुरा होता यदि हम दोनों ही इस समय साथ होकर ये सुनते, महसूस करते... ? यूँ है तो सब कुछ, और सच पूछो तो ऐसी कोई खराश भी हर वक्त महसूस नहीं होती है, लेकिन जब होती है तो फिर सहने की सीमा के आखिरी सिरे पर होती है, बहुत कुछ तोड़-फोड़ कर देने का मन करता है और सबसे पहले गुस्सा तुम पर आता है.... क्यों किया ऐसा? क्यों.... क्यों?
क्रमशः

Tuesday 12 April 2011

भरीपूरी प्यास....!-1

बारिश
तन्मय जब ऑफिस से निकला था, तब लग नहीं रहा था कि इतनी तेज बारिश होगी। ठीक है कि बारिश के मौसम में यदि बारिश नहीं होगी तो कब होगी, लेकिन इतनी धुआँधार कि कुछ सूझ ही नहीं रहा हो, तभी तो उसे यहाँ अपनी गाड़ी खड़ी करनी पड़ी थी। बबूल के पेड़ के नीचे जिस वक्त उसने अपनी गाड़ी टिकाई थी, तब आसपास का नज़ारा धुँधला रहा था। गाड़ी पर तेज पड़ती बूँदों की टपर-टपर और शीशों पर जमती भाप... अपनी गाड़ी टिकाकर उसने अपने शरीर को थोड़ा रिलेक्स किया था ... उसे एकाएक सलोनी याद आ गई... यही मौसम था, सलोनी जब मैंने तुम्हें पहली बार मार्क किया था... हाँ देखा तो कई बार था, लेकिन उस दिन पहली बार मैंने तुम्हें बार-बार देखा औऱ देखना चाहा था, तुम मुझे उस दिन कुछ खास लगी थी, कितनी अजीब बात है कि लगातार चार साल साथ ऱहे फिर भी मैं तुम्हें ये बात बता नहीं पाया। हरे रंग के सलवार कमीज में लगातार हो रही बारिश में कॉलेज के लॉन की सीढ़ी पर तुम्हें भीगते देखकर एक-साथ पता नहीं क्या-क्या उभरा था। मैं कॉरीडोर में खड़ा था औऱ तुम कॉरीडोर की तरफ पीठ कर सीढ़ियों पर बैठी थी, बारिश में भीग रही थी ... तुम्हारी हिलती हुई पीठ ये बता रही थी कि तुम रो रही थी। उज्वला के उस संबोधन कल्लो को सुनकर तुम अवाक थी, ये तो वहीं कॉरीडोर में खड़े-खड़े ही तुम्हारे चेहरे के भावों से समझ आ गया था, लेकिन तुम इतनी हर्ट हुई थी कि तुम्हें रोना आ जाएगा, ये हम समझ नहीं पाए थे।
हे भगवान तुम आज फिर क्यों याद आ रही हो? तन्मय ने कार की कुर्सी को थोड़ा पीछे किया और रेडियो ऑन कर दिया। कव्वाली शायद शुरू ही हुई है – मेरे नामुराद जुनून का है इलाज कोई तो मौत है... ओह लूनी... फिर तुम। उस दिन भी बारिश ही हो रही थी। कैंटीन में कोने की टेबल पकड़ कर हम लोग बैठे थे। यलो सूट और मेजैंटा दुपट्टा... तुम जब भी याद आती हो अपने कपड़ों के रंग के साथ याद आती हो... समझ नहीं पाता ऐसा क्यों होता है?
तुम शायद कॉफी सिप कर रही थी और एकाएक तुमने कप टेबल पर रख दिया। पीठ को कुर्सी से टिका दिया और आँखें बंद कर ली थी। उस कोलाहल में भी तुमने रेडियो पर बज रही कव्वाली को सुन लिया था। ये इश्क-इश्क है इश्क-इश्क... और खत्म होती कव्वाली के खिंचाव को मैंने तुम्हारे चेहरे के भावों में पढ़ा था। तुम्हारी आँखें तब भी बंद थी, लेकिन एक-एक बूँद आँसू ढ़लक पड़ा था। जब तुमने आँखें खोली थी तो तुम्हारे चेहरे पर जो कुछ नजर आया वो मुझसे सहा नहीं गया था, मैं बाहर हो रही बारिश को देखने लगा था। जब थोड़ी देर बाद तुम सहज हुईं थीं तो मैंने तुमसे पूछा था – रोईं क्यों थीं?
तब तुम जोर से हँसी थी... रोईं नहीं थी, डूबी थीं।
तुम चुप हो गईं थी। बहुत देर बाद तुमने मुझसे कहा था, कभी इस कव्वाली को अँधेरे में अकेले तेज आवाज में सुनना... तुम खुद को बदलता हुआ महसूस करोगे। और आश्चर्य है कि तुम्हारे जाने के बाद ऐसा कोई दिन आ ही नहीं पाया कि वो कव्वाली भी हो, अँधेरा भी औऱ अकेलापन भी... आज भी... इस घनघोर बारिश में वॉल्यूम तेज करने की ही सहूलियत है, बस... वैसे घनघोर बारिश में काफी कुछ अँधेरे जैसा ही हो रहा है, लेकिन अकेलापन कहाँ से लाऊँ... यहाँ तो तुम हो...। फिर भी आज जैसा तुमने कहा था, उसके बहुत अरीब-करीब-सा ही समाँ है। ... तेरा इश्क मैं कैसे छोड़ दूँ, मेरी उम्र भर की तलाश है... बंद आँखें और तुम्हारी हँसती तस्वीर... सच में डूबने का सामान है... औऱ इंतेहा ये है कि बंदे को खुदा करता है इश्क... एक सनसनी-सी बदन में दौड़ गई थी, ठीक उस दिन की तरह, जब इसी तरह की बारिश में मैंने तुम्हें अपने गले लगाया था। बारिश में लुभाते तीखे मरून और हरे रंग के कपड़ों में तुम्हारा चेहरा आसमान की तरफ था और तुम्हें देखते ही मेरे अंदर कुछ तूफान की तेजी से उमड़ने लगा था, तभी तो
वो अहसास जिसे मैं अपनी नींद से भी दूर रखता था, जिसे मैंने कभी अपने अंदर भी नहीं आने दिया था, वो मैं तुमसे कह गया था, अनायास... मैं तुमसे प्यार करने लगा हूँ... सलोनी... मेरी लूनी...। बाहर भीग रहा था, लेकिन अंदर कहीं धीमी-धीमी-सी तपन थीं... तुम्हारी धड़कन मेरी धड़कनों को थपकियाँ दे रही थी... औऱ मैं पागल हो रहा था... बस... मेरा खुद पर भी इख्तियार नहीं था, जिंदगी में पहली बार मैंने महसूस किया था कि हमारे चाहने और हमारे करने के बीच कभी-कभी एक बड़ी-सी खाई बन जाती है, हम खुद अपने आप को भी संभाल नहीं पाते हैं, हम करना क्या चाहते हैं और क्या कर बैठते हैं? तभी तो कोई तर्क, विचार, डर कुछ भी नहीं होता है, हम खालिस चाह में बदल जाते हैं, दिल रूपी माँस के लोथड़े की बजाए धड़कते-जिंदा दिल में…।
मुझे पता नहीं है कि तुम इसे सुनती हो तो तुम्हारे अंदर क्या बदलता है, लेकिन मुझे भी कुछ तो अनूठा महसूस हुआ है।
क्रमशः

Saturday 2 April 2011

अहसास के आगे... अंतिम भाग

मौसा का हमारे ही शहर में ट्रांसफर हुआ था और माँ अपनी बहन को अपने ही करीब घर दिलाने के लिए कटिबद्ध...। इत्तफाक कुछ ऐसा हुआ कि पास ही का मकान खाली हुआ और मौसी-मौसा हमारे पड़ोसी हुए। चेतना मेरी मौसेरी बहन और हमउम्र... लेकिन स्वभाव में जमीन-आसमान का फर्क। मैं पढ़ाकू और वो खिलंदड़... फिर भी दोनों के बीच का रिश्ता गाढ़ा होने लगा। उसी की सहेली थी आद्या...। रंग थोड़ा दबा हुआ था, नाक थोड़ी बैठी हुई, बाकी चेहरा-मोहरा बुरा नहीं कहा जा सकता, लेकिन उसका एक पैर थोड़ा छोटा था, इसलिए वो थोड़ी-सी लचक कर चलती थी। चेतना के साथ-साथ उसके साथ भी अच्छी दोस्ती हो गई। हम घंटों बातें करते, फिल्में देखने जाते, कभी चेतना को या आद्या को पढ़ाई में कोई दिक्कत होती तो मैं मदद करता। मैं महसूस तो करता था कि आद्या मेरे साथ कुछ अतिरिक्त रूप से सजग और नर्म है, और सच पूछो तो मुझे अच्छा भी लगता था। जब इतना आद्या की तरफ से था तो जाहिर है थोड़ा सॉफ्ट कॉर्नर तो मेरे मन में भी था। लेकिन मुझे नहीं पता कब आद्या ने इसे मेरी पसंदगी या शायद फिर प्यार समझ लिया।
ये मेरी आदत थी कि चेतना के कमरे में घुसने से पहले उसे आवाज लगाता था। उस दिन जब मैंने उसे आवाज लगाई तो उसने कहा एक मिनट... फिर मुझे कमरे में बुलाया। पता नहीं उस दिन कैसे बात कहाँ से कहाँ पहुँच गई और चेतना ने मुझसे पूछ लिया कि – तुझे आद्या कैसी लगती है?
अच्छी लड़की है। जैसी और लड़कियाँ होती है, लेकिन तू क्यों पूछ रही है?
नहीं, आपको पसंद है? – उसने सीधे ही मुझसे पूछा।
पसंद मतलब... – मैं समझ तो रहा था, लेकिन चाहता था कि वो सीधे ही पूछे, ताकि गफलत का कोई स्कोप न हो।
पसंद मतलब... आप उससे शादी करना चाहेंगे? – ये इतना सीधा था कि मैं तैश में आ गया।
तू पागल हुई है क्या? यदि वो दुनिया की आखिरी लड़की हो तब भी नहीं... – और मैं भड़भड़ाकर बाहर निकल आया। जब मैं अपने घर के मेन गेट से अंदर की तरफ घुसा तो चेतना के घर से तेजी से निकलता आद्या दिखी और उसके पीछे-पीछे चेतना भागती हुई। मैं अमरूद के पेड़ की आड़ में हो लिया, लेकिन एक थरथराहट मुझे महसूस हुई। आद्या ने मेरी बात सुन ली थी। उसके बाद लगभग साल भर मेरी और चेतना के बीच कोई बात नहीं हुई। आद्या को तो मैंने उस घटना के बाद आज देखा। जब मैं रियो के लिए निकल रहा था, तब चेतना ने अपनी चुप्पी तोड़ी थी। मेरी शादी में फिर चेतना से मुलाकात हुई थी, लेकिन तब भी आद्या के बारे में न उसने कुछ बताया और मेरे पूछने का तो सवाल ही कहाँ उठता है। और आज जब आद्या मिली है तो मैं थोड़ा-सा असहज महसूस कर रहा हूँ। शायद वो भी कर रही हो...!
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रात को दुल्हा-दुल्हन तो लगे थे फेरे लेने में और घराती-बाराती सोने की तैयारी कर रहे थे, हरेक अपने लिए कोने तलाशने में लगा था। मैंने देखा कि आद्या धीरे से उठी और नजरें बचाकर हॉल से बाहर चली गई। मैंने खुद को टटोला, मैं उससे बहुत सारी बातें करना चाहता हूँ, लेकिन क्या वो मेरा साथ पसंद करेगी? मैंने चांस लिया और मैं भी बाहर आ गया। बाहर टेंट वाले अपना सामान निकाल रहे थे इसलिए शाम की चकमक पता नहीं कहाँ गुल थी। वो स्टेज के पास आधे अँधेरे में चुपचाप बैठी हुई थी। मैं थोड़ा हिचका, फिर साहस बटोर कर उसके सामने जाकर खड़ा हो गया।
होप आय एम नॉट डिस्टर्बिंग यू
अरे नहीं, प्लीज... बैठिए - उसने सामने की कुर्सी पर इशारा कर कहा। मैंने राहत महसूस की।
यहीं रहती हो...? - मैंने बातचीत शुरू करने की गरज से पूछा।
नहीं, फिलहाल तो एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में छत्तीसगढ़ में रह रही हूँ।
प्रोजेक्ट... ?
हाँ, एक एनजीओ है, उसका प्रोजेक्ट है। छत्तीसगढ़ के नक्सली इलाके में हेल्थ और एज्युकेशन के लिए काम करते हैं। उसी के साथ मैं भी काम करती हूँ।
मींस सोशल वर्क...?
नॉट एक्जेक्टली... असल में मैं इस प्रोजेक्ट से इसलिए जुड़ी हूँ कि मैं इस समस्या की ग्राउंड रियलिटी को जानना चाहती हूँ। मैं एक नॉवेल लिखना चाह रही हूँ, इस पर...।
नॉवेल... ! – मैं चौंका था।
हाँ, इससे पहले मैंने जो भी काम किया, इज वॉज आल ए टेबल वर्क... तो इस बार मैंने सोचा कि थोड़ा फील्ड में जाकर भी देखा जाए। बस...। – वो अपनी ही रौ में बोल रही थी।
मतलब पहले भी तुमने लिखा है?
हाँ, दो कहानी-संग्रह हैं और एक नॉवेल हैं।
तुम पहले भी लिखती थीं, मुझे ऐसा याद नहीं पड़ता।
नहीं, लिख तो मैं बहुत पहले ही से रही हूँ, हाँ उन दिनों अपने लिखे को छपने के काबिल नहीं मान पायी थी। होता क्या था कि उन दिनों अपनी उबलन को बस कागज पर उतार देती थी, वैसी ही जैसी वो अंदर होती थी, वैसी ही बाहर भी, वही शब्द, उन्हीं भावनाओं को, ठीक उसी रूप में जिस रूप में जिया। ये तो बहुत बाद में पता चला कि हर जगह पॉलिशिंग की जरूरत होती है। - मैंने पाया कि वो थोड़ी कसैली हो गई। - तो पॉलिशिंग को आजमाया, और हो गई लेखक...। लोगों ने पढ़ा, पसंद किया, बस...। – उसने दोनों हाथों को हवा में लहराया और फिर छोड़ दिया।
फिर ये किसने बताया कि किस तरह पॉलिशिंग की जानी चाहिए? - मुझे उत्सुकता थोड़ी ज्यादा होने लगी और मैं इसे किसी भी तरह से दबा नहीं पा रहा था।
बहुत सालों तक लावा अंदर ही अंदर उबलता रहता है, फिर एक दिन ज्वालामुखी कैसे फटता है, बस वैसे ही...। मैंने कही पढ़ा था कि खुद पर मोहित होकर सृजन नहीं किया जा सकता है। सृजन की प्रक्रिया में थोड़ा बहुत दर्द तो होता ही है। बिना दर्द, अभाव, उद्वेलन या फिर कमी के अहसास के कुछ भी कैसे रचा जा सकता है? – मैं उसके कहने के अंदाज पर इतना मोहित हो गया कि कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दे पाया, बस उसे देखता ही रह गया, तभी तो शायद उसे लगा कि मैं उसकी बात समझ नहीं पाया। वो थोड़ा रूकी, उसके चेहरे पर निराशा का भाव उभरा और फिर चमक निखर आई। कहा – इसे यूँ समझो... यदि मुझे भूख ही नहीं होगी तो फिर मैं खाने के बारे में सोचने तक का कष्ट नहीं करूँगी। आंतरिक भूख से ही सृजन संभव है। किसी कमी से उबरने, किसी अभाव को भरने का नाम ही रचना है, बस इतना ही...।
वो एकदम चुप हो गई...
तो तुम्हें कभी अपने अभाव के भरने, अपनी कमी से उबर पाने का अहसास होता है। - मुझे उससे बात करने में मजा आने लगा था।
मैंने कभी इस दिशा में सोचा ही नहीं। बस लगातार अपने अंदर एक माँग को, एक प्यास, एक आग को महसूस करती हूँ। कुछ करने पर उसके मंद होने, कम होने का अहसास होता है, थोड़े दिन ‘अंतर’ ऐसे ही शांत बना रहता है, फिर से वही सब कुछ भड़ककर आने लगता है। हो सकता है, ये सब कुछ ऐसा नहीं हो जैसा मैंने मान लिया है। उससे अलग भी हो सकता है, लेकिन मुझे लगता है कि मेरे अंदर कहीं दबे हुए कोई अभाव, कोई कमी... – वो थोड़ा रूकी, थोड़ी हिचकी, कोई असमंजस उसके चेहरे पर उभरा और फिर एक निश्चय-सा उतर आया, फिर बोली – किसी अपमान का प्रतिकार हो मेरी ये आग, प्यास....।
तुमने मुझे माफ कर दिया या नहीं...- बहुत साहस की जरूरत थी, ये पूछने में, लेकिन पता नहीं कैसे बहुत तात्कालिक ढँग से मैंने इसे पूछ लिया।
नहीं... मुझे लगता है कि एक उसी घटना ने मुझे संबल दिया है। तुमसे मिला अपमान ही मेरे वजूद का सहारा है, तुम्हें माफ करके मैं खुद को खो दूँगी। - उसने बिना किसी रोष और भावुकता के बहुत संतुलन और दृढ़ता से मुझे खारिज कर दिया।
मेरे पास अब न कोई सवाल था और न ही कोई जिज्ञासा.... वो सामने देख रही थी, जहाँ से दूल्हा-दूल्हन के साथ परिवार के लोग आ रहे थे।
मुझे उसकी तरफ देखने का अवकाश-सा मिला। उसकी आँखें खूब शांत थी, जैसे खूब बरस कर बादल शांत हो जाते हैं। मैं उसके चेहरे पर उभरी तृप्ति के राज तक पहुँच पाया... ऐसा मुझे लगा। मैं खाली हो गया... या फिर शायद खाली ही था....। इस विचार ने मुझे बेचैन कर दिया।
कहानी का मॉरल – सूत्र 68
दुनिया का सारा सृजन या तो खुद से भागने की या खुद की कमी से उबरने की प्रक्रिया का परिणाम है।