Wednesday 5 September 2012

निर्भरता अभिशाप है

उस दिन फिर दीदी मुझे चकमा देकर निकल गई। बहुत देर तक मैं उनके पीछे लगा रहा, फिर वो मेरे साथ खेलने लगीं जब मैं खेल में डूब गया तो वे धीरे से पिछले दरवाजे से निकल गई। थोड़ी देर बाद जब मैं खेल से उकता गया तो याद आया कि दीदी तो मेरे साथ ही थी। फिर घऱ भर में उन्हें ढूँढा, जब नहीं मिली तो पक्का यकीन हो गया कि वो मुझे छोड़कर चली गई है। मुझे बहुत तेज गुस्सा आया, क्यों तो पता है, लेकिन किस पर पता नहीं। खुद पर या फिर दीदी पर....?
जिद्द पकड़ ली मुझे दीदी के पास जाना है। पहले सबने समझाने की कोशिश की कि दीदी तो डॉक्टर के पास गई है, लेकिन मैं समझ गया कि सब मुझे बहला रहे हैं। नहीं वो अर्पिता दीदी के यहाँ गई है, मुझे पता है। पापा ने कहा - हो सकता है, लेकिन मुझे नहीं मालूम अर्पिता का घर कहाँ है?
मुझे पता है। - मैं बस अड़ गया था। पापा को लेकर जब मैं अर्पिता दीदी के घर पहुँचा तो दीदी उनके साथ बातों में मशगूल थीं और मुझे देखते ही उनके चेहरे पर झुँझलाहट तैर गई। हाँ अर्पिता दीदी जरूर मुझे देखकर खुश हुईं लेकिन मुझे दीदी का झुँझलाना पसंद नहीं आया। पापा मुझे वहाँ छोड़कर लौट गए। फिर मैंने वहाँ क्या किया वो तो कुछ याद नहीं हाँ ये याद रहा कि दो-एक घंटे बाद दीदी के साथ ही घर लौटा।
हम दोनों के बीच एक तो उम्र का फासला था, दूसरे जैसाकि होता है लड़की होने के नाते दीदी जल्दी बड़ी और समझदार हो गई और तीसरा दीदी हमेशा अपने से बड़ी लड़कियों के साथ ही रही इससे हुआ ये कि मैं तो अपनी गति से बड़ा हो रहा था, लेकिन दीदी अपनी उम्र की तुलना में तेज गति से बड़ी हो रही थी, मानसिक और भावनात्मक तौर पर... तो जाहिर है हम दोनों के बीच का फासला कम होने की बजाए बढ़ता ही जा रहा था।
फिर पता नहीं कैसे हम दोनों के बीच संवाद की वजहें बनने लगीं। मैं कॉलेज में पहुँच गया था और दीदी कांपीटीटिव एक्जॉम्स की तैयारी करने लग गई थीं। उन्हें पढ़ना पंसद हैं और थोड़ी ज्यादा जागरूक और ज्यादा विचारशील भी हैं। तो दुनिया जहान की बातें होने लगीं हम दोनों के बीच। हम दोनों साथ पढ़ने बैठते तो थे, लेकिन पढ़ते कम और बातें ज्यादा करते थे। दीदी को देर रात तक पढ़ने की आदत थीं और मुझे रात में जल्दी नींद आने लगती थीं, तो जब मुझे नींद आने लगती तब मैं तो सो जाता और दीदी पढ़ने लगतीं।
हम दोनों के बीच एक बाँड-सा बनने लगा था। दुनिया-जहान की बातें, कॉलेज और दोस्तों के अनुभव... रोजमर्रा से जुड़ी बातें, फिर इसमें धीरे से म्यूजिक भी जुड़ने लगा। पता नहीं मुझे वैसा म्यूजिक पसंद है, जैसा दीदी सुनती है या फिर चूँकि दीदी सुनती है इसलिए मुझे भी वैसा सुनने की आदत औऱ फिर शौक लग गया, लेकिन हम दोनों ही साथ-साथ गज़लें और क्लासिकल म्यूजिक सुनते हुए बड़े हुए। साथ-साथ खरीदी करते, हम दोनों एक-दूसरे के साथ कपड़े खरीदने में बड़े कंफर्टेबल हुआ करते थे। तो बाहर घूमना-फिरना भी हम दोनों साथ-साथ करते थे। कह सकते हैं कि हम दोनों एक-दूसरे के दोस्त भी बन चुके थे।
ये वैसा नया नहीं तो शायद नहीं ही होगा कि मेरे सारे दोस्त सिगरेट और शराब का शौक फरमाते थे। मेरे लिए वो इसलिए भी नया था कि परिवार के साथ-साथ पूरे-पूरे खानदान में मैंने किसी को सिगरेट या शराब पीते हुए नहीं देखा... यही पारिवारिक संस्कार हुआ करते हैं, शायद। लेकिन मैंने घर में कभी किसी से ये सच नहीं छुपाया कि मेरे दोस्त क्या-क्या करते हैं और उल्टे दीदी से तो मैं हमेशा बहुत डिटेल में सब कुछ शेयर करता रहा हूँ।
वो बारिश की ही कोई रात रही होगी। दीदी के डबल कैसेट प्लेयर में जगजीत-चित्रा की बहुत पुरानी गज़लें चल रही थीं... दिल को क्या हो गया खुदा जाने/ क्यूँ है ऐसा उदास क्या जाने... वो आँखें मूँदे डूब कर सुन रही थीं। बाहर तेज बारिश होने लगीं तो जैसे वो समाधि से लौटी थीं। उन्हें कॉफी पसंद है और वो घोंटकर बनाया करती है। मैंने फरमाइश की थी... आयडिया दीदी को भी पसंद आया। वो चीनी, कॉफी और एक छोटा चम्मच दूध को लगभग आधे से एक घंटे तक घोंटती रहती थी, तब तक, जब तक कि चीनी पूरी तरह से घुल ना जाए और कॉफी का रंग गोल्डन ना हो जाए... मुझे भी पता नहीं क्या सूझा था, उसी दौरान मैंने दीदी से पूछ लिया था – यदि किसी दिन मैं भी ड्रिंक करके घर आ जाऊँ तो आपको कैसा लगेगा?
वो एकदम निर्विकार थी, उसी तन्मयता से कॉफी घोंट रही थी, बिना मेरी ओर देखे ही उन्होंने जवाब दिया था – मुझे मालूम है तू ऐसा नहीं करेगा।
मैं अवाक्, निरूत्तर दीदी की ओर देख रहा था। समझा नहीं पाऊँगा, उस एक वाक्य से क्या कुछ अंदर घटा था, शब्द नहीं है उसके लिए... उस वक्त मुझे भी सूझ नहीं रहा था क्या कहूँ! बहुत देर तक हम दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला बस कप के अंदर चम्मच के चलने की आवाजें आती रही। कुछ हम दोनों के बीच से सरसरा कर गुजर गया था। फिर अचानक दीदी ने सिर उठाकर मेरी तरफ गंभीर नजरों से देखा... वैसे यदि कभी तू ट्राय करना चाहे तो मुझे बुरा नहीं लगेगा। फिर उन्होंने गर्दन झुकाकर उसी तन्मयता से कॉफी घोंटते हुए कहा, जिंदगी में अनुभव लेना बुरा नहीं है, किसी भी चीज की निर्भरता बुरी है... अब वो खड़ी हो गईं थीं। मैं उनके कहे को उसी तरह घोंट रहा था, जिस तरह उन्होंने कॉफी घोंटी थी। उन्होंने मेरे बालों में हाथ घुमाते हुए कहा था, चल कॉफी बनाते हैं। उस रात उनके हाथ की खूब सारे झाग वाली कॉफी पीते हुए याद नहीं किन-किन विषयों पर बात हुई, लेकिन ये वाकया कहीं इतने गहरे धँसा हुआ था इसका अंदाजा मुझे आज हुआ।
ऐसा नहीं है कि पीने वाले दोस्तों के साथ मैं पहली बार बैठा था आज... पहले भी कई बार मैं अपने दोस्तों के साथ पीने की पार्टी मनाता था। हमेशा सभ्य दोस्तों को लेकर जाता और नशे में संभालकर लाता रहा था। एक बार मैंने भी सोचा कि आखिर ये शराब क्या बला है पीकर देखी तो जाए, तो घर में बाकायदा मुनादी कर ठसके से गया तो था, लेकिन जिन जैसी लेडिज ड्रिंक को लिम्का की पूरी बोतल में मिलाने के बाद भी उसका स्वाद मैं पचा नहीं पाया था और उसे शौकीन दोस्तों ने खत्म किया। शायद वो मेरा पहला और आखिरी प्रयास था। आज भी अपने कलिग्स के साथ ऐसी ही पार्टी में बैठा था... सर्व हो रही थी और नए ज्वाइन हुए कलिग ने एक पैग मेरे सामने भी रख दिया था। मैं बहुत देर तक उसे देखता रहा... मन हुआ कि आज पी ही लूँ... एक बार और कोशिश कर के देखूँ, कैसा लगता है? एकाएक कुछ कौंधा... एकाग्रता से कॉफी घोंटती दीदी का वो निर्विकार चेहरा याद आया जब उन्होंने कहा था – ‘मुझे मालूम है तू ऐसा नहीं करेगा।‘ और मैंने मुस्कुराते हुए उस पैग को पड़ोसी के सामने सरका दिया।
कहानी का मॉरल- सूत्र १४०
विश्वास भी बंधन है.

Sunday 20 May 2012

दर्द की तासीर

बात तो बहुत छोटी थी, लेकिन वहाँ जाकर लगी, जहाँ की जमीन कांक्रीट थी, गहरे जाकर गड़ी थी। पता नहीं किस विषय पर शुरू हुई बहस बढ़ते-बढ़ते झगड़े तक जा पहुँची और सुकेतु ने चिल्ला कर कह दिया कि – ‘तुम मेरे घर से निकल जाओ... अभी....।’ आँखें भर आई थी अश्लेषा की.... वो अवाक् थी... एक-साथ कई चीजें उमड़ी थी... मतलब जिस घर को मैंने अपनी पूरी ऊर्जा, इच्छा और आकांक्षा दे डाली वो मेरा नहीं है...। मतलब कि औरत का कभी कोई घर नहीं होता...! मतलब कि औरत चाहे जो कुछ हो जाए, वो मालिक नहीं हो सकती...! मतलब कि पुरुष जब चाहे उसका अपमान कर सकता है.... मतलब... मतलब... मतलब....।
उस वक्त सुकेतु को अश्लेषा की भरी हुई आँखें, गहरी चोट और पीड़ा नजर ही नहीं आई, वो तो बेहद गुस्से से भरा हुआ था और उसी गुस्से में वो घर से बाहर चला गया था... इससे पहले कि अश्लेषा संभले... धड़ाक् आवाज हुई और सुकेतु बाहर... उसे उसी हाल में छोड़कर। लगातार-लगातार वही-वही विचार उसके जेहन में उठ रहे थे और उसे मथे जा रहे थे। चोट इतनी गहरी थी, कि आँखों के सामने अँधेरा था, विचार और विचार-शून्यता के बीच एक ठहरा हुआ वक्त था। वो कुछ कर रही थी, क्या और क्यों उसे खुद भी नहीं पता था। बस शरीर यंत्र की तरह चल रह था चाय के गिलास साफ कर रही थी, उस बेकली में ही... काँच का गिलास उसे तड़का हुआ नजर आया, लेकिन ना तो उसके अंदर कोई विचार आया, और न ही कोई प्रतिरोध हुआ और उसने उस तड़के हुए गिलास में हाथ डाल दिया... जैसे ही उसने उसमें हथेली घुमाई, तड़के हुए हिस्से से गिलास टूट गया और गिलास का टूटा हुआ हिस्सा अँगूठे और उँगलियों के बीच के हिस्से में घुस गया। खून बहने लगा, लेकिन अश्लेषा को कोई अहसास ही नहीं हुआ, जब गिलास साफ कर डस्टबिन में डाला तब गिलास के उपर गिरी लाल बूँदों से थोड़ी-सी चेतना लौटी... लाल बूँदों के गिरने का स्रोत देखा...। एकाएक भीतर से कुछ थमता महसूस हुआ। दर्द तब भी महसूस नहीं हुआ... खून रिसकर हथेली तक आ गया... उसे कुछ ठंडा और मीठा-सा अहसास होने लगा। बिस्तर पर हाथ टिका दिया और लेट गई। धीरे-धीरे खून की बूँदें चादर पर फैलने लगी...। उसे खून देखकर मजा आने लगा.... खासतौर पर अपना...। खून देखते हुए बार-बार उसकी आँखें भरती-टपकती रही...। पहली बार उसे अपने आँसुओं की भाषा अनजानी लगी, भाव तो फिर भी पकड़ लिया था... दर्द का अहसास नहीं था, खुशी की कोई वजह नहीं थी, उदासी थी, गहरी, अपमानजनित, प्यार-विश्वास से परे... दिल पर लगी चोट का अहसास था, लेकिन खून के टपकने से जैसे किसी तृप्ति का अहसास हो रहा था, कोई वहशी-सी खुशी... जैसे वो वो नहीं है कोई और है, या फिर रिसता खून उसका नहीं किसी और का है, पहली बार उसने जाना कि अपमान का घाव आत्मपीड़न से भी भरा जा सकता है। खून का धब्बा चादर पर फैलने लगा था, पंखे की ठंडी हवा, उन्माद का उतरना, तीखे दर्द के बाद की उदासीनता और गहरे संघर्ष के बाद की थकान थी... रिसते खून और फैलते धब्बों को देखते हुए उसे नींद आ गई...।

ये क्या है? – पता नहीं उसने नींद में सुना था या फिर हकीकत में।
तड़ाक... गाल पर एक भरपूर चाँटा पड़ा था और वो नींद से लौट आई थी। फिर से अपमानित हुई – ये क्या कर रही थीं...? – सुकेतु लौट आया था, खून देखकर बावला हो गया था। कॉटन... डेटॉल... बैंडज... कहाँ है, वो पागलों की तरह यहाँ से वहाँ ढूँढ रहा था। ये सारी चीजें तो अश्लेषा ही संभालती है तो उसे कैसे मिलती... ?
क्या किया...? वो फिर चिल्लाया। - क्या किया...?
हो गया...
हो गया... कैसे?
गिलास का काँच घुस गया।
अश्लेषा ने उसे निर्विकार होकर जवाब दिया... सुकेतु से बर्दाश्त नहीं हुआ.... उसकी गोद में सिर रख लिया वो सिसकने लगा, अश्लेषा की दबी-घुटी सिसकी उभरी तो उसने अपने सीने में उसे समेट लिया... क्या किया ये... क्यों? अश्लेषा चुप...। सिर उठाकर उसने हाथ दिखाया... देखो... कितना अच्छा लग रहा है... खून... हम क्यों डरते हैं? कितना खूबसूरत रंग है... है ना...!
सुकेतु ने उसे देखा, गहरे अर्थ से... - यदि ये मेरा होता तो...?
अश्लेषा बिखर गई... बाँध टूट गया, घुटी हुई सिसकी रूदन में बदल गई...।
सुकेतु ड्रेसिंग करता रहा, अश्लेषा रोती रही।
कहानी का मॉरल – सूत्र-137
आत्मपीड़ा में भी सुख है.