Saturday 24 December 2011

दुख का आश्वासन

थक चुकी थीं संघर्ष करते-करते.... पता नहीं कितने अरसे से वो इसी तरह जी रही है। अब सोचें तो याद ही नहीं आता है, अब क्या करें? छोड़ दे खुद को डूबने के लिए...., क्योंकि संघर्ष करते-करते न सिर्फ थक गई है वह बल्कि अब तो ऊब भी होने लगी है। यदि छोड़ दें खुद को तो... या तो डूब जाएगी या फिर ये प्रवाह कहीं लेजाकर छोड़ ही देगा। हाथ-पैर मारना छोड़ ही दिया, डूब रही है या फिर प्रवाह का हिस्सा हो रही है कह नहीं सकती। लड़ना छोड़ दो तो शांति होती है, नीरव... गहरी, काली-अँधेरी, गाढ़ी... बस थोड़ी ही देर डर लगता है, फिर... फिर उसमें नशा आने लगता है, तीखी सर्दी में लिहाफ़ के गुनगुनेपन की तरह, नर्म और सुविधाजनक होने लगती है ये उदासी...। आखिरकार थककर या फिर ऊबकर उसने लड़ना छोड़ दिया था। समय हर ज़ख्म की दवा है, हर घाव का मरहम... सुना है, आजमाकर भी देख ही लें।
शाम रात में तब्दील होने लगी थी। खिड़की से सड़क की रोशनी दाखिल हो रही थी, उसे होश ही नहीं है कि शाम खत्म हो गई है और रात होने लगी है। वो समय के परे जाकर खड़ी हो गई थी... नहीं डूब रही थी या फिर... शायद बह रही थी। अगरबत्ती का धुँआ कमरे में फैला हुआ था, जब मैं वहाँ दाखिल हुई थी। कोई उदास-सी धुन बज रही थी, अँधेरा घना और माहौल में घुटन थी। पलंग पर उसका सिर टिका हुआ था... और वो नीचे बैठी हुई थी। पता नहीं चल रहा था कि वो जाग रही है या सो रही है, निश्चल, निश्चेष्ट...।
ये क्या हो रहा है? – मैंने कड़कते हुए पूछा था।
उसने सिर के नीचे पड़े अपने हाथ को थोड़ी जुम्बिश दी थी, सिर तब भी नहीं उठाया था, बस ऐसे ही सिर रखे हुए बुदबुदाई थी... आजा....। उसकी बढ़ी हुई हथेली मैंने थामी तो लगा कि बर्फ का टुकड़ा हाथ आ गया है। - अँधेरा क्यों कर रखा है?
बस... रोशनी में खुद को बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगी ना... इसलिए! – वाक्य का आखिरी सिरा घुटा हुआ सुनाई दिया।
हुआ क्या है? – मैंने खीझते हुए पूछा।
मुझे ही नहीं पता... – आँखें डबडबा आई थी – बस, खुद को सहने की कोशिश कर रही हूँ।
खुद को सहना... ये कौन सा तरीका है यार...!
अब सिर उठाया था, उसने – सारे तरीके आजमा चुकी हूँ। सोचा अब कोई तरीका नहीं... बस यूँ ही छोड़ दूँ खुद को, गुजर जाने दूँ, इस उन्माद को, हो जाने दूँ, सब कुछ को बरबाद...। आखिर विनाश के बाद ही तो सृजन होता है ना...! यही जाना-पढ़ा है।
मैं हतप्रभ हूँ...- इसका क्या मतलब है?
मतलब... – वो उदासी से मुस्कुराती है – मतलब...? बस यहीं तो मात खा जाती हूँ। मतलब पर ही तो अटक जाती हूँ। हर चीज और हर बात का मतलब होना ही चाहिए... कोई कारण, कोई तर्क और वो ही मेरे पास नहीं होता... । क्या करूँ...? – वो मुझसे ऐसा सवाल पूछ रही है, जिसका जवाब मेरे पास नहीं है... मैं कुछ नहीं कहती, एक बार फिर धुँधआता कमरा, गाढ़े अँधेरे में डूबती हर चीज, उदास और नशीले माहौल इस सबको नजर भर देखती हूँ। एक गहरी खामोशी पसरी है हम दोनों के बीच... बहुत देर तक हम दोनों ही छोटी-छोटी और बारीक ध्वनियों को सुनते रहे। फिर उसने सिर उठाया – मुझे देख... क्या मैं खूबसूरत लग रही हूँ! वो कहता था कि दुख इंसान को खूबसूरत बनाता है...। – वो जिस तरह से बैठी थी, वो मुझे किसी पेंटिंग फ्रेम-सा लग रहा था। वो दृश्य फ्रीज हो गया था मेरे ज़हन में...। मैंने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरा – तुम तो हमेशा ही खूबसूरत लगती हो, तुम्हें खूबसूरत होने के लिए दुख की जरूरत नहीं है। - लेकिन लगता है उसे मेरे कुछ भी कहने की दरकार नहीं है, और इसीलिए उसने कुछ सुना भी नहीं... – ये दुख कहाँ से आता है...! शरीर को कोई दुख नहीं है, बुद्धि कहती है कि ये बेकार है बर्बाद है... बस मन को दुख है... लेकिन मन कहाँ है...? कहीं इसका कोई सिर-सिरा मिलता क्यों नहीं है? न दुख का, न मन का...! बस कुछ सुलगता सा महसूस होता है... हर वक्त – उसने बुझती अगरबत्ती की तरफ डबडबाई आँखों से देखा था, फिर कहा - यदि मिले तो उसे ही जला डालें... कुछ दिन का शोक मना लें और फिर जिंदगी सरल हो जाए।
उसके सवालों के जवाब मेरे पास नहीं है – तू पागल हो गई है।
हाँ... मुझे भी लगने लगा है कि मैं पागल हो रही हूँ। पता है, वो कहता था कि दुख में दृष्टा हो जाना, उसे सह लेने का सबसे आसान तरीका है, लेकिन तू ही बता, अपने दुख से निस्संग होते हुए दृष्टा होना इतना आसान है क्या...? – मैं बस उसे सुन रही हूँ, मुग्ध भाव से, वो कहना जारी रखती है - लेकिन कभी-कभी मैं भी वहाँ पहुँच जाती हूँ, जहाँ मैं भोक्ता और दृष्टा दोनों हो उठती हूँ। और हकीकत में खुद को दुख में देखते हुए अच्छा लगता है... यू नो, नशा आता है। ऐसा लगता है कि जैसे ये जो दुख में है कोई और है और हम जो इसे देख रह हैं, कोई और है...। – चूँकि मेरे कुछ भी कहने की कोई गुंजाइश नहीं थी, इसलिए मैं चुप ही रही। - कभी ऐसा नहीं लगता है कि हममें से हरेक में एक सैडिस्ट होता है, जो खुद से बाहर को दुख में देखकर खुशी महसूस करता है। ... और जब हम दृष्टा हो जाते हैं तो हम भी खुद से बाहर चले जाते हैं...।
बहुत गहरी शांति है, कोई ध्वनि कहीं से नहीं आ रही है। लगता है रात गहरी हो गई है। हम दोनों ही एक-दूसरे का हाथ थामे मौन हैं, चुप हैं...। अँधेरा पहले भी था, लेकिन ठहरा हुआ-सा लग रहा था। अब महसूस हो रहा है कि वो हमारे बीच से गुजर रहा है। मुझे लगा उसे नींद आ गई है, लेकिन एकाएक उसकी ऊँगलियों की पकड़ मुझे हथेली पर कसती-सी लगी... उस गहरी निशब्दता में उसकी सिसकी की आवाज अपनी पूरी दहशत में उभरी थी... आँखों में जैसे समंदर उभरा था, उस अँधेरे में भी उसके चेहरे की सौम्यता चमक रही थी, वो मुझे बहुत स्थिर दृष्टि से देख रही थी – कुछ भी नहीं ठहरता है, सब कुछ बीत जाता है। बस कुछ निशान छूट जाते हैं...। ये उन्माद भी गुजर जाएगा, बस चाहती हूँ कि इसे पूरी गरिमा से सह लूँ... बिना आत्मदया के... सुबह हर हाल में होगी, ये बहुत बड़ा आश्वासन है दुख के दौर का..., जब हम इस आश्वासन को पा लेते हैं तो दुख को सहना आसान हो जाता है...- उसकी आँखों में मैंने बिजली कौंधती-सी देखी थी...।
अँधेरा गुजर रहा था, सुबह की दूधिया रोशनी कमरे में दाखिल हो रही थी...।
कहानी का मॉरल – सूत्र – 117
गहनतम दुख को भी इस उम्मीद से सह लिया जाता है कि भविष्य के गर्भ में खुशी छिपी है।

Wednesday 5 October 2011

‘जो भी है बस यही एक पल है’

शरद की मीठी-सी शाम का मजा खराब कर रहे थे लाउड-स्पीकर पर भजन के नाम पर बज रही पैरोडी। एक तरफ घर पहुँचने की हड़बड़ी, दूसरी तरफ जाते हुए कुछ जरूरी काम निबटाने की मजबूरी और उस पर ट्रेफिक की समस्या और ये दिमाग का फ्यूज उड़ा देने वाला शोर...। घट-स्थापना का दिन और चारों ओर त्योहार का उल्लास... हरेक को जैसे कहीं जाने की जल्दी थी... मुझे भी थी, घर पहुँचने की। घर पहुँची तो पोर्च की कुर्सी भी खाली थी और झूला भी... दादी नहीं थी।
कहाँ है दादी?
तबीयत ठीक नहीं है, आराम कर रहीं हैं। - जवाब मिला।
मेरे कमरे के सामने की तरफ ही है दादी का कमरा... कमरे से निकलते हुए यदि उनके कमरे का दरवाजा खुला हो तो वो नजर आ ही जाती है। आज शाम के वक्त उन्हें बिस्तर पर लेटे देखकर कुछ खटका हुआ। जाकर देखा तो चेहरा सुस्त नजर आया, लगा कि तबीयत कुछ ज्यादा ही खराब है। करवट लेने की ताकत भी नहीं नजर आई... तुरंत गाड़ी निकाली... अस्पताल ले जाने के लिए...।
वैसा ही माहौल था, बल्कि बढ़ती रात में गहराते उत्सव का शबाब अपने चरम की ओर बढ़ रहा था। हवा में खुनक आ घुली थी और मौसम में उत्साह... लेकिन यहाँ मन में कुछ गहरे जाकर अटक गया था। पता नहीं किस वक्त वो नामालूम-सा पल दबे पाँव आया और आकर गुजर गया और दादी 'होने' से 'न-होने' में बदल गई। हम न उस पल को देख सके, महसूस कर सके तो उसे रोक पाना तो यूँ भी संभव नहीं था।
गए थे एक भरे-पूरे इंसान को लेकर, लौटे एक खाली बर्तन-से शरीर के साथ...। आत्मा (मुझे यकीन नहीं है आत्मा पर, जिसे देख नहीं सकते, छू नहीं सकते, महसूस भी नहीं कर सकते। जिससे न प्यार किया जा सकता हो, न नफरत... तो फिर उसके होने का यकीन कैसे किया जा सकता है? ) नहीं थी... मैं सहमत नहीं हूँ – जान चली गई थी। अंदर दादी का पार्थिव शरीर था और बाहर उन्हीं की आरामकुर्सी पर मैं थी। सभी दादी के साथ की अपनी-अपनी यादों की जुगाली कर रहे थे। कुछ यादें रात के उस काले कैनवस पर चमकती और बुझ रही थी।
उधर यादें, इधर विचार... क्या जीवन का अर्थ इतना ही है? बस... जान निकलते ही सब खत्म... यदि आत्मा ही सच है तो फिर वो कहाँ है... हम उसे देख, छू, महसूस तो कर ही नहीं पाते हैं, उसके तो बस किस्से ही किस्से हैं... और यदि शरीर सच है तो फिर जो पार्थिव देह हमारे सामने पड़ा है वो क्या है? हम उसी से प्यार करते हैं, वही सारी भावनाओं, सारी अभिव्यक्तियों का माध्यम है... सारे प्यार, विचार, कर्म के लिए कर्ता... लेकिन क्या कम हो जाता है जिसे हम मरना कहते हैं! तो बुद्धि कहती है कि आत्मा सच नहीं है, अनुभव कहता है कि शरीर सच नहीं है, तो फिर सच है क्या...? या फिर कुछ भी सच नहीं है... जब जीवन ही सच नहीं है तो फिर हर चीज भ्रम है... और कितनी अजूबा-सी बात है कि ये एक भ्रम कितने भ्रमों की रचना करता है और उसे पोषित करता है। सालों-साल जिसे हम जीवन कहते हैं, चलता है और हम सारी दुनियादारी उसी के सहारे निभाते चलते हैं, एक क्षण बिना ये सोचे कि एक दिन... बल्कि एक क्षण... वो कोई भी क्षण हो सकता है, आएगा और बे-आवाज गुजर जाएगा... एक जीता-जागता जीवन, मौत में बदल जाएगा। जिसे सारे जीवन सच माना उसे वह एक क्षण भ्रम में बदल देगा...।
हम 'हैं' से 'थे' हो जाएँगें। तो न गुजरा वो सच है और भविष्य तो भ्रम है ही... फिर सच क्या है? चाहे दुनिया का सारा दर्शन इस एक प्रश्न के इर्द-गिर्द घूमता हो, लेकिन जवाब किसी के पास नहीं है। हम जानते हैं कि वो एक क्षण हम सबके जीवन के सच को भ्रम बना देगा, फिर भी हम अपने होने को पूरा सच मानकर चलते हैं, उस नासमझी... उस मासूमियत को सालों-साल खींचते चलते हैं और एक क्षण... बस एक क्षण उस सालों से संचित विचार और सच को झटके से झूठ में बदल देता है। मृत्यु जीवन से अर्थ छीन लेती है, तो फिर जीवन का होना क्या... लेकिन जितनी फिलॉसफी पढ़ी है और तर्कों से जितना जाना है वो तो यह कहता है कि कुछ नहीं होने का अस्तित्व कुछ होने से ही है... तो पहले हम हैं तभी तो हम नहीं होंगे...। फिर-से सब गड्ढमड्ढ... रात गुजर रही थी और विचारों का बोझ लगातार बढ़ता रहा था। कहीं कोई सिरा नजर नहीं आ रहा था। उलझते-उलझते लगा कि जीवन की तरह ही ये विचार भी अर्थहीन है, क्योंकि इनकी कोई मंजिल नहीं है। फिर एक सवाल... तो क्या जीवन की कोई मंजिल है? मान ही लें कि जीवन की मंजिल मौत है... सवाल खत्म... विचार भी खत्म...।
रात गहरी होने लगी थी... अँधेरा घना और सन्नाटा तीखा हो चला था। शरद की खुनक का अहसास अब गाढ़ा हो चला था...। आसमान खुला था और गहराते अँधेरे में तारों की टिमटिमाहट ने न जाने कैसे बचपन को जिंदा कर दिया था। गर्मियों की रातों में जब देर रात तक जागती आँखें एकटक तारों को ही देखती थी। याद आती थी कोई पहेली... सिर पर मोतियों का थाल जैसी और लगता कि हाँ आसमान ठीक वैसा ही तो है। किसी तारे पर यूँ ही आँखें ठहर गई... नींद का खुमार, उदासी का बुखार, ठंड़ी होती रात और गाढ़े होते अँधेरे में यूँ ही एक पल फिर से आया... न जो गुजरा वो सच है और न जो आएगा वो सच होगा... ‘जो भी है बस यही एक पल है’...। सांत्वना सी महसूस हुई... और पता नहीं कैसे नींद आ गई।
कहानी का मॉरल – सूत्र 130
मृत्यु ‘होने’ और ‘न-होने’ के बीच का महज एक क्षण है.

Tuesday 27 September 2011

खूबसूरती के साइडइफेक्ट्स...!

रात का गहरा नशा और उसकी खुमारी थी... नींद इतनी गहरी थी कि मंजरी की किलकारी सुनकर हड़बड़ा कर जागा था... क्या हुआ? – बहुत घबराकर पूछा तो वो रात में इतनी जोर से खिलखिलाई कि मुझे अपने होंठों से उसके होंठों को सिलना पड़ा। उसने वैसे ही अपना हाथ रजाई से निकालकर खिड़की की तरफ बढ़ाया... और दूसरे हाथ से मुझे धकियाकर अलग किया।
देखो बर्फ...।
खिड़की के शीशों के उस पार स्ट्रीट लाइट की पीली-उदास रोशनी में नजर आया जैसे आसमान से रूई के फाहे बरस रहे हों...। उसने झटके से उठकर खिड़की खोली तो तीखी-बेधती सर्दी कमरे में दाखिल हो गई। उसने जल्दी से खिड़की बंद की और रजाई में घुस गई। मैंने उसे तब तक जकड़कर रखा, जब तक कि उसकी कँपकँपी कम नहीं हुई। हाथों में उसके बालों का रेशम था और सीने पर उसकी साँसों की तपिश...। उसकी लंबी बरौनियाँ आँखों के खुलने-बंद होने से मेरे कंधों को सहला रही है। मैं खुश हूँ... बहुत-बहुत...। इतनी खूबसूरत पत्नी को पाकर...। पिछले साल इन्हीं दिनों से शुरू हुआ सिलसिला इस साल एक मंजिल पर पहुँच गया। ममेरे भाई की शादी में मंजरी को देखते ही लगा कि बस यही मेरी बीबी हो सकती है। दूधिया गोरा रंग और कंजी-बड़ी आँखें... लंबे बाल और लंबा कद... बहुत-बहुत खूबसूरत...। 6 महीने में सगाई और साल भर में शादी...। मनाली में हनीमून के लिए आए और आज दूसरा दिन है। पता नहीं क्यों लगा कि प्रकृति ने भी मेरी खुशियों के लिए अपना खजाना खोल लिया है। हम दोनों यूँ ही रजाई में एक-दूसरे के साथ खेलते हुए खिड़की पर आँखें गड़ाए आसमान से रूई का झरना देखते रहे... कब सुबह हुई पता ही नहीं चला।
बर्फ अब भी गिर रही थी... बिस्तर छोड़ने का मन ही नहीं कर रहा था। मंजरी ने सिरहाने पड़ा कोट उठाया और तुरंत पलंग से उतर गई।
उठिए, हम यहाँ कमरे में कैद रहने के लिए नहीं आए हैं। - बहुत लाड़ से कहा था। मैंने झपट्टा मारा तो मेरे हाथ में उसकी कलाई आ गई और मैंने उसे फिर से बिस्तर पर खींच लिया। - मैं तो बस यही करने आया हूँ। - वो फिर खिलखिलाई और हाथ छुड़ाकर दूर चली गई।
मैं रजाई में से निकलने का बार-बार मन बनाता और बार-बार बाहर की सर्दी के डर से दुबक जाता। बहुत देर से मंजरी बाथरूम में थी। मैंने आवाज लगाई – जानूं क्या कर रही हो! मैं यहाँ सर्दी के मारे मर रहा हूँ...।
तभी वो बाहर निकल आई। नहाकर आई थी, बालों पर तौलिया था। उसने शरारत से भरकर पलंग के दूसरे हिस्से से जो रजाई खींची तो सर्दी के मारे में सिहराकर चीखा... – सर्दी लग रही है ना...! क्या कर रही हो...।
उठ जाओ, पानी खूब गर्म है, नहा लोगे तो अच्छा लगेगा। - स्कूल मास्टर की तरह उसने आदेश दिया। मैं बुदबुदाया – स्साली मास्टरनी...।
उसने प्यारभरी मुस्कुराहट बिखेरी...।
जब मैं नहाकर लौटा तब वो काजल लगा रही थी और लगभग तैयार हो चुकी थी। बाल खुले थे और कानों में डायमंड के झूमर से पहने हुए थे। मैं मुग्ध भाव से उसे देखने लगा तो उसने करीब आकर मेरे गीले बालों को अपनी ऊँगलियों से झटका... मैंने फिर से उसे खींच लिया।
चलो... तैयार हो जाओ जल्दी।
बर्फ गिरना बंद हो चुकी थी और ठंड तेज हो गई थी। घड़ी में 10 बज रहे थे। भूख तेज हो गई थी। नाश्ते के लिए रेस्टोरेंट में पहुँचे। ऑर्डर करने के बाद मैंने आसपास नजर घुमाई। काउंटर पर मैनेजर के पास बैठा लड़का बड़ी बेशर्मी से मंजरी को घूर रहा था। मंजरी इस सबसे बेखबर मेन्यू कार्ड पढ़ने में उलझी हुई थी। मुझे एकाएक समझ नहीं आया कि मैं क्या करूँ। अब देखना तो कोई जुर्म नहीं है, मैं मंजरी के पास की सीट छोड़कर उसके सामने की सीट पर बैठ गया, ताकि मेरी आड़ में वो मंजरी को देख ना पाए। जैसे-तैसे नाश्ता हुआ। मेरे तो गले से कौर ही नहीं उतर रहे थे।

रेस्टोरेंट से निकलने के बाद भी मैं वहीं रह गया था, या फिर मुझे लगा कि वो लड़का मेरे साथ-साथ चलने लगा था। अब स्थिति ये हो गई थी कि मैं अपने सामने से गुजरते हरेक शख्स की नजरों का जायजा लेने लगा था। एक तरफ जहाँ मंजरी पहाड़ों पर जमी बर्फ का मजा ले रही थी। उस सारे दृश्य को महसूस कर रही थी, वहीं मैं न जाने किस गर्त में उतर रहा था।

बाहर टँगे वूलन कुर्ते को देखकर मंजरी ने कहा था – कितना सुंदर है ना। चलो देखते हैं।
दुकान में पहुँचकर मैंने दुकानदार को बाहर टँगे कुर्ते के बारे में बताया तो उसने तुरंत अंदर से उसी तरह का कुर्ता लाकर मंजरी के सामने रख दिया। वो हर चीज मंजरी को ही दिखा रहा था, उसे ही कन्विंस करने की कोशिश कर रहा था। मुझे चिढ़ आई और मैंने सख्ती से मंजरी की कलाई पकड़ी और दुकान से बाहर आ गया। वो समझ ही नहीं पाई कि आखिर हुआ क्या है! मैं भी कहाँ समझ पा रहा था।
शाम उतर रही थी। हम दोनों ही थकने लगे थे। यूँ भी 6-6 इंच मोटी बर्फ पर गम बूट पहन कर घूमना खासा थकाने वाला काम था। हिमाचल टूरिज्म ऑफिस के बाहर की कॉफी शॉप में जा घुसे। ओपन एयर शॉप से मनाली मॉल रोड पर घूमते पर्यटक, जोड़े नजर आ रहे थे। मैं जब कॉफी लेकर लौटा तो मंजरी मॉ़ल रोड की तरफ मुँह घुमाए बैठी थी। उसकी पीठ की तरफ कुछ पर्यटकों का झुंड बैठा हुआ था। शायद दिल्ली के लड़के थे सारे। उनमें एक सरदार कुछ इस तरह से बैठा था कि वो मंजरी को देख सके। वो थोड़ी-थोड़ी देर में कनखियों से मंजरी की तरफ देख रहा था। फिर से मेरा गुस्सा बढ़ने लगा था। जब मैंने ये महसूस किया कि मुझे मंजरी पर भी गुस्सा आ रहा है तो मेरी बुद्धि ने मुझसे पूछा कि – उस पर क्यों?
वो मॉल रोड पर घूमते जोड़ों को देखने में मगन थी और मैं अपनी उधेड़बुन में... कि मैंने देखा कि बादल कतरों में उसके बालों और कंधों पर जमा हो रहे हैं। उसने अपनी आँखें गोल-गोल की और किलकारी मारी – बर्फ...। कॉफी का जल्दी-जल्दी खत्म किया और व्यग्रता से खड़ी हो गई।
चलो...
मैंने पूछा – कहाँ?
अरे बर्फ में घुमेंगे...। यही तो मजा है, यहाँ इस मौसम में आने का। - ये कहती हुई वो गेट से बाहर निकल गई। मैंने फिर कनखियों से लड़कों के उस झुंड की तरफ देखा। उस लड़के की नजर अब भी मंजरी पर थी। मेरी मनस्थिति मेरे नियंत्रण से बाहर थी। दूसरी ओर मंजरी मासूमियत से गिरती बर्फ को आँखों में, हाथों में और जहन में समेट रही थी। मैं अनमना-सा उसके साथ घिसट रहा था। कितना.... खूबसूरत है ना सब कुछ...! – उसने बिल्कुल डूबते हुए कहा था। लेकिन मैं न जाने कहाँ था। तभी सामने की दुकान से निकलते हुए एक मध्यवय से सज्जन को कहते सुना – परेशान हो गए हैं। महीना भर हो गया, यही चल रहा है। न तो सर्दी से निजात है और न ही बर्फबारी से...। देखो बर्फ गिरते ही सारे पर्यटक चले जाते हैं। धंधा चौपट हुआ जा रहा है।
मंजरी से ने मेरी तरफ देखा। यार दुनिया में कुछ भी निरापद नहीं है। हम जिस चीज के लिए यहाँ आए, ये लोग तो उसी से उकता गए। - बर्फ पर जमा-जमाकर पैर रखते हुए उसने पूछा – क्या हरेक के लिए खूबसूरती के मायने अलग होते हैं?
मेरे पास जवाब नहीं था। एक सवाल था, क्या दुनिया में कुछ भी निरापद नहीं है, खूबसूरती भी नहीं। मैं चुप था और मंजरी के लाल होते चेहरे, चमकती आँखें और मादक अदाओं को देख रहा था।
कहानी का मॉरल - सूत्र 113
सौंदर्य निरापद (risk-free) नहीं होता.

Monday 5 September 2011

दुख-सुख का तराजू जीवन

यार तुम्हारी राईटिंग में इतनी निगेटिविटी क्यों रहती है? – बहुत झल्लाया हुआ-सा स्वर था। वो मेरे पोट्रेट पर काम कर रहा था। उसे व्यक्तिगत तौर पर खिलते और चटख रंग पसंद है, इसलिए उसकी सारी की पेंटिग्स में बहुत खुले और खूबसूरत रंग हुआ करते हैं। जैसे ही उसने ब्रश का पहला स्ट्रोक दिया... मटमैला-सा रंग कैनवस पर छिटक गया... उसने बहुत उखड़े मन से ब्रश को पानी में डुबोया और कपड़े के हल्के स्ट्रोक्स से उसे सूखाने लगा। मटमैले रंग ने उसका मन खराब कर दिया था... मुझे लगा कि उसके ब्रश को भी मेरी बीमारी लग गई, मैं और उदास हो गई। उसने झल्ला कर मेरे कंधें झिंझोड़े... बोलती क्यों नहीं? – मुझे समझ नहीं आया कि अभी इस वक्त उसे क्या याद आया होगा कि इस विचार ने उसकी एकाग्रता को भंग कर दिया। अभी हमारे बीच कुछ भी साझा नहीं है... कोई अंकुरण तक नहीं हुआ है... फिर भी उसने पता नहीं कैसे मेरी जमीन पर हक जमा लिया है। मैं घबराकर विषयांतर करती हूँ – कला का लक्ष्य क्या है?
उसकी चिढ़ जस-की-तस है – ब्यूटी, सौंदर्य, खूबसूरती... - थोड़ी देर का पॉज देने के बाद – तुम्हें क्या लगता है?
मैंने खुद को पूरी तरह से संतुलित किया – मेरे हिसाब से व्यक्तित्व का परिष्कार...।
बात पूरी होने से पहले ही उसने झपट ली – ... और तुम्हें लगता है कि ये सिर्फ ट्रेजेड़ी और निगेटिविटी से ही हो सकता है!
मैं फिर निरूत्तर...। कहीं से दिमाग में कुछ क्लिक हुआ... – मैंने बहुत सारी जगह पढ़ा-सुना है ऐसा। शैली ने भी कहा है ना कि – ‘अवर स्वीटेस्ट सांग आर दोज विच दैट टेल ऑफ सेडेस्ट थॉट...’ या फिर ‘है सबसे मधुर वो गीत जिसे हम दर्द के सुर में गाते हैं...’- मैंने थोड़ा-सा चिढ़ाते हुए कहा।
बकवास है... कोरी बकवास... जीवन सिर्फ दुख ही दुख नहीं है। योर एप्रोच इज वन साइडेड... – उसकी झल्लाहट बरकरार थी।
मैंने मुस्कुराकर कहा – दूसरी साइड के लिए तुम और तुम्हारे जैसे तमाम लोग हैं ना...! देखो कितने खूबसूरत रंग होते हैं तुम्हारी पेंटिग्स से... फुल ऑफ लाइफ...। – मैंने उसे पटरी पर लाने की कोशिश की, कुछ हद तक सफल रही ही होऊँगी तभी तो कंम्प्युर-मोबाइल में आने वाले स्माईली की तरह हल्की सी मुस्कुराहट उसके होंठों के कोनों से झरी थी, लेकिन वो पूरी तरह से मेरी बात से मुत्तमईन नजर नहीं आया। उसने अपने स्टूडियो की लाइट बुझा दी थी... इशारा था यहाँ से बाहर चलने का। बाहर आते ही सफेद रोशनी आँखों पर पड़ी थी, उसकी बड़ी-खुली बॉलकनी मुझे हमेशा ही फेसिनेट करती रही है, और उस पर पड़ा बेंत का झूला... उसके घर में मेरी सबसे पसंदीदा जगह... तुरंत पहुँचकर कब्जा कर लिया। वो शायद उसी विचार में डूब-उतरा रहा था।


मुझे नहीं लगता कि दुख को जीवन का मूल स्वर होना चाहिए। - उसकी सुई वहीं अटकी पड़ी है।
मैंने अनमने होकर जवाब दिया – मुझे लगता है दुख संभावना है... सब कुछ के एक दिन ठीक होने की... ये प्रवाह है, गति है।
और सुख....? – मुझे पता नहीं क्यों ये यकीन हुआ कि वो मेरी बात से प्रभावित हुआ।
सुख... – मैंने थोड़ा सोचते हुए कहा – वो अंत है, रूका हुआ पानी... क्योंकि उसमें बेहतर होने की संभावना नहीं है। - मैं इस विषय से थोड़ा ऊब गई थी – पता है संभावना है तो ही जीवन है। जिस दिन ये खत्म, जीवन खत्म... तो सुख के कुछ समय बाद ही जीवन की ढलान शुरू हो जाती है। इस दृष्टि से सुख वर्तमान है और दुख भविष्य... – मैं अपने ही निष्कर्ष पर मुग्ध हो गई... शायद वो भी... – ओ... ।
लेकिन सुख और दुख जीवन का ही हिस्सा है। - उसने फिर से विचार का सिरा मुझे थमा दिया।
हाँ... अब ये अलग मामला है कि किसी को कुछ तो किसी को कुछ आकर्षित करता है। - मैंने बात को बंडल बनाते हुए कहा।
उसने सवाल किया, तीखा, चुभता हुआ – तो तुम्हें दुख आकर्षित करता है...! – उसने फिर से उसे खोलकर फैला दिया। मुझे लगा मैं एक गहरी खाई के मुहाने पर खड़ी हूँ। मैं चुप हो गई। बहुत देर तक वो मेरे जवाब का इंतजार करता रहा। मुझे अच्छा लगा कि उसने मुझे हारने के अहसास से बचा लिया, वो बहुत मीठे से मुस्कुराया – ठीक है तुम दुख हो मैं सुख... तुम संभावना हो, मैं अंत... तुम मेरा भविष्य हो मैं तुम्हारा वर्तमान...- पता नहीं कैसे वो एक जटिल-से संबंध को इतनी सरलता से परिभाषित कर गया।
मुझे लगा कि इस बहाने उसने जीवन की परिभाषा तय कर डाली...। मैंने दूर क्षितिज पर नजरों की कूची फेरी तो... सूरज का निचला हिस्सा धरती में धँस गया। शाम उतर आई थी।

कहानी का मॉरल – सूत्र नं. 127
दुख भविष्य है, सुख वर्तमान

Monday 22 August 2011

बदलते दौर में.... (तीसरी और समापन किश्त)

गतांक से आगे...

मॉल के उस रेस्टोरेंट में इत्तफाक से रेलिंग से लगी वही टेबल खाली मिली, जहाँ बैठकर पिछले हफ्ते ही सौम्या और श्वेता ने साथ खाना खाया था। बाकी पूरा रेस्टोरेंट भरा हुआ था, क्यों न हो लंच टाइम जो ठहरा। सौम्या अपने से बाहर पहुँच गई थी... धीरे-धीरे उसकी नजरों के साथ ही वह भी बाहर परसने लगी थी। नीचे-उपर के रिटेल आउटलेट्स पर क्या-क्या, कैसा-कैसा बिक रहा है। कोई परिचित चेहरा यहाँ है या नहीं... और भी पता नहीं क्या-क्या। क्षितिज ने बड़ी उदासिनता से मैन्यू कार्ड पर नजर डाली और सौम्या के सामने सरका दिया। सौम्या ने पूछा – क्या लेना पसंद करोगे?
तो क्षितिज ने लापरवाही से कंधे उचका दिए – कुछ भी...।
सौम्या का असमंजस बढ़ गया फिर भी उसने ऑर्डर कर दिया। वो फिर बाहर पसरने लगी, तभी क्षितिज ने उससे साकेत के बारे में पूछकर कर उसे उसकी अँधेरी खोह में पटक दिया। उसने एक छटपटाहट-सी महसूस की, लेकिन फिर हू नोज... जैसे जैस्चर्स देकर उसने इस प्रसंग से मुक्ति पानी चाही। हालाँकि कहीं गड़ तो गया था वो....।
क्षितिज बहुत गौर से उसकी तरफ देख रहा था, शायद वो बहुत कुछ का अनुमान भी लगा चुका था। तो क्या वो भी तुम्हें बिना बताए कहीं गया है? – क्षितिज ने निहायत ही व्यक्तिगत सवाल कर डाला था। सौम्या इससे थोड़ी असहज हो चली थी और इस स्थिति से बचना चाह रही थी और शायद वो भी उसके इस प्रयास को समझ कर खुद में सिकुड़ गया था। सौम्या श्वेता के तर्कों पर विचार करने लगी थी। श्वेता बहुत साफगो है और उसने अपनी भावुकता पर पूरी तरह से विजय पा ली थी। उस दिन जब दोनों इसी टेबल पर बैठे थे, श्वेता ने उससे कहा था – पता है सुमि... प्यार जो है ना लड़कियों के लिए पूरा जीवन हो जाता है। लड़का प्यार करते हुए एकसाथ कई सारी चीजें हैंडल कर लेता है और लड़की... वो प्यार करती है तो बस प्यार ही करती है, कुछ और वो साध ही नहीं पाती... प्यार उसके पूरे जीवन पर छा जाता है। सोते-जागते, हँसते-रोते हर वक्त वो उसी में जीती है। इसलिए चाहे जितनी भी प्रतिभाशाली हो लड़की... प्यार होते ही वो नाकारा होती चली जाती है।
सौम्या ने उससे पूछा था – तो माई डियर फ्रेंड नाकारा नहीं होना चाहतीं?
उसने नजरें झुका ली थी, जैसे वो कोई चोरी कर रही थी – हाँ... मैंने अपनी भावुकता पर महत्वाकांक्षा को सवार कर दिया है। मैं इस शहर में खुद को कुछ देने के लिए आई हूँ, टूटने-बिखरने के लिए नहीं।
लेकिन...तुझे नहीं लगता कि तू जिंदगी से डर रही है और क्या तू उस होने को रोक पाएगी? – सौम्या ने पूछा।
उसने मुस्कुराते हुए कहा था – हो सकता है, मैं डर रही हूँ, लेकिन भावनाओं के नाम पर खुद को कुर्बान नहीं करना चाहती...- थोड़ा रूककर उसने आगे कहा - खुद को उस होने तक पहुँचने ही नहीं दूँगी।

ऑर्डर लेकर वेटर आया तो वो फिर से रेस्टोरेंट में लौट आई। क्षितिज पूछ रहा है – क्या हुआ?
कुछ नहीं... – पता नहीं क्यों वो अनमनी हो गई।
क्षितिज को सूझ ही नहीं रहा था कि क्या बात करें और सौम्या कल औऱ आज के बीच झूल रही थी। तभी क्षितिज ने पूछा – श्वेता कब तक आने वाली है। एक्चुली मेरे पेरेंट्स मुझपर शादी का दबाव बना रहे हैं। यू नो लास्ट वीक मेरे जीजाजी बिना इंर्फामेशन के आए थे... मेरा फ्लैट-ऑफिस और दोस्तों से मिले और फिर रात में मुझसे मिलने आए।
सौम्या ने उसे आश्चर्य से देखा – क्यों?
अब तमाम तरह के डर होते हैं अपनों के... कहीं मैं लिव-इन में या फिर... गे... – कहते-कहते उसने अपनी बात वहीं समेट ली।
सौम्या के अंदर उत्सुकता जागी – फिर
फिर... जब वो सब तरफ से सेटिस्फाई हो गए तो कल पापा ने शादी की बात की। वे कहने लगे कि यदि तूने कोई पसंद नहीं कर रखी है तो एक लड़की हमारी नजर में हैं। - क्षितिज ने बात पूरी की।
पता नहीं कैसे सौम्या की कड़वाहट सतह पर आ गई – तो तुम श्वेता से क्या चाहते हो? – फिर उसे खुद ही लगा कि क्यों वो साकेत की चिढ़ क्षितिज पर निकाल रही है!
मैं बस उससे सच जानना चाहता हूँ। यू नो कभी-कभी लगता है कि शी लव्स मी औऱ कभी-कभी लगता है कि नहीं... – उसने हवा में अपनी नजरें टिकाते हुए बहुत मायूसी से कहा।
शी डोंट लव यू... – पता नहीं कैसे मैंने ये कह दिया, कहने के बाद लगा कि मैं बहुत क्रुएल हो रही हूँ, मुझे इतने नाजुक मौके पर इतना कड़वा सच नहीं कह देना चाहिए था, लेकिन मैं कह चुकी थी। उसने बहुत उदासीनता से मेरी तरफ देखा... जैसे ये वो पहले से ही जानता था। मैं अंदर से सिकुड़ गई, फिर से लगा जैसे मैंने साकेत का गुस्सा बेचारे क्षितिज पर निकाल दिया। जो मैं साकेत से नहीं कह पाई, वो श्वेता के कंधे पर रखकर क्षितिज को कह दिया, जैसे... जैसे बदला निकाल लिया, साकेत का क्षितिज से... श्वेता के माध्यम से खुद की भड़ास निकाल ली। खुद पर गुस्सा आया, खीझ हुई, कहीं सुना था – जो दुखी है, वे दूसरों को सुखी नहीं देख सकते हैं... क्या मैं भी...? ओफ्फ... !
देखो क्षितिज... शी इज वेरी मच एंबीशियस, होता क्या है किसी में प्रेम बीज रूप में होता है, तो किसी में नहीं... ... – मैं थोड़ा रूकी, कहूँ न कहूँ का असमंजस... – हो सकता है ये गलत हो, लेकिन कहीं मुझे लगता है कि उसमें नहीं है... - मैं उसकी प्रतिक्रिया के लिए रूक गई।
वो कुछ भी नहीं बोला लेकिन उसकी आँखें जरूर सवाल कर गई, मेरे आगे बोलने के लिए इतना ही काफी था। मैंने कहा - वो प्यार और दुख दोनों के लिए तैयार नहीं है...। – लेकिन प्यार के साथ दुख कैसे आ गया...? नहीं ये उसने नहीं पूछा था, ये मेरा ही उठाया सवाल था। हाँ प्यार है तो दुख तो होना ही है ना...! ये मेरी ही उलझन है जो मैं खुद से ही सवाल-जवाब में डूब रही थी। वो तो निर्विकार बैठा हुआ था... गाजर के टुकड़े को गिलहरी की तरह कुतरता हुआ...। उसने अपनी नजरें मेरे कहने पर टिकाए हुए थी और खुद चुप था, इसलिए उसे पूरी तरह से कंविन्स करना अब मेरी जिम्मेदारी भी थी और जिद्द भी...।
देखो रिश्ते में यदि प्यार है तो दुख भी होगा ही... और श्वेता किसी भी रिश्ते के लिए तैयार नहीं है। वो अपने लिए सिर्फ सुख चाहती है, जिस भी सुलभ और सरल तरीके से मिल जाए। भावना का निवेश उसके लिए बड़ा बेहूदा आयडिया है... वो तो केपिलट इन्वेस्टमेंट पर काम करती है। देखा जाए तो इसमें कुछ बुरा भी नहीं है। आखिर तो सुख ही जीवन का साध्य है... मेरे लिए भी और तुम्हारे लिए भी..., अब यदि वो उसी की साधना करती है तो इसमें क्या गलत है? वो क्यों बेवजह का संघर्ष चुने... महज भावनाओं के लिए...। – कड़वाहट हवाओं में तैर गई।
वो बहुत मायूस आँखों से मुझे एकटक देख रहा था। मैंने अपनी नजरें झुका लीं, मुझे अपने अंदर एक वहशियाना सुख महसूस हो रहा था... आश्चर्य है...!
समाप्त

कहानी का मॉरल सूत्र नंबर – 112
जो दुख के लिए खुले नहीं होते, उनका जीवन डर बन जाता है

Sunday 21 August 2011

बदलते दौर में.... (दूसरी किश्त)

पिछले अंक से आगे...

पता नहीं नींद थी या नशा... कि दरवाजे की तेज और लंबी डिंग-डांग के बाद सौम्या हड़बड़ा कर उठी। न जाने कितनी देर से कोई कॉलबेल बजा रहा था। इस समय कौन होगा...? एक मिनट में चेतना कितने हिस्सों में सक्रिय हो गई... इस दरमियान सवाल-जवाब भी हो गए, घड़ी में समय भी देख लिया गया और शीशे में अपना हुलिया भी... दरवाजे की तरफ लपकी, झाँक कर देखा.... क्षितिज था...।
हाय... – उसके उल्लास ने सौम्या को हल्की-मीठी थपकी दी।
बट श्वेता नहीं है...- सारा शिष्टाचार भूलकर सौम्या ने सूचना दी।
ओ... – क्षितिज के चेहरे का सारा उल्लास पुँछ गया... लगा कि सौम्या की इस सूचना ने उसे गहरी खाई में उतार दिया। वो असमंजस में दरवाजे पर ही टँगा रहा तो सौम्या खुद से बाहर आई - तो क्या हुआ... मैं तो हूँ... कम...। श्वेता ने तुम्हें बताया नहीं था कि वो वीकएंड पर बाहर जाने वाली है?
नहीं...- वो कुछ सोचने लगा, फिर बोला – वो मुझे कुछ भी कहाँ बताती है?
वो सोफे पर कुशन गोद में लिए बैठ गया। सौम्या ने उसके सामने की कुर्सी पकड़ ली। दोनों थोड़ी देर अपने-अपने में कही डूब गए। फिर सौम्या ने ही पहल की। - आज तुम्हारा ऑफ होगा...?
उसने बहुत सकुचाते हुए – हाँ में गर्दन हिलाई। फिर जैसे उसे भी कुछ याद आया, पूछा – तुम आज घर में हो...? – फिर कुछ झिझका – मैंने यहाँ आकर तुम्हें डिस्टर्ब तो नहीं किया, शायद तुमने रेस्ट करने के लिए ब्रेक लिया हो...।
नहीं... – हँसी सूख गई थी और आँखें नम हो चली थी, कहते-कहते, किसी तरह खुद को संभाला – बस यूँ ही।
ओ... – ऐसा लगा जैसे मेरे बिना कहे ही बहुत कुछ समझ गया है वह और उसने उस सबको वहीं छोड़ दिया।
अब... दोनों ने ही अपनी-अपनी राह पकड़ ली...। थोड़ी देर तक दोनों ही चुप रहे। वो उसी कमरे का न जाने कौन-सी बार उसी तरह से मुआयना कर रहा है, जैसे शायद पहली बार किया होगा, हाँलाकि उसमें अब तक कुछ भी नहीं बदला है। सौम्या को जैसे कर्टसी की याद आई हो... – चाय लोगे...?
वो हड़बड़ा गया... थोड़ा मुस्कुराया... – बाहर चलना चाहोगी...? – उसके चेहरे पर जिस कदर मायूसी नजर आई उसे देखते हुए सौम्या को अपना दर्द भूल गया... फिर उसने सोचा, हो सकता है उसका भी मन बदले...। आखिर तो अपने दुखों को लादे-लादे घूमना भी क्या अकलमंदी है। दुख माँजता है, जरूर माँजता होगा, लेकिन दुनिया में रहते हुए खुद को मँजने के लिए छोड़ देना कितनों को नसीब होता होगा...? उसका दिमाग अजीब तरह से काम करने लगा... कभी डूबता लगता है तो कभी उबर कर उसे चुनौती देता।
क्षितिज बड़े असमंजस में उसके उत्तर का इंतजार कर रहा है, सौम्या इसे भूलकर खुद में ही उलझ गई...फिर तुरंत लौटी, मुस्कुरा कर पूछा - आधा घंटा वेट कर पाओगे... – सफाई दी – एक्चुली मैं अभी ही सोकर उठी हूँ, यू नो... – और लापरवाही से हाथ हवा में लहराकर छोड़ दिए।
क्षितिज को भी जैसे कोई जल्दी नहीं थी – यू टेक योर टाइम... आय एम फाइन...।
सौम्या बाथरूम में घुसने से पहले क्षितिज को चाय का कप और टीवी के रिमोट का झुँझुना थमाकर गई थी। वो भी कुछ देर रिमोट के बटन के साथ खेला, लेकिन स्क्रीन पर आते चित्रों में उसे कोई राहत नहीं दिखी और उसने आज़िज आकर टीवी बंद कर दिया।

थोड़ी देर बाद सौम्या नीली जींस पर पीला कुर्ता पहने बाहर आई। उसके बाल गीले थे और उसने कंधे पर एक छोटा पर्स टाँग रखा था। सेंडल पहनते पहनते ही बोली... चलें...। ताला लगाते हुए सौम्या ने क्षितिज से पूछा – लंच किया अभी या नहीं?
उसने बेखयाली में सिर हिलाकर नहीं कहा। तो चलो पहले हम लंच करते हैं, फिर कहीं चलते हैं। उसने एक रिक्शा रोका और दोनों उसमें सवार हो गए।
क्रमशः

Saturday 30 July 2011

बदलते दौर में....

अंधेरे से रोशनी की ओर जाना कितना तकलीफदेह है? ऐसा कभी रोशनी से अंधेरे में पहुँचकर महसूस नहीं होता है। बस आँखों को अंधेरे से अभ्यस्त होने की ही दरकार होती है। मोटे पर्दों की दरारों से आती रोशनी ने सौम्या को तड़पा दिया। उसने छटपटाकर आँखों को हथेली से ढाँप लिया। लेकिन रोशनी के होने को यूँ अनहुआ नहीं किया जा सकता है ना... वो बिस्तर पर अधलेटी हुई और खिड़की पर पड़े पर्दे को थोड़ा और तान कर रोशनी की दरार को भर दिया। रात भर दर्द में तड़पती रही थी, बहुत सुबह जाकर जरा नींद लगी थी। पता नहीं वो नींद थी या उसका भ्रम... ? क्योंकि नींद टाँड पर अधूरी-सी पड़ी उसे घूर रही थी, वो भी क्या करें वो खुद भी रात भर अंधेरे को घूरती रही थी, बस सुबह होते-होते ही नींद लगी थी और... आँखें किरकिरा रही थी, नींद से और रोने से। दिन भर में जरा-जरा सी बात पर न जाने कितनी बार मन कच्चा हुआ था और बात-बेबात आँखें भरती रही। आज तीसरा दिन है... हर घड़ी यूँ लगता है जैसे ये बेचैनी कुछ कम हुई है, लेकिन अगले ही क्षण महसूस होता है कि या तो वो उतनी ही है या फिर पिछले गुजरे क्षण से कुछ ज्यादा...। रणभूमि बना हुआ है उसका मन, मस्तिष्क और शरीर भी... वो लड़ रही है लगातार खुद से... घायल है, अपने दर्द से निज़ात नहीं है उसे लेकिन दुनियादारी का भी तो हिस्सा है वह... अपने दर्द के साथ घड़ी-दो-घड़ी अलग और अकेले रह पाने का विचार तक उसके जीवन में लक्ज़री की तरह लगता है।
घड़ी की तरफ नजर घुमाकर देखा असमंजस-सा लटका मिला... आज ऑफिस जाए या न जाए...? एक ही क्षण में कई प्रोज एंड कॉन्स कौंध गए। नहीं गई तो यहाँ भी क्या करूँगी। श्वेता कल ही वीकएंड मनाने गई है, वो अब कल ही आएगी। दिनभर अकेले... खैर असमंजस की सूली पर लटकी हुई सौम्या ने आखिरकार अभिषेक को फोन लगा ही दिया...।
हलो स्वीटहार्ट – अभिषेक का वही चापलूस स्वर
अमूमन सौम्या उसे नजरअंदाज कर जाती है, लेकिन आज भड़क गई – यार हर बार का मजाक मुझे अच्छा नहीं लगता। तुम मुझे मेरे नाम से क्यों नहीं बुलाते?
वो थोड़ा अचकचाया, फिर उसकी आवाज में अकड़ आ गई, एक तटस्थ रूखापन – मैं तुम्हें ही फोन करने वाला था। तुमने धूप में अंधेरा की रिपोर्ट तैयार कर ली है? आज उसे सब्मिट करना है। जरा जल्दी आ जाना। - लहजा आदेशात्मक था।
सौम्या समझ गई थी, गलती कहाँ हुई थी। उसने अपने लहजे में भरसक नम्रता लाकर कहा था – अभि... आज मैं नहीं आ रही हूँ। - लहजा नर्म था, लेकिन इरादा दृढ़...।
तुम्हें आना तो पड़ेगा... आज ही रिपोर्ट सब्मिट करनी है, एनीहाउ... – वो थोड़ा-सा पसीजा तो था, लेकिन अड़ अभी भी कायम थी।
प्लीज अभि... आय एम नाट फीलिंग वैल... कैन यू डू मी ए फेवर... ? – अनचाहे ही सौम्या की आवाज से चाशनी टपकने लगी थी। कई बार वो खुद को बड़ी अजनबी लगती थी। खुद से कई बार चौंक जाया करती थी, जैसा अभी हुआ।
उसने बड़े अनमनेपन से कहा – बोलो...
देखो रॉ रिपोर्ट तो तैयार है, मेरे फोल्डर में उसी नाम से सेव है... तुम उसे पढ़ लोगो तो समझ जाओगे...- फिर थोड़ा पॉज देकर बोली – यार तुम उसे पॉलिश करके सब्मिट कर दोगे क्या...? प्लीज....।
यार... मेरे पास... – उसकी बात बीच में ही लपक कर सौम्या ने – प्लीज...प्लीज...प्लीज की रट लगा दी।
वो पिघलकर घी हो गया। मुस्कुराकर कहा – ओके, बट कंपेंसेट कैसे करोगी?
सौम्या फिर तिलमिलाई, लेकिन फिर खुद को संयत कर लिया। उसने भी मुस्कुराकर जवाब दिया – लंच इन ब्लू हैवन... बाय एंड थैंक्य – और तुरंत ही फोन काट दिया।
क्रमशः

Sunday 26 June 2011

कुछ न समझे खुदा करे कोई...!

सूरज बस अभी-अभी तालाब के उस सिरे से झाँका ही था कि बादल ने आकर उसे दबोच लिया... बचपन की छुपाछाई उन दोनों के बीच चलने लगी थी। हवा मंद थी और हौले से छूकर गुजर रही थी। वो कहीं और थी हाथ में कुछ छोटे-छोटे पत्थर लेकर बैठी वो कभी-कभी कोई पत्थर तालाब में उछाल देती और वहाँ उठती तरंगों को तब तक देखा करती, जब तक कि वो शांत नहीं हो जाती। फिर कहीं गुम हो जाती और तालाब यूँ ही उसके पत्थर के इंतजार में दम साधे रहता।
शिशिर अपने नए कैमरे से उस प्राकृतिक नजारे को कैद करने में जुटा हुआ था। थोड़ी देर बाद थक कर वो भी रेवा की बगल में जा बैठा। वो समझ रहा था... समझ क्या रहा था बल्कि महसूस कर रहा था कि उसके अंदर फिर से आग धधक रही है, क्योंकि उसकी आँच खुद शिशिर को भी झुलसा रही थी। तीन दिन से वो पता नहीं कहाँ होती थी। जब भी दोनों साथ होते थे उदासी की एक पतली-सी झिल्ली रेवा के गिर्द उसे महसूस होती थी।
उस दिन तो रेवा ने उससे पूछा भी था – ये दुख क्या होता है?
शिशिर पहले उलझा... फिर उसी का कभी कहा हुआ दोहरा दिया – जो चाहो न हो वो दुख है...।
उसने इंकार में सिर हिला दिया – नहीं... उतना ही नहीं है दुख... कुछ और भी है दुख... या... या कि महज मन की स्थिति है दुख...? – उसने खुद से ही फिर से सवाल कर डाला था।
वो लगातार उस सवाल से जूझ रही थी, लेकिन सिर्फ इतना ही नहीं था...। ऊब थी, एंक्जायटी, एक निराशा... या पता नहीं और क्या-क्या....? रेवा अक्सर कहती है कि ये जेनेटिक डिफेक्ट है या फिर (अक्सर हँस कर) मैन्यूफैक्चरिंग...।
सालों-साल शिशिर समझ नहीं पाया था कि कोई ऐसे ही बिना वजह कैसे उदास, निराश हो सकता है? बहुत साल लगे थे रेवा को समझाने में कि ऐसा होता है। बहुत सारे बेतुके सवाल उठते हैं और वो फिर उसे घेर लेते हैं, वो उनसे निकलने के लिए बहुत कसमसाती है, खुद से बहुत संघर्ष करती है, लेकिन नहीं निकल पाती, बस ऐसे ही चलता रहता है और फिर किसी दिन सारी आग धीरे-धीरे बुझ जाती है और सबकुछ सामान्य हो जाता है। शिशिर को अब भी रेवा की बात समझ नहीं आती है, लेकिन उसने खुद को समझा लिया है।

शनिवार की शाम दोनों के लिए बहुत खास होती है, देर तक जागना, दूर तक टहलने जाना... रविवार को अपने रूटीन को तोड़कर देर तक सोना... लेकिन शनिवार को जब वो अपनी दुनिया में पहुँची तो उसे कोफ्त हुई... उसे वो जैसा छोड़कर गई थी, वो अब भी वैसी ही थी। हर दिन तो शिशिर मुस्कुराहट और मीठी चुहल से उसका स्वागत करता था और आज वो अब तक नहीं पहुँचा। लेपटॉप जैसा खुला छोड़ गई थी, वो वैसा ही था, पलंग पर कंवर्सेशन विथ काफ्का वैसी ही खुली-उल्टी पड़ी थी। पहनने के लिए निकाला नया काला कुर्ता वैसे ही उल्टा पड़ा हुआ था और उसकी स्लीपर एक टेबल के नीचे और दूसरी बाथरूम के दरवाजे के पास पड़ी थी... उफ् सब कुछ वैसा ही है कोई बदलाव नहीं...। पता नहीं क्यों उसे लगता है कि उसे हर दिन कुछ बदला हुआ सा मिले... जैसा वो छोड़कर जाती है, सब कुछ यदि उसे वैसा ही मिलता है तो एक अजीब किस्म की निराशा होती है, कल शाम भी कुछ ऐसा ही हुआ। शाम के यूँ जाया होने पर उसे गुस्सा भी आया था, गुस्सा, निराशा के साथ मिलकर और जहर हो गया था। शिशिर के पहुँचते ही फटने को आतुर... जैसे-तैसे खुद को नियंत्रित किया था, लेकिन तीन दिन की बेचैनी को जैसे रविवार का दिन मिला था पसरने के लिए...।


उसने फिर से कंकर तालाब में फेंका... गोल-गोल तरंगों को देखते हुए बोली – पता है शिशिर अपना अहम्, अपनी सफलता, सुविधा, उपलब्धि, प्रशंसा, ‘होना’... ये सब ‘स्व’ के उपर का आवरण हैं। इनका होना उस ‘स्व’ के नुकीलेपन को कम करते हैं, जिसकी वजह से वो हमारे लिए असहनीय बना रहता है, और इसीलिए हम बमुश्किल उसके करीब जा पाते हैं। - वो चुप हो गई और कहीं और चली गई। शिशिर के लिए उसमें कहने के लिए कुछ था ही नहीं, वो बस उसकी बातें सुन रहा था। वो सोच रहा था – कितनी गुत्थियाँ हैं, अभी तक समझ नहीं पाया कि इसे कहाँ से सुलझाऊँ और कैसे...?
फिर भी शिशिर ने प्रतिवाद किया – नहीं, ऐसा नहीं है। हम जब खुद के साथ होते हैं खालिस ‘स्व’ के साथ, तब ये सब कुछ नहीं होता है, ये सब बाहरी है और हम इसे बाहर ही छोड़ देते हैं, या यूँ कह लें कि ये अंदर पहुँचने से पहली ही झर जाता है।
वो सहमत है- हाँ, वही तो मैं कह रही हूँ। लेकिन... लेकिन जब सारी बाहरी चीजें बाहर रह जाती है तब क्या ये सवाल नहीं उठता कि फिर हम है क्या? क्यों हैं? और... और कब तक रहेंगे? ऐसे ही...
यार... तुम अंदर-बाहर को गड्डमड्ड कर रही हो... – शिशिर ने कहा।
तो क्या तुम दोनों को अलग कर सकते हो? – जैसे उसने चुनौती दी।
हाँ, जब मैं अपने साथ होता हूँ, तो फिर अंदर होता हूँ। जब बाहर होता हूँ तो दुनिया साथ होती है। - शिशिर ने स्पष्ट किया।
यू आर लकी... मैं ऐसा नहीं कर पाती। पता नहीं कैसे बाहर फैलकर अंदर तक चला जाता है। और जब मैं खालिस ‘मैं’ होना चाहती हूँ, तो सारे आवरण छोड़ने पड़ते हैं, और जब निरावृत्त होती हूँ तो सह्य नहीं हो पाती, क्योंकि दरअसल तब महसूस होता है कि ‘मैं’ तो कुछ हूँ ही नहीं... जो कुछ है बस आवरण है। और पता है, जब आपको अपना ‘न-कुछ’ होना महसूस होता है, तब आपको लगता है कि कर्म, दुनिया, रिश्ते, धर्म, विश्वास इन शॉर्ट जीवन... सब... सब कुछ अर्थहीन है, क्योंकि हकीकत में तो कुछ है ही नहीं... इट्स टू पेनिंग...। – उसने फिर से कंकर को तालाब में उछाला...।
शिशिर को लगा उसने अपने अंदर के सवाल को चिमटे से पकड़ लिया है, जल्द ही वो उसे फेंक भी सकेगी। थोड़ी देर दोनों ही चुप रहे। हल्की-हल्की फुहारें पड़ने लगी थी, रेवा ने शिशिर की तरफ देखा। शिशिर के बालों पर जैसे मोती जमा हो रहे थे। रेवा ने शिशिर के बालों में हाथ फिराकर उन मोतियों को झराते हुए कहा – बक रहा हूँ जुनूँ में क्या-क्या कुछ/ कुछ न समझे खुदा करे कोई...- और मुस्कुराई। शिशिर ने उसकी तरफ हाथ बढ़ाया और उसने थाम लिया। जब वो खड़ी हुई, तो शिशिर को लगा कि उसके आसपास की झिल्ली जैसे उतर गई हो। वो मुस्कुराई थी... फुहारों ने बड़ी-बड़ी बूँदों का रूप ले लिया था। शिशिर अपने कैमरे को बचाने की जुगत में लग गया और रेवा ने दोनों हाथ फैला कर अपने चेहरे को आसमान की तरफ कर लिया। वो भीगने लगी थी...।

कहानी का मॉरल, सूत्र – 123
खालिस ‘मैं’ को सह पाना दुनिया की कुछ सबसे मुश्किल चीजों में से एक है।
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Wednesday 1 June 2011

रिसती हुई जिंदगी

चीख कर रोने के साथ एक सुविधा ये रहती है कि इसमें यूँ लगता है जैसे दुख का ज्वालामुखी फट पड़ा है और आँसुओं की शक्ल में लावा बह निकला... कुछ दिन, शायद कुछ महीने बहेगा और फिर सब कुछ पहले जैसा सामान्य हो जाएगा, लेकिन सिसकना मतलब खुद को सुलगाना... धीमे-धीमे दर्द में डूब जाना औऱ फिर उसका आनंद उठाना। पता नहीं कितना अंदर उतर गई थी कि अपने दुख के साथ बस कोई पास आया सवेरे-सवेरे गाते जगजीतसिंह की आवाज ही सुनाई दे रही थी मुझे। कॉरीडोर में हो रही चिल्लपों पर मेरा ध्यान ही नहीं गया। दरवाजा बजा तो झटके से उबरी... खोला... वो ऊर्जा से लबालब बाहर खड़ी थी। मैंने थोड़ा साइड में होकर उसके आने के लिए जगह बनाई और वो धड़ाक् से आकर कुर्सी में धँस गई।
कितने दिन हो गए, नजर नहीं आ रही है तू...- उसने सीधा सवाल किया। नजरें मेरे चेहरे की ओर थी... तीखी और चीरती हुई। मैं चाह रही थी कि कैसे भी उसकी नजरों से बच पाऊँ, मैं जानती थी कि ये नामुमकिन है, फिर भी... कई बार नामुमकिन की आस भी जागती है ना...!
वो खड़ी हुई और एक चक्कर मेरे छोटे से कमरे का लगाया। खुदा याद आया सवेरे-सवेरे... – सुनकर उसका ध्यान गया। बड़ी हिकारत से उसने आदेश दिया – सबसे पहले तो इसे बंद कर। उसका मतलब गज़ल से था। कैसे सुन लेती है यार इतना उबाऊ और बोरिंग...? मुझे तो नींद ही आ जाए। - हमेशा की तरह गज़लों को लेकर उसका एक ही जुमला।
फिर मुस्कुराती है और कहती है – कितना दर्द है यार तेरे सीने में, कहाँ से लाती है, इतना दर्द...? जरा अपना सोर्स बाँट लिया कर। दर्द भी बँट जाएगा।
वैसी ही जिंदादिली...। मैं प्लेयर बंद कर देती हूँ।
चल अब फटाफट तैयार हो जा। बाहर चल रहे हैं। - उसका आदेश।
मैं जानती हूँ कि अब मेरे कहने का कोई मतलब है नहीं, फिर भी चांस लेती हूँ – यार मेरा मन नहीं है बाहर जाने का, तू किसी और को ले जा ना...! - रिकवेस्ट भी है मेरे कहने में।
नहीं, जाना तो तेरे साथ ही है, चल जल्दी से तैयार हो जा। - वो कहती हुई फिर से खड़ी हो जाती है। उसमें इतनी ऊर्जा है कि वो 10 मिनट किसी एक जगह टिककर नहीं बैठ पाती है। छोटे से कमरे के छोटे से अंतराल में कई बार चक्कर लगाएगी।
मैं फिर से जोर लगाती हूँ – प्लीज....
वो खारिज कर देती है – नो प्लीज... गेट रेडी फास्ट।
पता नहीं क्या करने वो बाहर जाती है। मैं अब भी खुद से लड़ती हुई असमंजस में टँगी हुई हूँ, वो लौटकर आती है, झिड़कता-सा स्वर – क्या है यार... अभी तक वहीं खड़ी है। कितना टाइम वेस्ट करती है तू... समझती क्यों नहीं, स्साली जिंदगी भाग रही है, हमें उसके साथ कदम मिलाकर चलना है और तू है कि...! – उसने मुझे धकियाते हुए कमरे से बाहर किया। मैं हाथ-मुँह धोकर लौट रही थी, तभी मुझे याद आया कि मुझे देखकर उसने अभी तक कोई सवाल नहीं किया है, इस विचार ने ही मुझे सहमा दिया। उसके साथ जाना मतलब फिर से अपने दुख से दो-चार होना..., लेकिन क्या करें, कोई चारा नहीं है।

तालाब की पाल पर पैर लटकाकर जा बैठे हम दोनों ही।
तो... – उसने सवाल टाँग दिया।
मैंने उसकी तरफ देखा तो आँखों में पानी उतर आया।
सो सुकेतु डिच्ड यू...? – फिर से बेधती नजरें। टीस उठा था घाव, लेकिन वो इतनी ही निर्मम है।
आँखों में दयनीयता उभर आई थी मेरे, शायद ये प्रार्थना करती कि इस विषय को छोड़ दे यार... लेकिन मैं जानती थी ऐसा नहीं होगा। मैंने नजरें झुका ली।
आई न्यू इट... ही इज रियली ए बास्टर्ड... – वो बहुत गुस्से में थीं।
मेरा गला रूँध गया था – फिर तूने मुझे बताया क्यों नहीं?
अब वो उतर आई थी, भीतर – मैं बताती तो क्या तू मान जाती? मैं जानती थी, तू गल गई है, घुल गई है। सच्चाई का वजन तुझसे सहा नहीं जाएगा, इसलिए नहीं कहा। फिर... – वो कहीं शून्य में चली गई थी। न जाने कैसे आँसू उतर आए थे – फिर कहीं हमें ये लगता है ना हो सकता है ये हमारे साथ न हो...।
मैं थोड़ा हल्की हो रही थी, उसे थाम लेना चाहती थी – तू तो ऐसे कह रही है जैसे तुझे भी प्यार हुआ है।
इस बीच वो कहीं गुम हो गई थी। जब मैंने पूछा तो उसने बात टाल दी - तू उसे भूल जा... वो तेरे लायक यूँ भी नहीं था।
मेरी बेबसी उभर आई थी। - और कोई चारा है? सहना ही सच है... – मुझे लगा कहीं पढ़ा है।
बहुत देर तक हम दोनों अलग-अलग खुद से उलझते रहे। फिर एकाएक उसने कहा – तुझे लगता होगा ना कि मैं जल्लाद हूँ, निर्मम, क्रुएल...। क्यों तुझे दर्द के साथ छोड़ नहीं देती, या फिर क्यों उस घाव को छेड़ती रहती हूँ, जिसके भर जाने की शिद्दत से जरूरत है।
मैं फिर भरी हुई आँखों से उसे देखती हूँ। शायद मेरी आँखें उस जिज्ञासा को कह देती है। वो कहती है – पता है, जब जख्म नासूर बनने लगता है तो उसे ऑपरेट करना पड़ता है। और चाहे जिस्म को ऑपरेट करो या फिर भावनाओं को... दर्द तो होता ही है। और डॉक्टर को तो जरा भी भावुक नहीं होना चाहिए, नहीं तो वो इलाज नहीं कर पाएगा...।
तो तू मेरी डॉक्टर है...? – मैंने मुस्कुराकर पूछा था और खुद से ही चौंक गई थी .... क्या मैं इतने दिनों से तकलीफ में थी? – सच में हम महसूस भी नहीं कर पाते हैं और जिंदगी पता नहीं किस दरार से रिस कर अंदर आने लगती है।

कहानी का मॉरल सूत्र – 3
जिंदगी अपने रास्ते ढूँढ लेती है

Wednesday 20 April 2011

भरीपूरी प्यास....! - समापन किश्त

वसंत-पतझड़
हॉल में काफी गहमा-गहमी थी। स्टेज पर चलने वाले कार्यक्रमों की तरफ किसी का भी ध्यान नहीं था। हर कोई अपने पुराने दिनों को पुराने रिश्तों और दोस्तों के बीच जिंदा कर लेना चाहता था। पता नहीं सलोनी को क्यों उम्मीद नहीं थी कि तन्मय आएगा। और तन्मय को भी ये उम्मीद नहीं थी कि सलोनी आएगी। लेकिन कोई आस तो होगी, तभी तो दोनों इस अलम्नाई मीट में आए थे। तो जब तन्मय संजना के हस्बैंड से बात कर रहा था, तभी उसकी नजर गेट की तरफ पड़ी थी। सलोनी... पीली कांजीवरम में...। पता नहीं कैसे कदम उसी ओर बढ़ गए। ये बेखुदी थी... तो क्या दूरियों में भी कुछ ऐसा रह जाता है, जो दिल की तरह ही लगातार धड़कता रहता है, लेकिन हमें उसकी इतनी आदत होती है, कि हम उसका धड़कना महसूस ही नहीं कर पाते। वो बहुत बेखयाली में वहाँ पहुँच तो गया था, लेकिन सामने जाते ही समझ नहीं पाया कि क्या करे तो थोड़ी दूर ही ठिठक गया...। सलोनी ने आगे बढ़कर उसे बाँहों में ले लिया। तन्मय के अंदर कुछ पिघलकर बह निकला।
कितने सालों बाद... – वो बुदबुदाया था, लेकिन सलोनी ने सुन लिया था।
पंद्रह... – वो उसी तरह खिलखिलाई थी। - देखो अभी तक सेंसेज वैसे ही हैं।
तुम... सचमुच नहीं बदली। अभी भी वैसी ही हो।
क्यों... ?- उसने आँख मारकर पूछा था – बदल जाना चाहिए था?
तन्मय ने थोड़ा झेंपते हुए कहा था – पता नहीं, लेकिन इतने सालों में सब बदल जाते हैं। तो यही एक्सपेक्टेड होता है ना... ?
वो फिर खुलकर हँसी। - और यदि ऐसा नहीं हो तो... – सीधे आँखों में झाँका था। - निराशा होती है... ? – जवाब का इंतजार किया थोड़ी देर, फिर बोली - तुम भी तो नहीं बदले। - फिर थोड़ा हट कर उसे तौलती नजरों से देखा, फिर बोली – पहले ही बड़े-बड़े लगते थे, अब थोड़ा और बड़े लगने लगे हो... ।
धीरे-धीरे सारे दोस्तों ने आकर उसे घेर लिया। अकेली आई हो? – राजवीर ने पूछा था।
नहीं... अनिरुद्ध और बिहाग भी है, दोनों आ रहे हैं।
दिनभर दोस्तों से मिलने का क्रम चलता रहा। शाम को कल्चरल प्रोग्राम था, स्थानीय वोकल क्लासिकल आर्टिस्ट गाने वाले थे। अनिरुद्ध और बिहाग ने सलोनी से अलग अपना प्रोग्राम बनाया था। रात के खाने के बाद कैंपस के लॉन में ही सारे पुराने दोस्त जमा हुए थे। अलग-अलग गुजरे अपने वक्तों की जुगाली करते हुए। तभी राहुल ने गाना शुरू किया था – हम हैं राही प्यार के हमसे कुछ ना बोलिए...। धीरे-धीरे सभी उसके गाने में शामिल होते चले गए और फिर ये सामूहिकता सोलो गानों की माँग में बदल गई। सलोनी और प्रियंका साथ में बैठी थीं। सलोनी ने ब्लैक कलर का सलवार कमीज पहना था। तन्मय ने उसे पहली बार ब्लैक कपड़ों में देखा था, वो सोचने लगा था कि उन दिनों सलोनी ब्लैक कलर क्यों नहीं पहनती थी, जबकि उस पर ये रंग अच्छा लग रहा है। अरे...! कभी मुझे भी तो नहीं सूझा कि मैं उससे पूछूँ कि तुमने काले रंग को क्यों छोड़ रखा है, जबकि रंगों के प्रति तो यूँ भी सलोनी बड़ी खुली थी। राजबीर ने सीटी से आए तुम याद मुझे गाना शुरू किया।
प्रियंका ने सुनाया ओ सजना बरखा बहार आई.... तन्मय सोच रहा था, सलोनी क्या गाएगी और कैसा, क्योंकि इससे पहले कभी सोचा ही नहीं कि सलोनी गाती होगी, गा सकती होगी या कैसा गाती होगी...? सलोनी ने सुनाया – एक ख़लिश को हासिल-ए-उम्र-ए-रवां रहने दिया/ जानकर हमने उन्हें नामेहरबां रहने दिया.... तन्मय कहीं डूब गया, सलोनी का गला तो मीठा है, लेकिन वो सुरीली भी है, ये आज पता चला। वो सोच रहा है कि हम समझते हैं कि हमने किसी को पूरा जान लिया, लेकिन ये बड़ा भ्रम होता है, क्योंकि जान लेना अभी है, जबकि हर क्षण कुछ नया जुड़ता-बढ़ता या घटता है। फिर क्या किसी का होना क्या इतना ही होता है कि अपनी समझ के दायरे में समा ही जाए? हम अपने होने को खुद भी नहीं जान पाते हैं.... ये तुम ही कहती थीं ना सलोनी.... फिर वहीं आकर अटक गया वो ...। तन्मय की बारी आई तो उसने सबको सैड कर दिया बीते हुए लम्हों की कसक साथ तो होगी... गाकर। तन्मय के खतम करते न करते तपन ने शुरू कर दिया - ओए तू रात खड़ी थी छत पे नी मैं समझा के चाँद निकला... और सारे ही झूमने लगे। वक्त गुजर रहा था, सबने एक-दूसरे का पता लिया, कांटेक्ट नंबर लिए और फिर से मिलने का वादा किया, सब अपने-अपने रास्ते चले गए। सलोनी पता नहीं किस चीज का इंतजार कर रही थी और तन्मय भी।
रात बहुत घनी हो गई थी। सलोनी थोड़ा आगे बढ़ी तो सूखे पत्तों की चर्रमर्र हुई। तो... – तन्मय ने उसकी तरफ देखा। सलोनी ने हाथ आगे बढ़ाया और तन्मय ने थाम लिया। दोनों साथ-साथ चलने लगे। तुमने मुझे अपना कांटेक्ट नंबर नहीं दिया – तन्मय ने बहुत सहजता से पूछा।
सलोनी ने सुबह वाली मुस्कान बिखेर कर कहा – मैंने लिया भी तो नहीं...!
उसे ध्यान आया, अरे हाँ... – तो ले लो...
नहीं, मन... वो सब इसलिए नहीं हुआ था कि फिर बूँद-बूँद खुद को भरते रहे। - वो बहुत गंभीर थी।
हुआ नहीं था, किया था... – तन्मय न चाहते हुए भी तल्ख हो गया था।
ठीक है, किया था, और मैंने ही किया था। क्या तुम्हारी जिंदगी में अब भी कुछ कम है? - उसका हाथ तन्मय के हाथ में पसीज रहा था। - बहुत सोचकर जवाब देना।
कभी-कभी लगता है, हाँ है...
और अक्सर....
अक्सर तो... – तन्मय हड़बड़ा गया
रस्ता ही रस्ता है, हँसना है न रोना है, यही ना... ! – सलोनी ने उसकी बात पूरी की।
तन्मय जवाब नहीं दे पाया, लेकिन उसने सलोनी के चेहरे की तरफ देखा। वो गर्दन झुकाए थी, कुछ बचा रही थी या फिर ...?
हाँ, कहो... क्योंकि यही सच है। मन, .... मैं नहीं चाहती थी कि हम एक-दूसरे की जीवन में बस यूँ ही रह जाए। रूटीन की तरह... बिना किसी उष्मा, गर्माहट या फिर तड़प के...।
लेकिन हम अब भी ऐसे ही हैं ना... मैं आरती के साथ और तुम अनिरूद्ध के साथ... ? – तन्मय ने जान-बूझकर चोट की थी।
हाँ, यही तो... यही तो मैं नहीं चाहती थी कि जो उन्माद वैसे जिया है, वो रूका हुआ पानी हो जाए। हम एकदूसरे को जब भी याद आते हैं, तब तीखी तड़प महसूस होती है.... होती है ना...! – सलोनी तन्मय के बिल्कुल सामने आ खड़ी हुई। वो हड़बड़ा गया।
हाँ... – एकाएक उसका मन हुआ कि सलोनी को बाँहों में ले लें, लेकिन फिर रूक गया।
बस... क्योंकि याद... ख्वाहिश... और उम्मीद, यही तो वो चीजें है, जिनके सिरे पकड़कर जिंदगी रंग-बिरंगी होती है, हर दिन नई होती है। पता है, सपने पूरे हो जाने का मतलब है उनका मर जाना। जिंदगी कभी मरती नहीं है, हर मरे हुए सपने की कब्र पर एक नया सपना जन्म लेता है। मैं तुम्हारी जिंदगी में मरा हुआ सपना बन कर नही रहना चाहती थी, और न ये चाहती थी कि तुम्हारे साथ ऐसा हो...। – उसका गला रूँध गया, वो चुप हो गई।
लेकिन इसकी कितनी बड़ी कीमत दी है, मैंने, तुमने सोचा है? कितनी रातें, कितने मौसम...
तो क्या मैं इससे अलग रही?- सलोनी ने बीच में से ही बात लपक ली।
बहुत देर तक दोनों ही चुपचाप चलते रहे। रात गुजरती जा रही थी और दोनों अँधेरे के बीच अपने-अपने जज्बातों को कुछ खोलते, कुछ छुपाते एक-दूसरे का हाथ थामे चलते रहे। एकाएक वो उनींदे अँधेरे से निकलकर सड़क की धुँधली-शांत रोशनी में आ खड़े हुए। कैम्पस से निकलकर मुख्य सड़क पर... यहाँ दूर-दूर तक शांति थी। सूनी-सी सड़क के दोनों ओर जल रही स्ट्रीट लाइट और दूर-दूर तक फैला सन्नाटा...।
सलोनी ने ही चुप्पी तोड़ी – मन... सोचो, यदि हम पति-पत्नी होते तो बच्चों की पढ़ाई, उनका भविष्य, तुम्हारे भाई की शादी, मेरी माँ की बीमारी, हमारे भविष्य की प्लानिंग, राशन की किटकिट, बिजली का बिल, टेलीफोन का बिल, मकान की किश्त, हमारे ईगो, हमारे सामाजिक संबंध, रसोई गैस के खत्म होने से लेकर ट्रांसफर या फिर प्रमोशन जैसी कितनी गैर-जरूरी चीजों से हमारा सरोकार हो जाता और मूल चीज कहीं हाशिए पर चली जाती। सपना मर जाता.... हम बस सामाजिक संबंधों के दायरे में कैद हो जाते, ख्वाहिशें मर जाती और हकीकत ही हमारे बीच रह जाती। अभी हम ये सोच तो सकते हैं कि यदि हम साथ होते तो कैसा होता... तब हो सकता है, हम ये सोचने की बजाए शायद ये सोचते कि ये यदि ये नहीं होता तो हमारा जीवन कैसा होता... यदि साथ रहते हुए हम ये सोचते तो कितना बुरा होता... सोचो....।
मुझे पता नहीं है, शायद तुम ही सही हो, लेकिन दिल कहता है कि यदि वैसा होता तो हम उसे मरने नहीं देते, दिमाग कहता है कि रूका पानी हर हाल में सड़ता ही है... मैं अभी निश्चित नहीं हूँ, कि तुम सही हो। - तन्मय ने जवाब दिया।
और मेरे सही या गलत होने को लेकर क्या कहना है आपका... – सलोनी फिर मस्ती में लौट आई।
तुम गलत हो.... – तन्मय ने हाथ की पकड़ कड़ी कर कहा।
तो... माफ कर सकते हो?
कर दिया यार... माफ करना भी मजबूरी है, प्यार जो... - तुरंत सलोनी ने उसके होंठों पर हाथ रखकर उसे रोक दिया। दोनों चलते-चलते शहर के उस होटल के नीचे आ खड़े हुए जहाँ सलोनी ठहरी हुई है।
दोनों एक दूसरे के सामने थे। तन्मय जानता था कि अब पता नहीं कब मिले, मिलें या कि नहीं मिले। - केन आई हग यू...? – तन्मय ने पूछा था
सलोनी ने बाँहें फैला दी... – अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिले... वो बुदबुदा रही थी। तन्मय की आँखों में पानी तैरने लगा था। वो देख नहीं पाया कि सलोनी की आँखों में भी वही उतर गया था। दोनों अलग हुए, सलोनी तेजी से सीढ़ियाँ चढ़ गई... तन्मय ने उसे आखिर तक जाते हुए देखा और फिर उस सूनी सड़क पर चल दिया... जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिले... सलोनी की छोड़ी हुई लाइन को गुनगुनाते हुए।
समाप्त
कहानी का मॉरल सूत्र – 85
जिंदगी प्यास है, तृप्ति मौत

Tuesday 19 April 2011

भरीपूरी प्यास...! - 8

करीब साल भर बाद तुम्हारा एक लेटर मिला था, जिसमें तुमने अपना पक्ष रखा था और कहा था कि – ‘हमने रिश्ते को शिद्दत से जिया है और हम अब इसे एक मीठी कसक और मधुर याद के साथ अपने साथ रखें। बस इतना ही मैंने चाहा था, यदि ये गलत है तो फिर मुझे माफ कर देना, क्योंकि मुझे यही सही लगा था।‘
मेरे लिए तुम्हारे इस पत्र का कोई औचित्य ही नहीं बचा था, तुम मुझे अकेला छोड़कर चली गईं थी, अपनी जिद्द और कथित सपनों के लिए। बहुत साल मुझे तुमसे शिकायत रही, लेकिन उसका फायदा क्या रहा, तुम्हारे बारे में बाद में मुझे कभी कुछ भी सुनने को नहीं मिला। बल्कि यूँ कहूँ कि हकीकत ये है कि मैंने ही तुम्हारे बारे में जानने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। मैंने वो शहर हमेशा के लिए छोड़ दिया और फिर कभी-कभी पलट कर वहाँ नहीं गया। बल्कि मैंने हर उस शख़्स से अपना रिश्ता तोड़ दिया, जो कभी तुमसे जुड़ा हुआ था। आज मैं तुम्हें याद कर रहा हूँ, क्योंकि मैं स्थिर हो गया हूँ, अब तुम मुझे जब भी याद आती हो, बहुत मीठा-सा कुछ लगने लगता है। शायद उम्र ने सारी कड़वाहट धो डाली है। सुनो लूनी गज़ल चल रही है – तुम भी उस वक्त याद आते हो, जब कोई दूसरा नहीं होता...। अब तो यूँ भी सब कुछ ठहर गया है, शायद इसलिए यादों की जुगाली ही बाकी रह जाती है, भविष्य में कुछ होता नहीं और वर्तमान पूरी तरह से ठहरा हुआ है...। कभी-कभी मैं भी तुम-सा हो जाता हूँ, सच अब भी...। उम्र के फासलों के इस पार फिर मैं वही मैं हो जाता हूँ और तुम वही तुम...। सारा गुजरा वक्त कहीं गुम हो जाता है, मेरी दुनिया जो दिखाई देती है, वो भी कहीं अदृश्य हो जाती है, तुम्हारी दुनिया का तो मुझे कोई पता ही नहीं है तो वो तो कोई मसला ही नहीं है, तुम वैसी ही बेलौस, बिंदास और खुली हुई-सी मेरे साथ होती हो, जैसी हुआ करती थी। मेरा दिमाग कहता है कि तुम सही थी, क्योंकि तुमने वो देखा था, जिसे मैं नहीं देख पाया। तुम्हें मैं किसी भी तरह याद कर सकता हूँ, जी सकता हूँ, साथ हो सकता हूँ। साथ होती तो शायद ये संभव नहीं हो पाता..., लेकिन दिल नहीं मानता है। वो कहता है तुमने अपनी जिद्द को जिंदा रखने के लिए मेरे साथ खिलवाड़ किया है, पता नहीं कौन सही है?
क्रमशः

भरीपूरी प्यास....! - 7

और... और यही वो दिन थे, जब तुमने कहा था कि – अब हमें इस खूबसूरत सपने को अपनी यादों में जिंदा रखना है।
मैंने चौंक कर पूछा था – क्या मतलब है इस बात का? – उस वक्त मेरा प्लेसमेंट हो चुका था, मुझे दो महीने बाद सिंगापुर जाना था औऱ मैं तुमसे शादी करके तुम्हारे साथ जाना चाहता था, मैं तुम्हें ये बता भी चुका था, लेकिन तुम... तुम्हारे अंदर पता नहीं क्या चल रहा था?
मतलब... बिल्कुल साफ है... प्यार रात का सपना है, यदि उसे शादी में कंवर्ट कर दो तो वो टूट जाएगा। न वो बचेगा न उसकी खुशनुमा यादें... हम शादी में कंवर्ट करके उसे सड़ा नहीं सकते हैं। - तुमने कहा था।
मतलब तुम मुझसे शादी नहीं करना चाहती हो? – मैं तिलमिला गया था।
नहीं... – तुमने कहा था, आँखों में आँसू उतर आए थे, तुम्हारी, फिर भी तुम दृढ़ थीं।
मैंने एक तरह से तुम्हारी चिरौरी की थी, - मैं तुम्हारे पापा से बात कर लूँगा ना... हैव फेथ ऑन मी।
नहीं... मैं तुमसे शादी करना ही नहीं चाहती... – तुमने बहुत संयत होकर कहा था
मुझ पर पागलपन सवार होने लगा था। - क्यों – मैं लगभग चीखने लगा था - तुम मुझे क्या समझती हो? क्या मैं खिलौना हूँ, जब तक तुम्हें मेरा साथ अच्छा लगा मेरे साथ रही, फिर एकाएक एक दिन कह देती हो कि अब बस...। मैडम ये फैसला तुम अकेली नहीं ले सकती हो...।
तुम बहुत संयत होकर सुनते रही। कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, मैं बहुत देर तक चीखता रहा और फिर थककर चुप हो गया। तुम्हें पता है, वो शायद पहली और आखिरी बार हुआ है कि मुझे तुम्हारे कपड़ों का रंग याद नहीं है।
थोड़ी देर बाद तुम खड़ी हो गई... मैं अपना सिर पकड़कर तुम्हारे सामने बैठा था, मुझे नहीं पता चला कि तुम खड़ी हो गई हो, तुमने कहा – तो ठीक है, शादी का फैसला भी तुम अकेले नहीं ले सकते हो..., मैं नहीं करना चाहती हूँ, अब बोलो तुम क्या करने वाले हो?
मैं अवाक था... और अब मजबूर भी... लेकिन क्यों? आई प्रॉमिस मैं कुछ भी नहीं सड़ने दूँगा, कुछ भी नहीं टूटने दूँगा। भरोसा तो रखो...
नहीं...- फिर तुमने सीधे मेरी आँखों में झाँका और कहा – तुम चाहो तो मुझे भोग सकते हो...
मेरे बदन में आग लग गई। चेहरा लाल हो गया और कान तपने लगे, मैं झटके से खड़ा हुआ और तुम्हें जोर से धक्का दिया और तेजी से वहाँ से चला गया। फिर कभी मैंने पलट कर तुम्हें नहीं देखा न ही तुम्हारे बारे में जानना चाहा और न ही सुनना...।
क्रमश:

Monday 18 April 2011

भरीपूरी प्यास....! - 6

मुझे याद है उन दिनों तुम अक्सर प्रेरणा मैम की क्लास बंक करके घर चली जाती थी। तुम बस शाम तक अपने घर पहुँच जाना चाहती थी, और सर्दियों में तो यूँ भी शाम बहुत जल्दी होती थी और छोटी भी… तो लगभग हर दिन सवा तीन वाली क्लास बंक करके चली जाती थी, एक दिन जब पिछले रास्ते से तुम जा रही थी, तभी प्रेरणा मैम सामने पड़ी थी और उन्होंने तुमसे पूछा था – सलोनी तुम मेरी क्लास में क्यों नहीं आ रही हो...?
और तुम्हारे पास कोई जवाब नहीं था, तुम हड़बड़ा गई थी और तुमने कहा था – क्योंकि शाम जल्दी हो जाती है... और प्रेरणा मैम सहित सारे ही ठहाके मार कर हँस दिए थे। कभी-कभी तुम्हारी बातें बड़ी अजीब हुआ करती थीं, तुम कहती थीं कि तुम्हें शाम इसलिए पसंद हैं, क्योंकि वो उदास करती है... तो क्या उदास होने के लिए तुम बेचैन हुआ करती थी? उस दिन सेमिनार का आखिरी दिन था और शाम को संजुक्ता पाणिग्रही का ओडिसी था... हाँ ओडिसी..., जिसे मैंने कथक कह दिया था और तुमने मेरे सिर पर एक चपत लगाई थी... कथक नहीं, ओडिसी...। मैंने भी लापरवाही से कहा – हाँ क्या फर्क पड़ता है, दोनों ही तो डांस हैं...
तो तुमने सीधे मेरी आँखों में आँखे डाल कर सवाल किया था – सचमुच फर्क नहीं पड़ता...? स्मिता या मैं... दोनों ही तो लड़कियाँ हैं? मुझे नहीं पता था कि तुम्हें कहाँ और कब ऐसा लगा था कि मैं तुमसे सचमुच प्यार कर बैठा हूँ... स्मिता के बावजूद...।
उस दिन सेकंड सैशन से निबटते-निबटते ही चार बज चुकी थी, तुम्हारा घर जाना और लौटकर आना संभव नहीं था... उस दिन मैंने पहली बार तुम्हें शाम को देखा था और शायद पहली ही बार उदास होते भी। टी-ब्रेक के बाद हमारा काम यूँ भी खत्म हो जाया करता था, इसलिए सब इधर-उधर हो गए थे... तुम भी... थोड़ी देर तो मुझे अहसास ही नहीं हुआ था, लेकिन जब याद आया कि आज तुम घर नहीं जाने वाली हो तो, तुम्हें ढूँढना शुरू किया। तुम फूड टेंट के पीछे एक कुर्सी लगाकर बैठी थी, मैं जब तुम्हें ढूँढता हुआ वहाँ पहुँचा तो एकाएक मुझे लगा कि – तुम पूरा-का-पूरा आसमान ओढ़े बैठी हो... हालाँकि तुम्हारे कपड़ो का रंग गहरा आसमानी... नहीं डार्क ब्लू था, फिर भी... तुम्हारी आँखों में शाम उतर आई थी... गीली-सीली-सी...। और जब मैंने आकर तुम्हें जगाया था, तब तुम बुरी तरह से खिन्न नजर आई थी... क्या हुआ? – मेरे पूछने पर तुमने कुछ भी नहीं कहा था, बस ‘कुछ नहीं’ में गर्दन हिला दी थी।
तुम कभी-कभी बहुत अजीब तरीके से बिहेव करती थी... उस दिन मैंने तुम्हें बहुत उदास पाया था... बहुत-बहुत, इतना कि मैं डर गया था। आखिर तुम्हें तो मैंने कभी भी उदास नहीं देखा था। मैं बहुत असमंजस में था कि क्या कहूँ, कैसे कहूँ? तुम्हें इस उदासी से कैसे बाहर निकालूँ? कि देखता हूँ कि थोड़ी ही देर बाद तुमने चहक कर कहा था – कितना अच्छा लग रहा है ना मन...? और मैं तुम्हारे चेहरे को पढ़कर जानने की कोशिश कर रहा था कि क्या सचमुच तुम्हें अच्छा लग रहा है या फिर तुम मुझे बहला रही है, लेकिन तुम्हारा चेहरा उस वक्त पूरी तरह से पारदर्शी था, चमक रहा था उस अच्छे लगने से जिसे अभी-अभी तुमने कहा था।
क्रमशः

Sunday 17 April 2011

भरीपूरी प्यास...! - 5

सर्दी
शाम को मैं ऑफिस से जल्दी घर आ गया था, थोड़ा बुखार-सा लग रहा था तो डॉक्टर से दवा लेता हुआ पहुँचा था। आरती पीहू को लेकर अपनी माँ के घर गई हुई हैं, तो खुद ही बीमार और खुद ही तीमारदार होना है। मैं पहुँचा तो कुसुम खाना बना रही थी, उससे खिचड़ी बनवाई, खाई और दवा लेकर जल्दी ही सो गया। तेज बुखार से बदन दर्द कर रहा था। दवा के असर होने तक तो दर्द में पूरी तरह से डूब ही चुका था। पता नहीं रात का कौन-सा समय रहा होगा, जब तेज गर्मी और पसीने के साथ बुखार उतर गया और दर्द भी चला गया। तेज दर्द के बाद की राहत और कड़े परिश्रम से पाई सफलता की अनुभूति एक-सी ही होती है। एक धुला-पुँछापन होता है, कुछ गरिमा से सह लिए जाने का गौरव... खुद को प्रति विश्वास और आस्था के साथ ही बड़ा सात्विक-सा अहसास होता है... अरे...! ये सब कहाँ से आ रहा है... ओह लूनी... ये तुम हो।
खासी ठंड के बीच सुबह से ही बादलों का जमघट था। ऑफिस से छुट्टी ले रखी थी। जब कुसुम आई तो उससे तेज अदरक वाली कड़क चाय बनवाई और खिड़की के पर्दे खोल दिए। बारिश शुरू हो चली थी। ऐसा भी कब होता है? दर्द से निकलने के बाद गहरी, सात्विक शांति... साफ-सुथरा और उदास-सा सौंधापन... तुम अक्सर कहती थी, बीमारी के बाद हम बिल्कुल नए हो जाते हैं... नए-नकोर... सब पुराना जो हमारे अंदर जंक होता है, बह जाता है और जो काम का होता है, वो भी धुल-पुँछकर चमकने लगता है। सच तुमसे अलग होने के बाद आज पहली बार उसे मैं ठीक उस तरह से महसूस कर पा ऱहा हूँ, जिस तरह से तुमने कहा है। कितनी अजीब तरह का पागलपन था तुम्हारे अंदर ... पता नहीं कहाँ हो और उस पागलपन का क्या करती होगी? कभी-कभी खुद से ही पूछता हूँ – क्या वो आँच अब भी तुम्हारे चेहरे पर नजर आती है? क्या कोई आग अब भी तुम्हारे अंदर दहकती है?
मुझे याद आ रहा है जब हम सब अपने प्रोजेक्ट से सिलसिले में राहुल के गाँव गए थे। यही दिन थे, राहुल ने हमें अपने और अपने रिश्तेदारों के खेत दिखाए। हम सब खेत में ही मटर खा रहे थे, तब तुमने पूछा था – तुम्हारे गाँव में कोई फूलों की खेती करता है?
हम सबने एक साथ पूछा था – फूलों की खेती...!
हाँ
राहुल ने जबाव दिया था – हाँ एक परिवार करता है, लेकिन हम उस तरफ नहीं जाते हैं, कुछ पारिवारिक झगड़े हैं।
लेकिन मुझे वो खेत देखना है, क्या वो रजनीगंधा लगाते हैं? – तुम अब जिद्द पर आ गई थी।
हाँ, शायद...- राहुल ने जवाब दिया था।
तब तो मुझे उस खेत में जाना ही है। हम सबने तुम्हें बहुत समझाया, लेकिन तुम अपनी जिद्द पर अड़ी रही। तुमने कहा - ठीक है, मैं खुद ही उन लोगों से मिल लूँगी। और... और तुम गईं थीं वहाँ... औऱ जब लौटी थी तो हाथ में रजनीगंधा के स्टिक्स लेकर... बिल्कुल बौराई-बौराई सी। और फिर... जब उनका लड़का शहर आया था, तब तुमसे मिलने कॉलेज भी आया था और ... तन्मय को हँसी आ गई थी। फिर वो बार-बार तुमसे मिलने आने लगा था, तुम खीझी भी थी दो-एक बार लेकिन उसका आना बंद नहीं हुआ था। जब मैंने तुमसे कहा था कि वो तुम पर चांस मार रहा है तो तुम कितने दिनों तक मुँह फुलाए रही थी...? बोलो लूनी क्या तुम उन दिनों का हिसाब मुझे दो सकती हो...? अचानक तन्मय उदास हो गया, फिर मैंने भी तुम्हें मनाने की कोशिश कहाँ की... तुम ही क्यों मेरे पास भी तो उन दिनों का हिसाब नहीं है।
क्रमशः

भरीपूरी प्यास....! - 4

होली के एक दिन पहले की याद है, मुझे रंग पसंद है, इसलिए होली भी। अगले दिन तो कॉलेज बंद होना था, इसलिए एक दिन पहले सुबह जल्दी उठ गई थी। बिल्डिंग के बच्चों को चॉकलेट का लालच देकर गुब्बारों में पानी भरवाया था। भाभी के बड़े से शॉपिंग बैग में सारे गुब्बारे रखकर मैं ऑटो से कॉलेज पहुँची थी। कॉरीडोर में ही तुम, आस्था, तपन, संजना, प्रतीक राजबीर और रोशनी दिखे थे। ऑटो वाले को पैसे दिए और अपने बैग में से गुब्बारे निकाल-निकाल कर मैं फेंकने लगी थी। इस काम में मैं इतनी मशगूल हो गई थी कि मुझे ये भी ध्यान नहीं रहा कि सामने से डॉ. त्रिपाठी तेजी से चले आ रहे हैं और रोशनी पर गुब्बारे का निशाना साधा तो डॉ. त्रिपाठी को लगा... वे एकाएक तमतमा गए... मुझे डर लगा... पता नहीं क्या कहेंगे। कितने सख्त तो थे वे... उनकी क्लास में बैठते हुए मुझे तो हमेशा डर लगता था, क्योंकि क्लास में बैठे हुए भी मेरा ध्यान पता नहीं कहाँ-कहाँ हुआ करता था। और वो पता नहीं कैसे ताड़ लेते थे कि आपका ध्यान क्लास में नहीं है। और मैं पता नहीं कितनी बार पकड़ाई में आई कि वो मुझसे चिढ़ने लगे थे... तो अब... ! तभी तुम तेजी से लपकते हुए उनके पास गए और अपने हाथ तो पीछे कर मुझे भी इशारे से बुलाया। तुमने उनके पैर छुए... सर होली के लिए अग्रिम शुभकामना... और फिर मुझे भी आँखों के इशारे से उनके पैर छूने का आदेश दिया। डॉ. त्रिपाठी नर्म हो गए थे खूब सारे आशीर्वाद दिए थे, तुम्हें तो खैर... लेकिन मुझे भी।
मन... तुम जानते हो, मुझे उस क्षण लगा कि काश तुम मेरे पिता-बड़े भाई होते... कितनी बार और कितने सालों तक मैंने तुममें अपने सिर पर तनी छत की तरह का आश्वासन पाया था। कितनी ऊष्मा... कितना गहरा आश्वासन...बस होने-करने की आजादी... बिना किसी तरह के सवाल-जवाब के... बिना डर, बिना अपराध के अहसास के... तुम गलती करो... मैं हूँ ना संभालने के लिए। अदृश्य सीमाओं से परे के आसमान को नाप पाने की सहूलियत क्या होती है, वहाँ उलझने से बिना डरे करने की आजादी.... बस तुम ही दे सकते थे। पता नहीं तुमने कभी महसूस किया या नहीं, बस इतना-सा आश्वासन ही आपको कैसे सहज-सरल औऱ तरल कर देता है, कितने बच्चों को मिल पाता है? मुझे नहीं मिल पाया। बहुत सारे लोगों की इज़्ज़त और विश्वासों के बोझ को लेकर एक लड़की कैसे गलतियाँ कर सकती है? यूँ भी लड़कियों की गलती तो हमेशा-से ही अक्षम्य होती है। मतलब गलती करने की गलती तो वे कभी कर ही नहीं सकती, हमेशा ही अच्छी लड़की के सिंड्रोम से ग्रस्त मैं... पता नहीं कहाँ-कैसे तुम्हारे प्यार में बुरी लड़की होती चली गई थी।
क्रमशः

Friday 15 April 2011

भरीपूरी प्यास....! -3

गर्मी
बहुत दिनों बाद सलोनी को ऐसी छुट्टी और ऐसा अकेलापन मिल पाया है। फागुन की शुरुआत है, लंबी-सी शाम को सलोनी ने इसी छोर से थाम लिया था। छत पर अपनी आराम कुर्सी पर आकर बैठी, चाय का कप... धीमी सी आवाज में चल रहा संतुर... पश्चिम की ओर उतरता सूरज और उसकी नर्म पड़ती धूप, हल्की शॉल सा गुनगुनापन बिखेर रही थी। शाम होते-होते तक सूरज की सारी तल्खियाँ झर गईं थीं, किरणों के ताप के गिर जाने से वो एक सिंदुरी रंग की बॉल सा नजर आ रहा था, उसका रंग बिल्कुल वैसा लग रहा था, जैसा उस दिन मैंने पहना था, जब तुमने मुझसे कहा था कि – मुझे हमेशा ऐसा लगता है लूनी कि तुम रंगों को नहीं रंग तुमको पहनते हैं।
मुझे पहली बार लगा था कि तुम भी मुझे प्यार करने लगे हो, वैसा ऐसा कुछ नहीं था मुझमें कि तुम्हें मुझसे प्यार हो जाए। लेकिन प्यार में कहाँ तर्क चल पाते हैं। इससे पहले तक तो मैं ये भी नहीं जानती थीं कि तुम्हारी जिंदगी में मैं कहाँ हूँ, क्या हूँ? आखिर तुम्हारी जिंदगी में स्मिता जैसी परी थी, जिसके साथ जब भी मैं तुम्हें देखती थी तो मुझे पता नहीं क्यों तुम पर दया आया करती थी, क्यों...? पता नहीं। शायद इसलिए कि स्मिता की वजह से सारे लड़के तुमसे खार खाए हुए नजर आते थे, और खुद स्मिता... हो सकता है, ये गलत हो, लेकिन मुझे हमेशा लगता था कि वह खुद को प्रिंसेस की तरह प्रेजेंट करती थीं और तुम उसके ग़ुलाम... माफ करना, जैसे रज़िया सुल्तान का प्रेमी याकूत...सलोनी मुस्कुराने लगी थी।
शायद यही दिन थे, वो... तुम और मैं लायब्रेरी में ही बैठे थे, सब जा चुके थे और बाहर निकले तो सूनी सड़कें मिली थी। शाम बस उतर ही रही थी। तब मैंने तुम्हें कहा था कि तुम स्मिता के साथ याकूत की तरह लगते हो... मैंने रात को ही फिल्म देखी थी और तुमने शायद पहले ही देख रखी थीं... तुम झपटे थे मुझ पर, तेज गुस्से में... मेरा पैर उलझा था और मैं धड़ाम से गिरी थी पगडंडी से घास के मैदान पर... पीठ के बल... पता नहीं क्या वजह रही थी, सब कुछ इतना अप्रत्याशित हुआ कि गिर जाने से झटके से या फिर चोट लगने की वजह से भौंचक थी और मुझे रोना आ गया था। बड़े-बड़े आँसू निकल आए... तभी तुमने मेरी आँखों से गिरने वाले आँसुओं को अपने होंठों में समेट लिया और मेरा सिर तुम्हारी छाती से टिक गया...। थोड़ी देर तक हम वैसे ही रहे। मैं वैसे ही सिसक रही थी और तुम इतने फनी तरीके से मुझे मना रहे थे, जैसे बच्चों को मनाया जाता है। चॉकलेट... ओके आइसक्रीम... और मैं हँसी रोककर झूठमूट गुस्सा हो रही थी फिर मैंने जिद करते हुए कहा था नहीं बर्फ का गोला...। तुम्हारे चेहरे पर बहुत बुरे भाव उभरे थे और उसी में तुमने मुझे झिड़का था – बर्फ का गोला? पागल हुई हो क्या? पता भी है उसमें सैकरीन होता है,...
हाँ...हाँ पता है और ये भी पता है कि उससे गला खराब होता है... लेकिन मुझे वही खाना है। - मैंने फिर रूठने का नाटक करते हुए कहा था।
ओके...- तुमने हथियार डाल दिए। - लेकिन कहाँ मिलेगा...?
कैंपस में तो मिलने का सवाल ही नहीं उठता है। लेकिन कभी-कभी नियति भी हमें सरप्राइज कर देती है। हमें एक बर्फ के गोले वाला साइकल पर आते हुए मिला। वो भी यूनिवर्सिटी के पार्क के बाहर वाले रास्ते पर...। मैंने पूछा तुम लोगे... तुमने फिर बुरा-सा मुँह बनाया – नहीं, मैं नहीं खाता।
मैं जानती थी कि तुम ना ही कहोगे। तुम तो आइसक्रीम खाओगे... मटके की कुल्फी भी तुम्हें कहाँ पसंद आएगी। मैंने तुम्हें कहा था – मुझे बर्फ का गोला खाना इसलिए भी पसंद है क्योंकि जिस रंग का गोला हम खाते हैं ना होंठों का रंग वैसा ही हो जाता है।
तुमने मुझे कहा था – तुम कितनी बच्ची हो... ?
तो... मैंने तमककर पूछा था, क्या बच्चा होना बुरा है?
तुमने बाँहों में घेर लिया था। मैंने उससे ऑरेंज और खस बनाने को कहा। तुम बहुत आश्चर्य से मुझे देख रहे थे। हम गोला लेकर पार्क के अंदर आ गए। मैंने तुमसे पूछा भी था – हैव...?
लेकिन तुम वैसे ही बने हुए थे... मैंने चिढ़ाया था – बुड्ढे... तुमने मुझे भींच लिया था।
मैंने बड़े मजे से चुस्की ले-लेकर गोला खत्म किया। ये देखने के लिए कि अब होंठो का रंग कैसा हो गया है उन्हें थोड़ा आगे किया और आँखों की पुतलियों को नीचे झुकाया... तभी तुमने झटके से मेरे होंठो को चूम लिया था और मैं बुरी तरह से हड़बड़ा गई थी। पता है मैं तुम्हें कभी कह नहीं पाई कि तुमने कितनी बार मुझे चौंकाया है।
क्रमशः

Thursday 14 April 2011

भरीपूरी प्यास....! - 2

कितनी अजीब बात है, हम एक-दूसरे की धड़कन की आवाज तक को चाहे पहचानते हो, लेकिन अहसासों के लिए हमें कहे हुए शब्दों पर ही भरोसा करना होता है और शब्द... उनकी भी तो सीमा है... गूँगे का गुड़... तुम्हीं से सुना था। उस दिन तो तेज धूप थीं, तुमने कहा था कि बारिश के दिनों में क्वांर जैसी तीखी धूप... सचमुच धरती गर्म हो रही है। हम बस स्टॉप पर खड़े थे, कैसा इत्तफाक था कि बस स्टॉप पर हम दोनों ही थे। बहुत देर से बस का इंतजार कर रहे थे, लेकिन कोई बस नहीं आ रही थी, वो तो बहुत देर बाद पता चला था कि शहर में कहीं बस-ऑपरेटरों और प्रशासन के बीच कुछ तनातनी हुई है, इसलिए तुरंत बसें चलना बंद हो गई थीं। तो एकाएक तेज अँधड़ चला और तीखी-जलाती धूप की जगह काले-भँवर बादल आकर बरसने लगे थे। तेज-तिरछी बौछारें बस स्टॉप के अंदर आकर हमें भिगो रही थी, एकाएक तुम स्टॉप से निकलकर खुले में पहुँच गई, मैं तुम्हें भीगते देख रहा था। गहरे बैंगनी रंग के कपड़े पहने हुए थे तुमने और एकाएक तुमने अपना हाथ मेरी ओर बढ़ाया था... मेरे अंदर मीठी-सिहरन दौड़ गई थी, मैंने तुम्हारा हाथ थाम लिया था और मैं भी तुम्हारे साथ भीगने लगा था... ये तो बहुत बाद में समझ में आया था कि तुम बहुत तरल हो, पानी की तरह, बिना किसी ग्रंथि के... बहती हुई। मेरे लिए तो दावत थी, लेकिन तुम्हारे लिए तो मात्र दाल-भात...। मेरी जगह कोई ओर भी होता, तब भी तुमने यही किया होता। जब हम फिर से बस स्टॉप पर आए थे तो तुमने कहा था… बारिश में भीगना... क्या सुख है, कितना... जैसे गूँगे का गुड़... बता ही नहीं पाए कि मीठा है औऱ कितना... !
हे भगवान, अब... तुम्हारी याद से ही नशा होने लगा है लूनी... ओह... तन्मय की आँखें भारी हो गई थी और उसने सीट पर ही खुद को स्ट्रेच कर आँखें मूँद ली थी। रेडियो चल ही रहा था... तेरा ना होना जाने... क्यूँ होना ही है, ना है ये पाना, ना खोना ही है...। मूँदी आँखों में पानी भर आया था, क्या सचमुच? तुमने ऐसी जिद्द क्यों की यार...? क्या बुरा होता यदि हम दोनों ही इस समय साथ होकर ये सुनते, महसूस करते... ? यूँ है तो सब कुछ, और सच पूछो तो ऐसी कोई खराश भी हर वक्त महसूस नहीं होती है, लेकिन जब होती है तो फिर सहने की सीमा के आखिरी सिरे पर होती है, बहुत कुछ तोड़-फोड़ कर देने का मन करता है और सबसे पहले गुस्सा तुम पर आता है.... क्यों किया ऐसा? क्यों.... क्यों?
क्रमशः

Tuesday 12 April 2011

भरीपूरी प्यास....!-1

बारिश
तन्मय जब ऑफिस से निकला था, तब लग नहीं रहा था कि इतनी तेज बारिश होगी। ठीक है कि बारिश के मौसम में यदि बारिश नहीं होगी तो कब होगी, लेकिन इतनी धुआँधार कि कुछ सूझ ही नहीं रहा हो, तभी तो उसे यहाँ अपनी गाड़ी खड़ी करनी पड़ी थी। बबूल के पेड़ के नीचे जिस वक्त उसने अपनी गाड़ी टिकाई थी, तब आसपास का नज़ारा धुँधला रहा था। गाड़ी पर तेज पड़ती बूँदों की टपर-टपर और शीशों पर जमती भाप... अपनी गाड़ी टिकाकर उसने अपने शरीर को थोड़ा रिलेक्स किया था ... उसे एकाएक सलोनी याद आ गई... यही मौसम था, सलोनी जब मैंने तुम्हें पहली बार मार्क किया था... हाँ देखा तो कई बार था, लेकिन उस दिन पहली बार मैंने तुम्हें बार-बार देखा औऱ देखना चाहा था, तुम मुझे उस दिन कुछ खास लगी थी, कितनी अजीब बात है कि लगातार चार साल साथ ऱहे फिर भी मैं तुम्हें ये बात बता नहीं पाया। हरे रंग के सलवार कमीज में लगातार हो रही बारिश में कॉलेज के लॉन की सीढ़ी पर तुम्हें भीगते देखकर एक-साथ पता नहीं क्या-क्या उभरा था। मैं कॉरीडोर में खड़ा था औऱ तुम कॉरीडोर की तरफ पीठ कर सीढ़ियों पर बैठी थी, बारिश में भीग रही थी ... तुम्हारी हिलती हुई पीठ ये बता रही थी कि तुम रो रही थी। उज्वला के उस संबोधन कल्लो को सुनकर तुम अवाक थी, ये तो वहीं कॉरीडोर में खड़े-खड़े ही तुम्हारे चेहरे के भावों से समझ आ गया था, लेकिन तुम इतनी हर्ट हुई थी कि तुम्हें रोना आ जाएगा, ये हम समझ नहीं पाए थे।
हे भगवान तुम आज फिर क्यों याद आ रही हो? तन्मय ने कार की कुर्सी को थोड़ा पीछे किया और रेडियो ऑन कर दिया। कव्वाली शायद शुरू ही हुई है – मेरे नामुराद जुनून का है इलाज कोई तो मौत है... ओह लूनी... फिर तुम। उस दिन भी बारिश ही हो रही थी। कैंटीन में कोने की टेबल पकड़ कर हम लोग बैठे थे। यलो सूट और मेजैंटा दुपट्टा... तुम जब भी याद आती हो अपने कपड़ों के रंग के साथ याद आती हो... समझ नहीं पाता ऐसा क्यों होता है?
तुम शायद कॉफी सिप कर रही थी और एकाएक तुमने कप टेबल पर रख दिया। पीठ को कुर्सी से टिका दिया और आँखें बंद कर ली थी। उस कोलाहल में भी तुमने रेडियो पर बज रही कव्वाली को सुन लिया था। ये इश्क-इश्क है इश्क-इश्क... और खत्म होती कव्वाली के खिंचाव को मैंने तुम्हारे चेहरे के भावों में पढ़ा था। तुम्हारी आँखें तब भी बंद थी, लेकिन एक-एक बूँद आँसू ढ़लक पड़ा था। जब तुमने आँखें खोली थी तो तुम्हारे चेहरे पर जो कुछ नजर आया वो मुझसे सहा नहीं गया था, मैं बाहर हो रही बारिश को देखने लगा था। जब थोड़ी देर बाद तुम सहज हुईं थीं तो मैंने तुमसे पूछा था – रोईं क्यों थीं?
तब तुम जोर से हँसी थी... रोईं नहीं थी, डूबी थीं।
तुम चुप हो गईं थी। बहुत देर बाद तुमने मुझसे कहा था, कभी इस कव्वाली को अँधेरे में अकेले तेज आवाज में सुनना... तुम खुद को बदलता हुआ महसूस करोगे। और आश्चर्य है कि तुम्हारे जाने के बाद ऐसा कोई दिन आ ही नहीं पाया कि वो कव्वाली भी हो, अँधेरा भी औऱ अकेलापन भी... आज भी... इस घनघोर बारिश में वॉल्यूम तेज करने की ही सहूलियत है, बस... वैसे घनघोर बारिश में काफी कुछ अँधेरे जैसा ही हो रहा है, लेकिन अकेलापन कहाँ से लाऊँ... यहाँ तो तुम हो...। फिर भी आज जैसा तुमने कहा था, उसके बहुत अरीब-करीब-सा ही समाँ है। ... तेरा इश्क मैं कैसे छोड़ दूँ, मेरी उम्र भर की तलाश है... बंद आँखें और तुम्हारी हँसती तस्वीर... सच में डूबने का सामान है... औऱ इंतेहा ये है कि बंदे को खुदा करता है इश्क... एक सनसनी-सी बदन में दौड़ गई थी, ठीक उस दिन की तरह, जब इसी तरह की बारिश में मैंने तुम्हें अपने गले लगाया था। बारिश में लुभाते तीखे मरून और हरे रंग के कपड़ों में तुम्हारा चेहरा आसमान की तरफ था और तुम्हें देखते ही मेरे अंदर कुछ तूफान की तेजी से उमड़ने लगा था, तभी तो
वो अहसास जिसे मैं अपनी नींद से भी दूर रखता था, जिसे मैंने कभी अपने अंदर भी नहीं आने दिया था, वो मैं तुमसे कह गया था, अनायास... मैं तुमसे प्यार करने लगा हूँ... सलोनी... मेरी लूनी...। बाहर भीग रहा था, लेकिन अंदर कहीं धीमी-धीमी-सी तपन थीं... तुम्हारी धड़कन मेरी धड़कनों को थपकियाँ दे रही थी... औऱ मैं पागल हो रहा था... बस... मेरा खुद पर भी इख्तियार नहीं था, जिंदगी में पहली बार मैंने महसूस किया था कि हमारे चाहने और हमारे करने के बीच कभी-कभी एक बड़ी-सी खाई बन जाती है, हम खुद अपने आप को भी संभाल नहीं पाते हैं, हम करना क्या चाहते हैं और क्या कर बैठते हैं? तभी तो कोई तर्क, विचार, डर कुछ भी नहीं होता है, हम खालिस चाह में बदल जाते हैं, दिल रूपी माँस के लोथड़े की बजाए धड़कते-जिंदा दिल में…।
मुझे पता नहीं है कि तुम इसे सुनती हो तो तुम्हारे अंदर क्या बदलता है, लेकिन मुझे भी कुछ तो अनूठा महसूस हुआ है।
क्रमशः

Saturday 2 April 2011

अहसास के आगे... अंतिम भाग

मौसा का हमारे ही शहर में ट्रांसफर हुआ था और माँ अपनी बहन को अपने ही करीब घर दिलाने के लिए कटिबद्ध...। इत्तफाक कुछ ऐसा हुआ कि पास ही का मकान खाली हुआ और मौसी-मौसा हमारे पड़ोसी हुए। चेतना मेरी मौसेरी बहन और हमउम्र... लेकिन स्वभाव में जमीन-आसमान का फर्क। मैं पढ़ाकू और वो खिलंदड़... फिर भी दोनों के बीच का रिश्ता गाढ़ा होने लगा। उसी की सहेली थी आद्या...। रंग थोड़ा दबा हुआ था, नाक थोड़ी बैठी हुई, बाकी चेहरा-मोहरा बुरा नहीं कहा जा सकता, लेकिन उसका एक पैर थोड़ा छोटा था, इसलिए वो थोड़ी-सी लचक कर चलती थी। चेतना के साथ-साथ उसके साथ भी अच्छी दोस्ती हो गई। हम घंटों बातें करते, फिल्में देखने जाते, कभी चेतना को या आद्या को पढ़ाई में कोई दिक्कत होती तो मैं मदद करता। मैं महसूस तो करता था कि आद्या मेरे साथ कुछ अतिरिक्त रूप से सजग और नर्म है, और सच पूछो तो मुझे अच्छा भी लगता था। जब इतना आद्या की तरफ से था तो जाहिर है थोड़ा सॉफ्ट कॉर्नर तो मेरे मन में भी था। लेकिन मुझे नहीं पता कब आद्या ने इसे मेरी पसंदगी या शायद फिर प्यार समझ लिया।
ये मेरी आदत थी कि चेतना के कमरे में घुसने से पहले उसे आवाज लगाता था। उस दिन जब मैंने उसे आवाज लगाई तो उसने कहा एक मिनट... फिर मुझे कमरे में बुलाया। पता नहीं उस दिन कैसे बात कहाँ से कहाँ पहुँच गई और चेतना ने मुझसे पूछ लिया कि – तुझे आद्या कैसी लगती है?
अच्छी लड़की है। जैसी और लड़कियाँ होती है, लेकिन तू क्यों पूछ रही है?
नहीं, आपको पसंद है? – उसने सीधे ही मुझसे पूछा।
पसंद मतलब... – मैं समझ तो रहा था, लेकिन चाहता था कि वो सीधे ही पूछे, ताकि गफलत का कोई स्कोप न हो।
पसंद मतलब... आप उससे शादी करना चाहेंगे? – ये इतना सीधा था कि मैं तैश में आ गया।
तू पागल हुई है क्या? यदि वो दुनिया की आखिरी लड़की हो तब भी नहीं... – और मैं भड़भड़ाकर बाहर निकल आया। जब मैं अपने घर के मेन गेट से अंदर की तरफ घुसा तो चेतना के घर से तेजी से निकलता आद्या दिखी और उसके पीछे-पीछे चेतना भागती हुई। मैं अमरूद के पेड़ की आड़ में हो लिया, लेकिन एक थरथराहट मुझे महसूस हुई। आद्या ने मेरी बात सुन ली थी। उसके बाद लगभग साल भर मेरी और चेतना के बीच कोई बात नहीं हुई। आद्या को तो मैंने उस घटना के बाद आज देखा। जब मैं रियो के लिए निकल रहा था, तब चेतना ने अपनी चुप्पी तोड़ी थी। मेरी शादी में फिर चेतना से मुलाकात हुई थी, लेकिन तब भी आद्या के बारे में न उसने कुछ बताया और मेरे पूछने का तो सवाल ही कहाँ उठता है। और आज जब आद्या मिली है तो मैं थोड़ा-सा असहज महसूस कर रहा हूँ। शायद वो भी कर रही हो...!
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रात को दुल्हा-दुल्हन तो लगे थे फेरे लेने में और घराती-बाराती सोने की तैयारी कर रहे थे, हरेक अपने लिए कोने तलाशने में लगा था। मैंने देखा कि आद्या धीरे से उठी और नजरें बचाकर हॉल से बाहर चली गई। मैंने खुद को टटोला, मैं उससे बहुत सारी बातें करना चाहता हूँ, लेकिन क्या वो मेरा साथ पसंद करेगी? मैंने चांस लिया और मैं भी बाहर आ गया। बाहर टेंट वाले अपना सामान निकाल रहे थे इसलिए शाम की चकमक पता नहीं कहाँ गुल थी। वो स्टेज के पास आधे अँधेरे में चुपचाप बैठी हुई थी। मैं थोड़ा हिचका, फिर साहस बटोर कर उसके सामने जाकर खड़ा हो गया।
होप आय एम नॉट डिस्टर्बिंग यू
अरे नहीं, प्लीज... बैठिए - उसने सामने की कुर्सी पर इशारा कर कहा। मैंने राहत महसूस की।
यहीं रहती हो...? - मैंने बातचीत शुरू करने की गरज से पूछा।
नहीं, फिलहाल तो एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में छत्तीसगढ़ में रह रही हूँ।
प्रोजेक्ट... ?
हाँ, एक एनजीओ है, उसका प्रोजेक्ट है। छत्तीसगढ़ के नक्सली इलाके में हेल्थ और एज्युकेशन के लिए काम करते हैं। उसी के साथ मैं भी काम करती हूँ।
मींस सोशल वर्क...?
नॉट एक्जेक्टली... असल में मैं इस प्रोजेक्ट से इसलिए जुड़ी हूँ कि मैं इस समस्या की ग्राउंड रियलिटी को जानना चाहती हूँ। मैं एक नॉवेल लिखना चाह रही हूँ, इस पर...।
नॉवेल... ! – मैं चौंका था।
हाँ, इससे पहले मैंने जो भी काम किया, इज वॉज आल ए टेबल वर्क... तो इस बार मैंने सोचा कि थोड़ा फील्ड में जाकर भी देखा जाए। बस...। – वो अपनी ही रौ में बोल रही थी।
मतलब पहले भी तुमने लिखा है?
हाँ, दो कहानी-संग्रह हैं और एक नॉवेल हैं।
तुम पहले भी लिखती थीं, मुझे ऐसा याद नहीं पड़ता।
नहीं, लिख तो मैं बहुत पहले ही से रही हूँ, हाँ उन दिनों अपने लिखे को छपने के काबिल नहीं मान पायी थी। होता क्या था कि उन दिनों अपनी उबलन को बस कागज पर उतार देती थी, वैसी ही जैसी वो अंदर होती थी, वैसी ही बाहर भी, वही शब्द, उन्हीं भावनाओं को, ठीक उसी रूप में जिस रूप में जिया। ये तो बहुत बाद में पता चला कि हर जगह पॉलिशिंग की जरूरत होती है। - मैंने पाया कि वो थोड़ी कसैली हो गई। - तो पॉलिशिंग को आजमाया, और हो गई लेखक...। लोगों ने पढ़ा, पसंद किया, बस...। – उसने दोनों हाथों को हवा में लहराया और फिर छोड़ दिया।
फिर ये किसने बताया कि किस तरह पॉलिशिंग की जानी चाहिए? - मुझे उत्सुकता थोड़ी ज्यादा होने लगी और मैं इसे किसी भी तरह से दबा नहीं पा रहा था।
बहुत सालों तक लावा अंदर ही अंदर उबलता रहता है, फिर एक दिन ज्वालामुखी कैसे फटता है, बस वैसे ही...। मैंने कही पढ़ा था कि खुद पर मोहित होकर सृजन नहीं किया जा सकता है। सृजन की प्रक्रिया में थोड़ा बहुत दर्द तो होता ही है। बिना दर्द, अभाव, उद्वेलन या फिर कमी के अहसास के कुछ भी कैसे रचा जा सकता है? – मैं उसके कहने के अंदाज पर इतना मोहित हो गया कि कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दे पाया, बस उसे देखता ही रह गया, तभी तो शायद उसे लगा कि मैं उसकी बात समझ नहीं पाया। वो थोड़ा रूकी, उसके चेहरे पर निराशा का भाव उभरा और फिर चमक निखर आई। कहा – इसे यूँ समझो... यदि मुझे भूख ही नहीं होगी तो फिर मैं खाने के बारे में सोचने तक का कष्ट नहीं करूँगी। आंतरिक भूख से ही सृजन संभव है। किसी कमी से उबरने, किसी अभाव को भरने का नाम ही रचना है, बस इतना ही...।
वो एकदम चुप हो गई...
तो तुम्हें कभी अपने अभाव के भरने, अपनी कमी से उबर पाने का अहसास होता है। - मुझे उससे बात करने में मजा आने लगा था।
मैंने कभी इस दिशा में सोचा ही नहीं। बस लगातार अपने अंदर एक माँग को, एक प्यास, एक आग को महसूस करती हूँ। कुछ करने पर उसके मंद होने, कम होने का अहसास होता है, थोड़े दिन ‘अंतर’ ऐसे ही शांत बना रहता है, फिर से वही सब कुछ भड़ककर आने लगता है। हो सकता है, ये सब कुछ ऐसा नहीं हो जैसा मैंने मान लिया है। उससे अलग भी हो सकता है, लेकिन मुझे लगता है कि मेरे अंदर कहीं दबे हुए कोई अभाव, कोई कमी... – वो थोड़ा रूकी, थोड़ी हिचकी, कोई असमंजस उसके चेहरे पर उभरा और फिर एक निश्चय-सा उतर आया, फिर बोली – किसी अपमान का प्रतिकार हो मेरी ये आग, प्यास....।
तुमने मुझे माफ कर दिया या नहीं...- बहुत साहस की जरूरत थी, ये पूछने में, लेकिन पता नहीं कैसे बहुत तात्कालिक ढँग से मैंने इसे पूछ लिया।
नहीं... मुझे लगता है कि एक उसी घटना ने मुझे संबल दिया है। तुमसे मिला अपमान ही मेरे वजूद का सहारा है, तुम्हें माफ करके मैं खुद को खो दूँगी। - उसने बिना किसी रोष और भावुकता के बहुत संतुलन और दृढ़ता से मुझे खारिज कर दिया।
मेरे पास अब न कोई सवाल था और न ही कोई जिज्ञासा.... वो सामने देख रही थी, जहाँ से दूल्हा-दूल्हन के साथ परिवार के लोग आ रहे थे।
मुझे उसकी तरफ देखने का अवकाश-सा मिला। उसकी आँखें खूब शांत थी, जैसे खूब बरस कर बादल शांत हो जाते हैं। मैं उसके चेहरे पर उभरी तृप्ति के राज तक पहुँच पाया... ऐसा मुझे लगा। मैं खाली हो गया... या फिर शायद खाली ही था....। इस विचार ने मुझे बेचैन कर दिया।
कहानी का मॉरल – सूत्र 68
दुनिया का सारा सृजन या तो खुद से भागने की या खुद की कमी से उबरने की प्रक्रिया का परिणाम है।

Friday 25 March 2011

अहसास के आगे...

वो जितनी भी बार करीब से गुज़री उतनी ही बार मैं कुछ अटका... कुछ उलझा...। ऐसा नहीं है कि मैं दिलफेंक हूँ और हर खूबसूरत औरत को देखकर आँहें भरने लगता हूँ। खुद मेरी बीवी भी खासी खूबसूरत है और एक प्यारी-सी बेटी भी है। कुल मिलाकर एक संतुष्ट जीवन जी रहा हूँ। बल्कि यूँ कहूँ कि मुझे कभी किसी को देखकर ऐसा नहीं लगा, जैसा आज लगा... शायद इसलिए भी कि उसमें कुछ ऐसा है, जो खूबसूरती से कुछ अलग है... जब हमें शब्द नहीं मिलते हैं तो हम अरीब-करीब के शब्दों से ही काम चला लेते हैं, शायद ‘आकर्षक’ के आसपास कुछ होगा। यूँ यहाँ लगभग हरेक शख़्स परिचित है, ममेरी बहन के घर शादी है तो जाहिर हैं यहाँ सारे ही परिचित होंगे फिर उसे देखकर भी अनजानापन तो नहीं लगा, लेकिन कुछ तय नहीं कर पा रहा हूँ कि कौन है और इससे मैं आखिरी बार कब और कहाँ मिला था?
हाथीदाँत से सफेद सिल्क पर पीले और लाल रंग की चौड़े बॉर्डर वाली साड़ी, सूना गला और कान में मोती के झुमके, कंधे तक कटे करीने से सँवरे बाल, थोड़ा ऊँचा कद... बस इतना ही देख पाया था। मैं अपनी मौसेरी बहन के बेटे से बात कर रहा था, उसी दौरान वो मेरे सामने से करीब चार बार गुजरी होगी। दस साल विदेश में रहा और हाल ही में लौटा हूँ। इतने सालों में बच्चे बड़े हो गए और बड़े अधेड़, पिछले दो दिनों से बस लोगों से मिलता ही रहा हूँ। रागिनी साथ नहीं आई उसे छुट्टी नहीं मिल पाई, फिर वो अपने ससुरालियों के बीच कंफर्टेबल भी नहीं थी, तो मैंने ही सोचा क्यों बेकार में उसे धर्मसंकट में रखूँ। इससे मेरी व्यक्तिगतता को भी आँच नहीं आएगी और उसे भी बंधन से आजादी मिलेगी।
तो तू यहाँ है, आकार से बातें कर रहा है, चल मैं तुझे बहुत देर से ढूँढ रही हूँ। - सरिता दीदी ने आकर मेरी बाँह पकड़ते हुए कहा। मैंने आकार के सिर पर हाथ रखा – फिर मिलते हैं बेटा। - कहकर दीदी के साथ चल पड़ा। बहुत देर से सवाल चुभला रहा था, अंदर रूका पड़ा था या फिर कहूँ कि उसे बाहर आने का मौका भी नहीं मिला था, लेकिन दीदी को देखते ही वो याद आ गया, वो सामने खड़ी दिखी तो आसानी भी हो गई। - दीदी, ये कौन हैं? – मैंने उसकी तरफ आँखों से इशारा कर पूछा।
अरे ये... इसे नहीं पहचाना? ये चेतना की दोस्त है आद्या... तु भूल गया... – वे बड़ी अर्थपूर्ण हँसी हँसी थी।
अचानक मैं सनसना गया – ओ आद्या – बस बुदबुदाया था। तब तक दीदी मुझे खींचकर उसके पास ले गई। - आद्या इसे पहचाना...?
उसके चेहरे पर कुछ अनमने से भाव आए। फिर शायद अपने भावों पर काबू कर लिया और अनिश्चितता में गर्दन हिलाकर नहीं कहा। मुझे थोड़ा झटका तो लगा, लेकिन उसके चेहरे पर आते-जाते भावों ने मुझे ये एहसास करा दिया कि चाहे मैं उसे पहचान नहीं पा रहा हूँ, लेकिन वो मुझे पहचान गई है।
ये ऋषभ... मेरा कज़न...। – दीदी ने कहा। तब तक उसने अपने भावों पर पूरा नियंत्रण कर लिया था, पूरी तरह से स्थिर, शांत और संयत हो गई थी।
अच्छा... – फिर मेरी तरफ मुड़कर बहुत शालीनता से हाथ जोड़कर मुझे नमस्कार किया और कहा – बहुत सालों बाद मिल रहे हैं। - फिर से उसके चेहरे पर कुछ बादल आकर गुजर गए थे। मुझे कहना चाहिए कि उसका अपने इमोशन पर कमाल का नियंत्रण था। इस बीच सरिता दीदी कहीं ओर चली गई थी। हम दोनों को बातें करता देख उसके साथ जो मेहमान थे वो भी कहीं चले गए। मैंने पूछा – खाना हो गया?
नहीं अभी बाकी है, आपका...?
चलिए लेते हैं। - मैंने कहा, और पता नहीं कैसे मैंने एक अप्रासंगिक सा सवाल कर डाला – योर फैमिली ....?
वो थोड़ा चौंकी, मैंने आखिर बेवकूफी जो कर दी थी – ही इज इन जापान, आन ए प्रोजेक्ट, एंज योर्स...
रागिनी तो दिल्ली ही है, बेटी की परीक्षा चल रही है और उसे भी छुट्टी नहीं थी... – फिर थोड़ा हिचक कर बोल पड़ा – यू नो ससुराल में कौन लड़की कंफर्टेबल होगी? फिर मैंने भी जिद्द नहीं की। आखिर थोड़े स्पेस की जरूरत तो उसे भी होती ही है ना... नहीं!
उसने बड़े अनमनेपन से हाँ में गर्दन हिला दी। शादी की रस्में चल रही थी और साथ में खाना भी हो रहा था। बातों का सिलसिला वहीं टूट गया और एक अप्रत्याशित चुप्पी हम दोनों के बीच फैल गई। इस बीच मैंने नजरें बचाकर उसे चुपके से देखा। जिस चीज ने उसे आकर्षक बनाया था, वो उसका आत्मविश्वास था, तभी तो इतने लोगों में सिर्फ उसकी उपस्थिति को मैंने पकड़ा था। साँवला रंग, छोटी-सी नाक और बड़ी-बड़ी आँखें, याद आया कि पहले की तुलना में थोड़ी भरी-भरी हो गई है, शायद यही वजह रही होगी कि उसका रंग पहले की तुलना में थोड़ा खुल गया है और पैर... हाँ पैर का लचकना, एकाएक तीखी जिज्ञासा हो आई। पैर अभी भी लचकता है क्या? जब वो प्लेट रखने के लिए गई तो मैंने फिर कनखियों से उसकी तरफ देखा। नहीं... अब उसका पैर नहीं लचकता है। मैं कह नहीं सकता कि मुझे निराशा क्यों हुई थी। उसके पैर नहीं लचकने से या फिर पास्ट में लिए अपने ही निर्णय की याद करके।
क्रमशः

Saturday 12 March 2011

अपने बीहड़ की ओर...

दुपट्टा सफेद था और सीढ़ियाँ उतरते हुए वो लगातार जमीन से रगड़ खाता जा रहा था। मैं जानती थी वो रगड़ खा रहा है और मैला भी हो रहा है, लेकिन कोई बेखयाली थी कि जानते हुए भी कुछ नहीं किया। कई बार ऐसा होता है कि हम जानते हैं कि हमें ये नहीं करना है, फिर भी करते ही चले जाते हैं, यहीं कहीं दिल और दिमाग के बीच का फर्क... फासला उभर कर नजर आता है। मैं उतरती ही जा रही थी, बिना ये सोचे कि जितना नीचे जाऊँगी, उतना ही उपर आऩा होगा… और... औऱ चढ़ाव हमेशा ही मुश्किल होता है, तो क्या इसलिए हम उतरें नहीं? सवाल... सवाल और सवाल... बेतुके, बेमौके और बेजायके सवाल, हर कहीं खड़े होकर हमारे होने को चुनौती देते सवाल... ऐसे सवाल, जिनका कोई जवाब नहीं है और सवाल जिनके होने से निजात नहीं है।
न जाने कितनी सीढ़ियाँ उतर आई, लेकिन लगता है जैसे रास्ता ही भूल चुकी हूँ। इस बार इस तरफ बहुत दिनों बाद जो आना हुआ है। कितना कुछ बदल गया है, कैसा छोड़कर गई थी और कैसा हो गया?
कैसा हो गया... मैंने खुद ही सवाल पूछा था।
अरे बीहड़ छोड़कर गईं थी और वैसा ही तो है। - खुद ही जवाब भी दिया।
जंगल जैसे घना होता जा रहा है। कँटीली झाड़ियों से बदन खुरचने लगा था और कपड़ों में भी खोंपे आने लगे थे, लेकिन बस नशे-की-सी हालत में चलती चली जा रही हूँ। दिमाग की चेतावनी को नजरअंदाज करते हुए भी कि – क्या जरूरत है इस तरह बीहड़ों की तरफ जाने की? अब वहाँ क्या धरा है, जिसे लाने जा रही हो? ऐसा क्या है जो तेरी दुनिया में नहीं है और जिसकी तुझे जरूरत है। तर्क चल रहे हैं - क्या जरूरतों से ही काम किया जाना चाहिए? यदि जरूरतें ही हमें संचालित करती तो आविष्कार तो बहुत होते, विचार नहीं होते... विचारों की जरूरत जो कभी नहीं होती...। लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है? विचारों की सत्ता तो पदार्थ से पहले है... पहले विचार होगा फिर क्रिया और फिर परिणाम... मतलब पदार्थ... ऊँ...हू... ये बेकार के विचार है। पुराने पड़ चुके, जिनकी कोई उपयोगिता नहीं है, छोड़ो इन्हें। सही है विचार तो हमेशा ही बेकार रहते हैं ना...!
हाँ, ठीक है छोड़ो...। पहुँच गई हूँ, वहाँ, जहाँ पहुँचना, अच्छा भी लगता है और उदास भी करता है।
तो तू आ ही गई... इतने दिनों में तुझे मेरी याद नहीं आई...? – बहुत मान से उसने पूछा था।
आई तो थी, बल्कि आती ही रहती है, लेकिन... – मैं चुप हो गई। क्या कहूँ, कुछ कहने से उसे बुरा लग सकता है ना...!
हाँ, बोल... लेकिन क्या... ? फिर क्यों नहीं इतने दिनों तक आई? – उसने बहुत तरल होकर पूछा।
मैं भी बह गई – तू मुझे उदास करती है।
वो कहीं गुम हो गई, जब वो बोली तो उसकी आवाज बहुत उदास और थकी-सी लगी – केवल उदास... ?
मैं हड़बड़ा गई – नहीं, तुझसे मिलना मुझे अच्छा भी लगता है – मैंने वो शेर का टुकड़ा दोहरा दिया – तुझसे मिलना खुशी की बात सही, तुझसे मिलकर उदास रहता हूँ।
अबकी उसने सीधे ही आँखों में झाँका था – सच... ?
हाँ – लेकिन मैं थोड़ी तल्ख़ हो आई थी – इसमें खुश होने जैसी कोई बात नहीं है। जब कभी मैं तुझसे मिलने आती हूँ, तू मुझे बुरी तरह से झिंझोड़ देती है और फिर मैं बहुत दिनों तक उदास रहती हूँ।
वो बहुत मुग्ध हँसी हँसी थी – मैं तुझे झिंझोड़ती नहीं हूँ, तुझमें उगे काँटों को झराती हूँ। मैं तेरा पंचिग बैग हूँ। तेरी प्यास के लिए तृप्ति हूँ... तेरा सेफ्टी वॉल्व हूँ। तू सोच... यदि तू मुझसे नहीं मिले तो जो आग है, जो प्यास है उसे तू खुद सह पाएगी? विस्फोट नहीं होगा, मर नहीं जाएगी? अपनी आग... अपनी प्यास सौंप कर तू शांत नहीं हो जाती है, क्या?
मुझे उत्तर नहीं सूझा, प्रश्न उगा- क्यों है ये प्यास... ये आग...?
उसने भी साथ ही प्रश्न किया – तुझे पसंद नहीं है ये?
तू सवाल के जवाब में सवाल क्यों कर रही है, जवाब क्यों नहीं देती – इस बार मैं बुरी तरह से भड़क गई।
क्योंकि तेरे सवाल में ही तेरा जवाब है। - उसने जवाब दिया।
क्या ये आग ये प्यास तुझे कुछ नहीं देती है? … ले... फिर तू कहेगी कि मैं सवाल कर रही हूँ।
मैं अनमनी-सी हो गई। कैसे कहूँ कि ये मुझे नहीं चाहिए और कैसे ये कह दूँ कि ये मुझे चाहिए? क्योंकि ये प्यास मुझे चाहिए, आखिर इसके बाद ही मुझे तृप्ति का आनंद मिलता है और चूँकि ये प्यास बेचैन करती है, इसलिए ये मुझे नहीं भी चाहिए। मैं चुप थी, लेकिन ये तय था कि इस प्यास ने ही मुझे अपने होने की चेतना दी थी। और सच पूछें तो अब इसके बिना अपने होने की कल्पना ही नहीं हो पाती। अपना चित्र ही नहीं बन पाता, आदत कहो तो आदत और नशा कहो तो नशा... अब जबकि मैं बहुत दिनों बाद उतरी थी अपने अंदर, खुद के पास बैठने, बातें करने तो उदासी तो थी, लेकिन कुछ पा लिए जाने का सुकून भी था और गर्व भी..., फिर भी मैं उसे प्रकट में कुछ नहीं कह पाई। मैं चुप थी। बहुत देर तक वो मेरे जवाब के इंतजार करती रही।
सच बता तुझे नहीं लगता कि दो विपरित चीजों का अस्तित्व एक-दूसरे से जुड़ा है। एक के बिना दूसरा हो ही नहीं सकता – उसने कहा।
मुझे चुहल सूझी – तू तो मार्क्स को जिंदा करने में लगी है। वो मर चुका है, अब तो उसका इतिहास तक मर चुका है। काहे उसके द्वंद्ववाद को हवा दे रही है।
मन में उभरा – जैसे प्यास और तृप्ति, जिंदगी और मौत, दिन-रात, खुशी-दुख... लेकिन प्रकट में कहा – जैसे तू और मैं... और हँसी थी। वो नहीं हँसी, वैसी ही गंभीर बनी रही और चुप्पा भी। मैं भी चुप हो गई। सवाल जवाब खत्म जो हो गए, हम दोनों एक-दूसरी की पीठ से पीठ लगाकर बैठ गईं। चाँद की मुस्कुराहट बड़ी प्यारी लग रही थी और रात... रात बस गुजर रही थी।


कहानी का मॉरल - सूत्र 105
प्यास और तृप्ति मिलकर जिंदगी का ‘कोरम’ पूरा करती है।