Tuesday 27 September 2011

खूबसूरती के साइडइफेक्ट्स...!

रात का गहरा नशा और उसकी खुमारी थी... नींद इतनी गहरी थी कि मंजरी की किलकारी सुनकर हड़बड़ा कर जागा था... क्या हुआ? – बहुत घबराकर पूछा तो वो रात में इतनी जोर से खिलखिलाई कि मुझे अपने होंठों से उसके होंठों को सिलना पड़ा। उसने वैसे ही अपना हाथ रजाई से निकालकर खिड़की की तरफ बढ़ाया... और दूसरे हाथ से मुझे धकियाकर अलग किया।
देखो बर्फ...।
खिड़की के शीशों के उस पार स्ट्रीट लाइट की पीली-उदास रोशनी में नजर आया जैसे आसमान से रूई के फाहे बरस रहे हों...। उसने झटके से उठकर खिड़की खोली तो तीखी-बेधती सर्दी कमरे में दाखिल हो गई। उसने जल्दी से खिड़की बंद की और रजाई में घुस गई। मैंने उसे तब तक जकड़कर रखा, जब तक कि उसकी कँपकँपी कम नहीं हुई। हाथों में उसके बालों का रेशम था और सीने पर उसकी साँसों की तपिश...। उसकी लंबी बरौनियाँ आँखों के खुलने-बंद होने से मेरे कंधों को सहला रही है। मैं खुश हूँ... बहुत-बहुत...। इतनी खूबसूरत पत्नी को पाकर...। पिछले साल इन्हीं दिनों से शुरू हुआ सिलसिला इस साल एक मंजिल पर पहुँच गया। ममेरे भाई की शादी में मंजरी को देखते ही लगा कि बस यही मेरी बीबी हो सकती है। दूधिया गोरा रंग और कंजी-बड़ी आँखें... लंबे बाल और लंबा कद... बहुत-बहुत खूबसूरत...। 6 महीने में सगाई और साल भर में शादी...। मनाली में हनीमून के लिए आए और आज दूसरा दिन है। पता नहीं क्यों लगा कि प्रकृति ने भी मेरी खुशियों के लिए अपना खजाना खोल लिया है। हम दोनों यूँ ही रजाई में एक-दूसरे के साथ खेलते हुए खिड़की पर आँखें गड़ाए आसमान से रूई का झरना देखते रहे... कब सुबह हुई पता ही नहीं चला।
बर्फ अब भी गिर रही थी... बिस्तर छोड़ने का मन ही नहीं कर रहा था। मंजरी ने सिरहाने पड़ा कोट उठाया और तुरंत पलंग से उतर गई।
उठिए, हम यहाँ कमरे में कैद रहने के लिए नहीं आए हैं। - बहुत लाड़ से कहा था। मैंने झपट्टा मारा तो मेरे हाथ में उसकी कलाई आ गई और मैंने उसे फिर से बिस्तर पर खींच लिया। - मैं तो बस यही करने आया हूँ। - वो फिर खिलखिलाई और हाथ छुड़ाकर दूर चली गई।
मैं रजाई में से निकलने का बार-बार मन बनाता और बार-बार बाहर की सर्दी के डर से दुबक जाता। बहुत देर से मंजरी बाथरूम में थी। मैंने आवाज लगाई – जानूं क्या कर रही हो! मैं यहाँ सर्दी के मारे मर रहा हूँ...।
तभी वो बाहर निकल आई। नहाकर आई थी, बालों पर तौलिया था। उसने शरारत से भरकर पलंग के दूसरे हिस्से से जो रजाई खींची तो सर्दी के मारे में सिहराकर चीखा... – सर्दी लग रही है ना...! क्या कर रही हो...।
उठ जाओ, पानी खूब गर्म है, नहा लोगे तो अच्छा लगेगा। - स्कूल मास्टर की तरह उसने आदेश दिया। मैं बुदबुदाया – स्साली मास्टरनी...।
उसने प्यारभरी मुस्कुराहट बिखेरी...।
जब मैं नहाकर लौटा तब वो काजल लगा रही थी और लगभग तैयार हो चुकी थी। बाल खुले थे और कानों में डायमंड के झूमर से पहने हुए थे। मैं मुग्ध भाव से उसे देखने लगा तो उसने करीब आकर मेरे गीले बालों को अपनी ऊँगलियों से झटका... मैंने फिर से उसे खींच लिया।
चलो... तैयार हो जाओ जल्दी।
बर्फ गिरना बंद हो चुकी थी और ठंड तेज हो गई थी। घड़ी में 10 बज रहे थे। भूख तेज हो गई थी। नाश्ते के लिए रेस्टोरेंट में पहुँचे। ऑर्डर करने के बाद मैंने आसपास नजर घुमाई। काउंटर पर मैनेजर के पास बैठा लड़का बड़ी बेशर्मी से मंजरी को घूर रहा था। मंजरी इस सबसे बेखबर मेन्यू कार्ड पढ़ने में उलझी हुई थी। मुझे एकाएक समझ नहीं आया कि मैं क्या करूँ। अब देखना तो कोई जुर्म नहीं है, मैं मंजरी के पास की सीट छोड़कर उसके सामने की सीट पर बैठ गया, ताकि मेरी आड़ में वो मंजरी को देख ना पाए। जैसे-तैसे नाश्ता हुआ। मेरे तो गले से कौर ही नहीं उतर रहे थे।

रेस्टोरेंट से निकलने के बाद भी मैं वहीं रह गया था, या फिर मुझे लगा कि वो लड़का मेरे साथ-साथ चलने लगा था। अब स्थिति ये हो गई थी कि मैं अपने सामने से गुजरते हरेक शख्स की नजरों का जायजा लेने लगा था। एक तरफ जहाँ मंजरी पहाड़ों पर जमी बर्फ का मजा ले रही थी। उस सारे दृश्य को महसूस कर रही थी, वहीं मैं न जाने किस गर्त में उतर रहा था।

बाहर टँगे वूलन कुर्ते को देखकर मंजरी ने कहा था – कितना सुंदर है ना। चलो देखते हैं।
दुकान में पहुँचकर मैंने दुकानदार को बाहर टँगे कुर्ते के बारे में बताया तो उसने तुरंत अंदर से उसी तरह का कुर्ता लाकर मंजरी के सामने रख दिया। वो हर चीज मंजरी को ही दिखा रहा था, उसे ही कन्विंस करने की कोशिश कर रहा था। मुझे चिढ़ आई और मैंने सख्ती से मंजरी की कलाई पकड़ी और दुकान से बाहर आ गया। वो समझ ही नहीं पाई कि आखिर हुआ क्या है! मैं भी कहाँ समझ पा रहा था।
शाम उतर रही थी। हम दोनों ही थकने लगे थे। यूँ भी 6-6 इंच मोटी बर्फ पर गम बूट पहन कर घूमना खासा थकाने वाला काम था। हिमाचल टूरिज्म ऑफिस के बाहर की कॉफी शॉप में जा घुसे। ओपन एयर शॉप से मनाली मॉल रोड पर घूमते पर्यटक, जोड़े नजर आ रहे थे। मैं जब कॉफी लेकर लौटा तो मंजरी मॉ़ल रोड की तरफ मुँह घुमाए बैठी थी। उसकी पीठ की तरफ कुछ पर्यटकों का झुंड बैठा हुआ था। शायद दिल्ली के लड़के थे सारे। उनमें एक सरदार कुछ इस तरह से बैठा था कि वो मंजरी को देख सके। वो थोड़ी-थोड़ी देर में कनखियों से मंजरी की तरफ देख रहा था। फिर से मेरा गुस्सा बढ़ने लगा था। जब मैंने ये महसूस किया कि मुझे मंजरी पर भी गुस्सा आ रहा है तो मेरी बुद्धि ने मुझसे पूछा कि – उस पर क्यों?
वो मॉल रोड पर घूमते जोड़ों को देखने में मगन थी और मैं अपनी उधेड़बुन में... कि मैंने देखा कि बादल कतरों में उसके बालों और कंधों पर जमा हो रहे हैं। उसने अपनी आँखें गोल-गोल की और किलकारी मारी – बर्फ...। कॉफी का जल्दी-जल्दी खत्म किया और व्यग्रता से खड़ी हो गई।
चलो...
मैंने पूछा – कहाँ?
अरे बर्फ में घुमेंगे...। यही तो मजा है, यहाँ इस मौसम में आने का। - ये कहती हुई वो गेट से बाहर निकल गई। मैंने फिर कनखियों से लड़कों के उस झुंड की तरफ देखा। उस लड़के की नजर अब भी मंजरी पर थी। मेरी मनस्थिति मेरे नियंत्रण से बाहर थी। दूसरी ओर मंजरी मासूमियत से गिरती बर्फ को आँखों में, हाथों में और जहन में समेट रही थी। मैं अनमना-सा उसके साथ घिसट रहा था। कितना.... खूबसूरत है ना सब कुछ...! – उसने बिल्कुल डूबते हुए कहा था। लेकिन मैं न जाने कहाँ था। तभी सामने की दुकान से निकलते हुए एक मध्यवय से सज्जन को कहते सुना – परेशान हो गए हैं। महीना भर हो गया, यही चल रहा है। न तो सर्दी से निजात है और न ही बर्फबारी से...। देखो बर्फ गिरते ही सारे पर्यटक चले जाते हैं। धंधा चौपट हुआ जा रहा है।
मंजरी से ने मेरी तरफ देखा। यार दुनिया में कुछ भी निरापद नहीं है। हम जिस चीज के लिए यहाँ आए, ये लोग तो उसी से उकता गए। - बर्फ पर जमा-जमाकर पैर रखते हुए उसने पूछा – क्या हरेक के लिए खूबसूरती के मायने अलग होते हैं?
मेरे पास जवाब नहीं था। एक सवाल था, क्या दुनिया में कुछ भी निरापद नहीं है, खूबसूरती भी नहीं। मैं चुप था और मंजरी के लाल होते चेहरे, चमकती आँखें और मादक अदाओं को देख रहा था।
कहानी का मॉरल - सूत्र 113
सौंदर्य निरापद (risk-free) नहीं होता.

Monday 5 September 2011

दुख-सुख का तराजू जीवन

यार तुम्हारी राईटिंग में इतनी निगेटिविटी क्यों रहती है? – बहुत झल्लाया हुआ-सा स्वर था। वो मेरे पोट्रेट पर काम कर रहा था। उसे व्यक्तिगत तौर पर खिलते और चटख रंग पसंद है, इसलिए उसकी सारी की पेंटिग्स में बहुत खुले और खूबसूरत रंग हुआ करते हैं। जैसे ही उसने ब्रश का पहला स्ट्रोक दिया... मटमैला-सा रंग कैनवस पर छिटक गया... उसने बहुत उखड़े मन से ब्रश को पानी में डुबोया और कपड़े के हल्के स्ट्रोक्स से उसे सूखाने लगा। मटमैले रंग ने उसका मन खराब कर दिया था... मुझे लगा कि उसके ब्रश को भी मेरी बीमारी लग गई, मैं और उदास हो गई। उसने झल्ला कर मेरे कंधें झिंझोड़े... बोलती क्यों नहीं? – मुझे समझ नहीं आया कि अभी इस वक्त उसे क्या याद आया होगा कि इस विचार ने उसकी एकाग्रता को भंग कर दिया। अभी हमारे बीच कुछ भी साझा नहीं है... कोई अंकुरण तक नहीं हुआ है... फिर भी उसने पता नहीं कैसे मेरी जमीन पर हक जमा लिया है। मैं घबराकर विषयांतर करती हूँ – कला का लक्ष्य क्या है?
उसकी चिढ़ जस-की-तस है – ब्यूटी, सौंदर्य, खूबसूरती... - थोड़ी देर का पॉज देने के बाद – तुम्हें क्या लगता है?
मैंने खुद को पूरी तरह से संतुलित किया – मेरे हिसाब से व्यक्तित्व का परिष्कार...।
बात पूरी होने से पहले ही उसने झपट ली – ... और तुम्हें लगता है कि ये सिर्फ ट्रेजेड़ी और निगेटिविटी से ही हो सकता है!
मैं फिर निरूत्तर...। कहीं से दिमाग में कुछ क्लिक हुआ... – मैंने बहुत सारी जगह पढ़ा-सुना है ऐसा। शैली ने भी कहा है ना कि – ‘अवर स्वीटेस्ट सांग आर दोज विच दैट टेल ऑफ सेडेस्ट थॉट...’ या फिर ‘है सबसे मधुर वो गीत जिसे हम दर्द के सुर में गाते हैं...’- मैंने थोड़ा-सा चिढ़ाते हुए कहा।
बकवास है... कोरी बकवास... जीवन सिर्फ दुख ही दुख नहीं है। योर एप्रोच इज वन साइडेड... – उसकी झल्लाहट बरकरार थी।
मैंने मुस्कुराकर कहा – दूसरी साइड के लिए तुम और तुम्हारे जैसे तमाम लोग हैं ना...! देखो कितने खूबसूरत रंग होते हैं तुम्हारी पेंटिग्स से... फुल ऑफ लाइफ...। – मैंने उसे पटरी पर लाने की कोशिश की, कुछ हद तक सफल रही ही होऊँगी तभी तो कंम्प्युर-मोबाइल में आने वाले स्माईली की तरह हल्की सी मुस्कुराहट उसके होंठों के कोनों से झरी थी, लेकिन वो पूरी तरह से मेरी बात से मुत्तमईन नजर नहीं आया। उसने अपने स्टूडियो की लाइट बुझा दी थी... इशारा था यहाँ से बाहर चलने का। बाहर आते ही सफेद रोशनी आँखों पर पड़ी थी, उसकी बड़ी-खुली बॉलकनी मुझे हमेशा ही फेसिनेट करती रही है, और उस पर पड़ा बेंत का झूला... उसके घर में मेरी सबसे पसंदीदा जगह... तुरंत पहुँचकर कब्जा कर लिया। वो शायद उसी विचार में डूब-उतरा रहा था।


मुझे नहीं लगता कि दुख को जीवन का मूल स्वर होना चाहिए। - उसकी सुई वहीं अटकी पड़ी है।
मैंने अनमने होकर जवाब दिया – मुझे लगता है दुख संभावना है... सब कुछ के एक दिन ठीक होने की... ये प्रवाह है, गति है।
और सुख....? – मुझे पता नहीं क्यों ये यकीन हुआ कि वो मेरी बात से प्रभावित हुआ।
सुख... – मैंने थोड़ा सोचते हुए कहा – वो अंत है, रूका हुआ पानी... क्योंकि उसमें बेहतर होने की संभावना नहीं है। - मैं इस विषय से थोड़ा ऊब गई थी – पता है संभावना है तो ही जीवन है। जिस दिन ये खत्म, जीवन खत्म... तो सुख के कुछ समय बाद ही जीवन की ढलान शुरू हो जाती है। इस दृष्टि से सुख वर्तमान है और दुख भविष्य... – मैं अपने ही निष्कर्ष पर मुग्ध हो गई... शायद वो भी... – ओ... ।
लेकिन सुख और दुख जीवन का ही हिस्सा है। - उसने फिर से विचार का सिरा मुझे थमा दिया।
हाँ... अब ये अलग मामला है कि किसी को कुछ तो किसी को कुछ आकर्षित करता है। - मैंने बात को बंडल बनाते हुए कहा।
उसने सवाल किया, तीखा, चुभता हुआ – तो तुम्हें दुख आकर्षित करता है...! – उसने फिर से उसे खोलकर फैला दिया। मुझे लगा मैं एक गहरी खाई के मुहाने पर खड़ी हूँ। मैं चुप हो गई। बहुत देर तक वो मेरे जवाब का इंतजार करता रहा। मुझे अच्छा लगा कि उसने मुझे हारने के अहसास से बचा लिया, वो बहुत मीठे से मुस्कुराया – ठीक है तुम दुख हो मैं सुख... तुम संभावना हो, मैं अंत... तुम मेरा भविष्य हो मैं तुम्हारा वर्तमान...- पता नहीं कैसे वो एक जटिल-से संबंध को इतनी सरलता से परिभाषित कर गया।
मुझे लगा कि इस बहाने उसने जीवन की परिभाषा तय कर डाली...। मैंने दूर क्षितिज पर नजरों की कूची फेरी तो... सूरज का निचला हिस्सा धरती में धँस गया। शाम उतर आई थी।

कहानी का मॉरल – सूत्र नं. 127
दुख भविष्य है, सुख वर्तमान