Friday 25 March 2011

अहसास के आगे...

वो जितनी भी बार करीब से गुज़री उतनी ही बार मैं कुछ अटका... कुछ उलझा...। ऐसा नहीं है कि मैं दिलफेंक हूँ और हर खूबसूरत औरत को देखकर आँहें भरने लगता हूँ। खुद मेरी बीवी भी खासी खूबसूरत है और एक प्यारी-सी बेटी भी है। कुल मिलाकर एक संतुष्ट जीवन जी रहा हूँ। बल्कि यूँ कहूँ कि मुझे कभी किसी को देखकर ऐसा नहीं लगा, जैसा आज लगा... शायद इसलिए भी कि उसमें कुछ ऐसा है, जो खूबसूरती से कुछ अलग है... जब हमें शब्द नहीं मिलते हैं तो हम अरीब-करीब के शब्दों से ही काम चला लेते हैं, शायद ‘आकर्षक’ के आसपास कुछ होगा। यूँ यहाँ लगभग हरेक शख़्स परिचित है, ममेरी बहन के घर शादी है तो जाहिर हैं यहाँ सारे ही परिचित होंगे फिर उसे देखकर भी अनजानापन तो नहीं लगा, लेकिन कुछ तय नहीं कर पा रहा हूँ कि कौन है और इससे मैं आखिरी बार कब और कहाँ मिला था?
हाथीदाँत से सफेद सिल्क पर पीले और लाल रंग की चौड़े बॉर्डर वाली साड़ी, सूना गला और कान में मोती के झुमके, कंधे तक कटे करीने से सँवरे बाल, थोड़ा ऊँचा कद... बस इतना ही देख पाया था। मैं अपनी मौसेरी बहन के बेटे से बात कर रहा था, उसी दौरान वो मेरे सामने से करीब चार बार गुजरी होगी। दस साल विदेश में रहा और हाल ही में लौटा हूँ। इतने सालों में बच्चे बड़े हो गए और बड़े अधेड़, पिछले दो दिनों से बस लोगों से मिलता ही रहा हूँ। रागिनी साथ नहीं आई उसे छुट्टी नहीं मिल पाई, फिर वो अपने ससुरालियों के बीच कंफर्टेबल भी नहीं थी, तो मैंने ही सोचा क्यों बेकार में उसे धर्मसंकट में रखूँ। इससे मेरी व्यक्तिगतता को भी आँच नहीं आएगी और उसे भी बंधन से आजादी मिलेगी।
तो तू यहाँ है, आकार से बातें कर रहा है, चल मैं तुझे बहुत देर से ढूँढ रही हूँ। - सरिता दीदी ने आकर मेरी बाँह पकड़ते हुए कहा। मैंने आकार के सिर पर हाथ रखा – फिर मिलते हैं बेटा। - कहकर दीदी के साथ चल पड़ा। बहुत देर से सवाल चुभला रहा था, अंदर रूका पड़ा था या फिर कहूँ कि उसे बाहर आने का मौका भी नहीं मिला था, लेकिन दीदी को देखते ही वो याद आ गया, वो सामने खड़ी दिखी तो आसानी भी हो गई। - दीदी, ये कौन हैं? – मैंने उसकी तरफ आँखों से इशारा कर पूछा।
अरे ये... इसे नहीं पहचाना? ये चेतना की दोस्त है आद्या... तु भूल गया... – वे बड़ी अर्थपूर्ण हँसी हँसी थी।
अचानक मैं सनसना गया – ओ आद्या – बस बुदबुदाया था। तब तक दीदी मुझे खींचकर उसके पास ले गई। - आद्या इसे पहचाना...?
उसके चेहरे पर कुछ अनमने से भाव आए। फिर शायद अपने भावों पर काबू कर लिया और अनिश्चितता में गर्दन हिलाकर नहीं कहा। मुझे थोड़ा झटका तो लगा, लेकिन उसके चेहरे पर आते-जाते भावों ने मुझे ये एहसास करा दिया कि चाहे मैं उसे पहचान नहीं पा रहा हूँ, लेकिन वो मुझे पहचान गई है।
ये ऋषभ... मेरा कज़न...। – दीदी ने कहा। तब तक उसने अपने भावों पर पूरा नियंत्रण कर लिया था, पूरी तरह से स्थिर, शांत और संयत हो गई थी।
अच्छा... – फिर मेरी तरफ मुड़कर बहुत शालीनता से हाथ जोड़कर मुझे नमस्कार किया और कहा – बहुत सालों बाद मिल रहे हैं। - फिर से उसके चेहरे पर कुछ बादल आकर गुजर गए थे। मुझे कहना चाहिए कि उसका अपने इमोशन पर कमाल का नियंत्रण था। इस बीच सरिता दीदी कहीं ओर चली गई थी। हम दोनों को बातें करता देख उसके साथ जो मेहमान थे वो भी कहीं चले गए। मैंने पूछा – खाना हो गया?
नहीं अभी बाकी है, आपका...?
चलिए लेते हैं। - मैंने कहा, और पता नहीं कैसे मैंने एक अप्रासंगिक सा सवाल कर डाला – योर फैमिली ....?
वो थोड़ा चौंकी, मैंने आखिर बेवकूफी जो कर दी थी – ही इज इन जापान, आन ए प्रोजेक्ट, एंज योर्स...
रागिनी तो दिल्ली ही है, बेटी की परीक्षा चल रही है और उसे भी छुट्टी नहीं थी... – फिर थोड़ा हिचक कर बोल पड़ा – यू नो ससुराल में कौन लड़की कंफर्टेबल होगी? फिर मैंने भी जिद्द नहीं की। आखिर थोड़े स्पेस की जरूरत तो उसे भी होती ही है ना... नहीं!
उसने बड़े अनमनेपन से हाँ में गर्दन हिला दी। शादी की रस्में चल रही थी और साथ में खाना भी हो रहा था। बातों का सिलसिला वहीं टूट गया और एक अप्रत्याशित चुप्पी हम दोनों के बीच फैल गई। इस बीच मैंने नजरें बचाकर उसे चुपके से देखा। जिस चीज ने उसे आकर्षक बनाया था, वो उसका आत्मविश्वास था, तभी तो इतने लोगों में सिर्फ उसकी उपस्थिति को मैंने पकड़ा था। साँवला रंग, छोटी-सी नाक और बड़ी-बड़ी आँखें, याद आया कि पहले की तुलना में थोड़ी भरी-भरी हो गई है, शायद यही वजह रही होगी कि उसका रंग पहले की तुलना में थोड़ा खुल गया है और पैर... हाँ पैर का लचकना, एकाएक तीखी जिज्ञासा हो आई। पैर अभी भी लचकता है क्या? जब वो प्लेट रखने के लिए गई तो मैंने फिर कनखियों से उसकी तरफ देखा। नहीं... अब उसका पैर नहीं लचकता है। मैं कह नहीं सकता कि मुझे निराशा क्यों हुई थी। उसके पैर नहीं लचकने से या फिर पास्ट में लिए अपने ही निर्णय की याद करके।
क्रमशः

Saturday 12 March 2011

अपने बीहड़ की ओर...

दुपट्टा सफेद था और सीढ़ियाँ उतरते हुए वो लगातार जमीन से रगड़ खाता जा रहा था। मैं जानती थी वो रगड़ खा रहा है और मैला भी हो रहा है, लेकिन कोई बेखयाली थी कि जानते हुए भी कुछ नहीं किया। कई बार ऐसा होता है कि हम जानते हैं कि हमें ये नहीं करना है, फिर भी करते ही चले जाते हैं, यहीं कहीं दिल और दिमाग के बीच का फर्क... फासला उभर कर नजर आता है। मैं उतरती ही जा रही थी, बिना ये सोचे कि जितना नीचे जाऊँगी, उतना ही उपर आऩा होगा… और... औऱ चढ़ाव हमेशा ही मुश्किल होता है, तो क्या इसलिए हम उतरें नहीं? सवाल... सवाल और सवाल... बेतुके, बेमौके और बेजायके सवाल, हर कहीं खड़े होकर हमारे होने को चुनौती देते सवाल... ऐसे सवाल, जिनका कोई जवाब नहीं है और सवाल जिनके होने से निजात नहीं है।
न जाने कितनी सीढ़ियाँ उतर आई, लेकिन लगता है जैसे रास्ता ही भूल चुकी हूँ। इस बार इस तरफ बहुत दिनों बाद जो आना हुआ है। कितना कुछ बदल गया है, कैसा छोड़कर गई थी और कैसा हो गया?
कैसा हो गया... मैंने खुद ही सवाल पूछा था।
अरे बीहड़ छोड़कर गईं थी और वैसा ही तो है। - खुद ही जवाब भी दिया।
जंगल जैसे घना होता जा रहा है। कँटीली झाड़ियों से बदन खुरचने लगा था और कपड़ों में भी खोंपे आने लगे थे, लेकिन बस नशे-की-सी हालत में चलती चली जा रही हूँ। दिमाग की चेतावनी को नजरअंदाज करते हुए भी कि – क्या जरूरत है इस तरह बीहड़ों की तरफ जाने की? अब वहाँ क्या धरा है, जिसे लाने जा रही हो? ऐसा क्या है जो तेरी दुनिया में नहीं है और जिसकी तुझे जरूरत है। तर्क चल रहे हैं - क्या जरूरतों से ही काम किया जाना चाहिए? यदि जरूरतें ही हमें संचालित करती तो आविष्कार तो बहुत होते, विचार नहीं होते... विचारों की जरूरत जो कभी नहीं होती...। लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है? विचारों की सत्ता तो पदार्थ से पहले है... पहले विचार होगा फिर क्रिया और फिर परिणाम... मतलब पदार्थ... ऊँ...हू... ये बेकार के विचार है। पुराने पड़ चुके, जिनकी कोई उपयोगिता नहीं है, छोड़ो इन्हें। सही है विचार तो हमेशा ही बेकार रहते हैं ना...!
हाँ, ठीक है छोड़ो...। पहुँच गई हूँ, वहाँ, जहाँ पहुँचना, अच्छा भी लगता है और उदास भी करता है।
तो तू आ ही गई... इतने दिनों में तुझे मेरी याद नहीं आई...? – बहुत मान से उसने पूछा था।
आई तो थी, बल्कि आती ही रहती है, लेकिन... – मैं चुप हो गई। क्या कहूँ, कुछ कहने से उसे बुरा लग सकता है ना...!
हाँ, बोल... लेकिन क्या... ? फिर क्यों नहीं इतने दिनों तक आई? – उसने बहुत तरल होकर पूछा।
मैं भी बह गई – तू मुझे उदास करती है।
वो कहीं गुम हो गई, जब वो बोली तो उसकी आवाज बहुत उदास और थकी-सी लगी – केवल उदास... ?
मैं हड़बड़ा गई – नहीं, तुझसे मिलना मुझे अच्छा भी लगता है – मैंने वो शेर का टुकड़ा दोहरा दिया – तुझसे मिलना खुशी की बात सही, तुझसे मिलकर उदास रहता हूँ।
अबकी उसने सीधे ही आँखों में झाँका था – सच... ?
हाँ – लेकिन मैं थोड़ी तल्ख़ हो आई थी – इसमें खुश होने जैसी कोई बात नहीं है। जब कभी मैं तुझसे मिलने आती हूँ, तू मुझे बुरी तरह से झिंझोड़ देती है और फिर मैं बहुत दिनों तक उदास रहती हूँ।
वो बहुत मुग्ध हँसी हँसी थी – मैं तुझे झिंझोड़ती नहीं हूँ, तुझमें उगे काँटों को झराती हूँ। मैं तेरा पंचिग बैग हूँ। तेरी प्यास के लिए तृप्ति हूँ... तेरा सेफ्टी वॉल्व हूँ। तू सोच... यदि तू मुझसे नहीं मिले तो जो आग है, जो प्यास है उसे तू खुद सह पाएगी? विस्फोट नहीं होगा, मर नहीं जाएगी? अपनी आग... अपनी प्यास सौंप कर तू शांत नहीं हो जाती है, क्या?
मुझे उत्तर नहीं सूझा, प्रश्न उगा- क्यों है ये प्यास... ये आग...?
उसने भी साथ ही प्रश्न किया – तुझे पसंद नहीं है ये?
तू सवाल के जवाब में सवाल क्यों कर रही है, जवाब क्यों नहीं देती – इस बार मैं बुरी तरह से भड़क गई।
क्योंकि तेरे सवाल में ही तेरा जवाब है। - उसने जवाब दिया।
क्या ये आग ये प्यास तुझे कुछ नहीं देती है? … ले... फिर तू कहेगी कि मैं सवाल कर रही हूँ।
मैं अनमनी-सी हो गई। कैसे कहूँ कि ये मुझे नहीं चाहिए और कैसे ये कह दूँ कि ये मुझे चाहिए? क्योंकि ये प्यास मुझे चाहिए, आखिर इसके बाद ही मुझे तृप्ति का आनंद मिलता है और चूँकि ये प्यास बेचैन करती है, इसलिए ये मुझे नहीं भी चाहिए। मैं चुप थी, लेकिन ये तय था कि इस प्यास ने ही मुझे अपने होने की चेतना दी थी। और सच पूछें तो अब इसके बिना अपने होने की कल्पना ही नहीं हो पाती। अपना चित्र ही नहीं बन पाता, आदत कहो तो आदत और नशा कहो तो नशा... अब जबकि मैं बहुत दिनों बाद उतरी थी अपने अंदर, खुद के पास बैठने, बातें करने तो उदासी तो थी, लेकिन कुछ पा लिए जाने का सुकून भी था और गर्व भी..., फिर भी मैं उसे प्रकट में कुछ नहीं कह पाई। मैं चुप थी। बहुत देर तक वो मेरे जवाब के इंतजार करती रही।
सच बता तुझे नहीं लगता कि दो विपरित चीजों का अस्तित्व एक-दूसरे से जुड़ा है। एक के बिना दूसरा हो ही नहीं सकता – उसने कहा।
मुझे चुहल सूझी – तू तो मार्क्स को जिंदा करने में लगी है। वो मर चुका है, अब तो उसका इतिहास तक मर चुका है। काहे उसके द्वंद्ववाद को हवा दे रही है।
मन में उभरा – जैसे प्यास और तृप्ति, जिंदगी और मौत, दिन-रात, खुशी-दुख... लेकिन प्रकट में कहा – जैसे तू और मैं... और हँसी थी। वो नहीं हँसी, वैसी ही गंभीर बनी रही और चुप्पा भी। मैं भी चुप हो गई। सवाल जवाब खत्म जो हो गए, हम दोनों एक-दूसरी की पीठ से पीठ लगाकर बैठ गईं। चाँद की मुस्कुराहट बड़ी प्यारी लग रही थी और रात... रात बस गुजर रही थी।


कहानी का मॉरल - सूत्र 105
प्यास और तृप्ति मिलकर जिंदगी का ‘कोरम’ पूरा करती है।