Sunday 10 November 2013

अनुभवों के इस पार...

माँ को हमेशा ही ये दुख रहा है कि इस लड़की का घर के किसी काम में मन नहीं लगता है। कभी उन्हें बेटी की माँ होने का सुख भी नहीं मिला। अपनी छोटी बहन की छोटी-छोटी बेटियाँ घर का काम करती और माँ को आराम देती, लेकिन उनकी बेटी घर के काम में जरा भी हाथ नहीं बँटाती थी। कोई पढ़ने-लिखने में ऐसा तीर भी नहीं मार रही थी कि लगे चलो, घर के काम नहीं तो कम-से-कम पढ़ाई में तो अव्वल आ रही है। उसने माँ को किसी भी मोर्चे पर गर्व करने का मौका नहीं दिया। बाद के सालों में हमेशा उसे ये महसूस होता रहा। अक्सर त्यौहारों के मौकों पर जब घर का काम बढ़ जाता, तब माँ को बहुत ही ज्यादा इस बात का अहसास होता कि काश उनकी बेटी भी उनके काम में हाथ बँटाए तो उन्हें थोड़ी राहत हो। जब कभी माँ ने उससे ये कहा... उसने ये कह कर माँ को चुप करा दिया कि आपसे जितना बने आप उतना ही क्यों नहीं करती हैं? दुनिया में सब काम मोल होता है। सब काम आप खुद ही क्यों करना चाहती हैं?
समझ में तो माँ को भी नहीं आता कि उन्हें ऐसी क्या ज़िद्द होती है कि वो घर का हर काम खुद करना चाहती हैं? अब दीपावली के कामों को ही देख लो... सफाई के बाद भी कितने काम ऐसे होते हैं, जो दीपावली के ऐन दिन तक चलते हैं या फिर उसी दिन किए जाते हैं। न तो वो किसी काम को मिस करती है और न ही किसी और से करवाती है। यहाँ तक कि एक बार खुद पापा ने कहा था कि इतने हैक्टिक शेड्यूल में रंगोली बनाना कोई जरूरी तो नहीं है, मत बनाओ...। तो माँ ने चिढ़कर कहा था कि ‘तो क्या दीपावली बिना रंगोली के ही निकल जाने दूँ?’ दादी ने सुझाया कि ‘बाजार में इतनी बड़ी-बड़ी रंगोली तैयार मिलती है, (उनका मतलब स्टिकर से था) वो ही लाकर लगा देते हैं। दो घंटे कमर और गर्दन तोड़कर बनाती हो और अगले दिन उसे झाड़ू से साफ कर दो... ये भी कोई बात हुई भला’, लेकिन माँ ने कभी किसी का कहा माना है जो अब मानती...! हर दीपावली पर यही सब कुछ दोहराया जाता...। यूँ रोली को बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता था, लेकिन जब माँ रोली पर खिझती थी, तब उसे लगता था कि जब माँ से होता नहीं है तो इतना सब करती ही क्यों है? माँ खुद ही नहीं जानती रोली को क्या बताती... बस सब ऐसा ही चलता रहा।
शादी होकर ससुराल आई तो सासूमाँ को भी ऐसा ही सब कुछ करते देखा। माँ की तरह सासूमाँ से भी उसने यही कहा कि चूँकि ‘मैं मदद नहीं करा सकती है, इसलिए क्यों नहीं हम सब मोल करवा-मंगवा ले...।’ लेकिन माँ की ही तरह सासूमाँ ने भी इंकार कर दिया। उनके पास अपने तर्क थे... ‘घर का शुद्ध होता है’, ‘जिस तरह से हम कर सकते हैं, कामवाले थोड़ी करते हैं’, ‘पैसा कितना लगता है’, ‘बाजार से कितना और क्या-क्या आएगा’, ‘फिर त्यौहार पता ही कैसे लगेगा’ या फिर ‘जो कुछ पारंपरिक तौर पर बनता है, वो सब थोड़ी बाजार में मिल जाता है’। रोली का अब भी घर के कामों में बहुत मन नहीं रमता था। हालाँकि थोड़ा-थोड़ा करने लगी थी, लेकिन बहुत ज्यादा तब भी नहीं। फिर सासूमाँ ने उस पर इस तरह की कोई जिम्मेदारी डाली भी नहीं थी। जिंदगी बहुत मजे में कट रही थी। उसने माँ और सासूमाँ की एप्रोच को ‘दुनिया की सारी माँओं’ के एक जैसे होने के खाँचे में डाल दिया था, क्योंकि आखिर माँ और सासूमाँ में बहुत सारी असमानताएँ थी, लेकिन इस मामले में दोनों ही एक-जैसी निकलीं।
उस साल दिवाली पर सब कुछ गड़बड़ हो गया। बरसात कुंवार के आखिर तक खिंचती चली आई... बरसात-गर्मी, गर्मी-बरसात में सासूमाँ बीमार हो गई। सफाई जैसे-तैसे कामवालों के भरोसे खींची... बस खींच ही ली थी। वो भी समझ रही थीं, कैसे हो सकता है। मुश्किल नौकरी के बीच घर के काम और उस पर त्यौहार के अतिरिक्त काम, उनकी बेबसी ये कि वे खुद कोई मदद कर पाने की स्थिति में नहीं थी। अक्षत भरसक मदद कर रहे थे, लेकिन वो भी बार-बार वही कह रहे थे, जो कुछ अब तक रोली कहती आई थी। जितना हो, बस उतना ही करो... लेकिन रोली थी कि जाने से पहले बहुत कुछ निबटा कर जाती और देर से आती तब भी आकर भिड़कर काम करती। थककर सोती और सुबह उठकर फिर से वही चक्की। दिन-रात, रात-दिन एक कर उसने बहुत सारे काम किए...। आखिर में मिठाई बनाने की बारी आई, जाने कैसी हुलस थी कि हर चीज़ खुद बनाना चाही थी रोली ने। सासूमाँ और अक्षत दोनों ने ही उससे कितना कहा कि बाज़ार से जो चाहो खरीदा जा सकता है। बहुत मत बनाओ... उस शाम मठरी, चक्की, चिवड़ा, चकली, सेंव, लड्डू, शकरपारे की थालियाँ भरकर जब उसने डायनिंग टेबल पर सजाई तो जाने कैसा संतोष का भाव उभरकर आया, उसे जो महसूस हुआ उसके लिए उसके पास शब्द नहीं थे, बस भाव थे... तृप्त, संतृप्त...। सबकुछ उसने अक्षत की मदद से बनाया, कुछ बहुत अच्छा बना और कुछ में कसर रह गई... लेकिन उसने बनाया। लेकिन रंगोली रह गई... अरे, रंगोली के बिना दिवाली कैसी... ? अगली सुबह जल्दी उठकर उसने रंगोली बनाई, बंदनवार सजाए... सोफा-कवर, कुशन-कवर, पर्दे और चादरें बदलीं... और सुकून से सबकुछ को निहारने लगी तो लगा बहुत दिन बाद वो खुद के बहुत आकर बैठी। इतने वक्त में उसे खुद का ख़याल ही नहीं आया। उसने खुद से सवाल किया ‘आखिर, कितने सालों से पहले वह माँ को फिर सासूमाँ को कहती आई कि इतना मर-भिड़कर त्यौहार मनाने का फायदा क्या है? सारा बाज़ार आखिर क्यों सजा होता है, त्यौहार के लिए? और अब खुद ने भी वही सब किया...!’ रोली उलझ गई... इतने दिनों से लगी रही और अब जब त्यौहार के मुहाने पर खड़ी है, सवाल आ खड़ा हुआ, ‘जिस सबका उसने विरोध किया, वही सब उसने भी किया... क्यों???’ चैतन्यता में पैदा हुआ सवाल रात भर में छनकर अवचेतन में उतर गया। नींद एक तरफ अवचेतन की प्रक्रिया दूसरी तरफ... नींद में ही जवाब भी उभरा था। खुद करने के बाद जो मिलता है उसे ही आनंद कहा जा सकता है। बिना किए आनंद की सृष्टि नहीं होती। पहली बार उसे महसूस हुआ था कि वो खुद दीवाली मना रही है। जो कुछ माँ और सासूमाँ करती रहीं, उसका सार अब समझ में आया। कर्म से ही आनंद की उत्पत्ति होती है, अकर्मण्यता सिर्फ उदासीनता को ही पोसती है। नरक चौदस की सुबह जब उसकी नींद खुली तो वह बहुत हल्की-फुल्की थी... सबकुछ उसने अपने मन-मुताबिक कर डाला था। बस गिफ्ट्स नहीं खरीद पाई थी। ओ... चलो, जल्दी खाना निबटाकर ये भी आज कर डालूँ, आखिर कल ही तो है दीपावली...। शरीर की अनिच्छा के बावजूद मन तरंगित था और उसी की तरंग में उसने बिस्तर छोड़ दिया।
कहानी का मॉरल- सूत्र 151
कर्म से ही रस की निष्पत्ति संभव है.


Wednesday 4 September 2013

सहना-होना

जाने किसका नुकसान बड़ा है, या किसका दुख बड़ा है, लेकिन लगभग पांच महीने बाद जब मैंने उसे देखा तो लगा कि शायद मैंने अपने दुख को बड़ा समझ लिया है। उस दोपहर जब मैं उससे मिला तो वह अपनी खिड़की के नीचे दीवार से पीठ लगाए बैठा था, हमेशा की तरह कमरे का दरवाजा खुला हुआ था पश्चिम की तरफ खुलती खिड़की से आती धूप की कतरनें उसके सिर से गुज़रकर कमरे के बीचों बीच बिछी हुई थी। वो बेख़याली में था... इतना कि मैं चलकर कमरे के बीचों बीच तक पहुँच गया था, धूप के जिस चोकोर टुकड़े को वो एकटक देख रहा था, मैंने उसे काट दिया था... तब भी वो उसे ही देख रहा था। कुछ देर मैं ऐसे ही खड़ा रहा, उसकी धूप पर अपने शरीर को टिकाए हुए... एकाएक वो लौटा खुद में... मुझे देखकर वो खड़ा हो गया। खिड़की की चोखट पर दोनों हथेलियाँ टिकाए, जैसे वो खुद को मेरे हवाले कर रहा हो... जाने क्या था उसकी आँखों में कि मेरा अपराध बोध गहराने लगा था। पाँच महीने गुज़र गए थे, मैंने पलटकर उसे देखा नहीं था।
इतना ही वक्त लगा था, मुझे ये समझने में कि चाहे हम दोनों के दुख की शक्लें अलग-अलग हैं, उसकी तासीर एक सी है और एक-सी तासीर वाले दुख को साथ-साथ ही बहना चाहिए। क्योंकि दुख की तासीर ही तरल है... आँसू की शक्ल-सी। मैंने उसके चेहरे की तरफ नज़र की तो उसके चेहरे का कातर भाव सहा नहीं गया... मैं खुद को रोक नहीं पाया। दौड़कर उससे लिपट गया... वो शायद किसी और चीज़ की उम्मीद कर रहा था, मेरे इस व्यवहार से वो हतप्रभ रह गया। जाने किस विचार ने उसके हाथों को जकड़ा लेकिन फिर उसका दुख भी बहने लगा था... उसने मुझे कस लिया था। हम दोनों रोते रहे थे, न जाने कितनी देर तक। या शायद रो नहीं रहे थे, दुख का संवाद सुन रह थे, वैसे ही एक दूसरे के गले लगे हुए।
जब हम अलग हुए तो वो सॉरी-सॉरी कह रहा था। मैंने उसके सिर को थपथपाया था... जाने कैसे इतना बड़प्पन आ गया था कि अपनी ही उम्र के दोस्त को सांत्वना दे रहा था, उसी दुख के लिए, जो उसी शिद्दत के साथ मेरे भीतर भी बह रहा था। हम दोनों बहुत देर तक साथ बैठे... मौन, अव्यक्त। मैं उससे सुनना चाहता था, कुछ कहना भी... लेकिन हम दोनों में से कोई कुछ भी नहीं बोला... और मैं यूँ ही चला आया था। आने के बाद लगा था कि मैं उसके पास बहुत कुछ भूल आया हूँ, या फिर शायद छोड़ ही आया हूँ।

वो इन दिनों खुद से बहुत-बहुत नाराज़ था, इतना कि बुखार में पड़ा रहता, लेकिन कोई ट्रीटमेंट नहीं लेता, कहीं दर्द हो रहा हो, वो उसे सहता रहता है। पूर्वा का स्यूसाईड नोट जो उसने उसे पोस्ट किया था, अक्सर वो उसे पढ़ता रहता था। उस शाम अपने कमरे की खिड़की से टिककर उसने पहली बार मुझे बताया था कि ‘पूर्वा के न रहने के लगभग 20 दिन बाद मुझ ये नोट पोस्ट से मिला था। और इस एक नोट ने मुझे खत्म कर दिया... इतनी पीड़ा तो उसके न रहने पर भी नहीं थी, जितनी इस नोट के मिलने से मिली है।’ मैं जानता था कि ये उसकी नितांत अपनी पूँजी है... क्योंकि पूर्वा ने ये मुझे नहीं लिखा था, उसे लिखा था। इसलिए मैंने ये जानने की कोशिश ही नहीं की कि आखिर उसने इसमें लिखा क्या है? पता नहीं शायद वो रेनडमली इसे पढ़ रहा था शुरुआत से, लेकिन मुझे सुना रहा था ‘जबसे तुमसे मिली हूँ, बस खुद के साथ द्वंद्व में ही रहती हूँ। तुमसे मिलने के बाद मेरी खुद को लेकर और दुनिया को लेकर समझ गड्डमड्ड हो गई है। खुद को लेकर आजकल सबसे ज्यादा संशय में रहने लगी हूँ। क्योंकि अब तक मैंने अपने बारे में जो जाना, समझा है, तुम मुझे मेरे बारे में जो बता रहे हो, बिल्कुल उलट है...। मैं इतनी बुरी तरह से उलझ गई हूँ कि मुझे अपने-आप से वितृष्णा होने लगी है। हो सकता है तुम मुझे ऐसा नहीं कह रहे हो, लेकिन मेरे भीतर जो पहुँचता है, वो इसी तरह पहुँचता है। पता है, ऐसा होता है कि जो मैं अनजाने या फिर अनचाहे कर देती हूँ, उससे मुझे खुद ही बहुत ग्लानि और चिढ़ होती है, लेकिन जब तुम उसे पाइंट आउट करते हो, तो लगता है कि आय हेट दिस... मतलब मुझे अपने ‘उस होने’ से घृणा होने लगती है। मैं ये भी जानती हूँ कि तुम सब कुछ सहज भाव में करते हो, कहते हो... लेकिन बस इससे आगे की मेरी समझ चुक जाती है...। मैं एक किस्म के पागलपन में फँस जाती हूँ, मुझे लगने लगता है कि मैं अपने होने को बदल दूँ... साफ कर दूँ मैं उसे जो मैं हूँ। और बस जो शुरू होता है, उसे त्रास कह लो, संघर्ष कर लो, जुनून कह लो फिर कुछ और... मैंने बहुत कोशिश की कि मैं खुद को वैसे कर लूँ जैसा तुम चाहते हो, लेकिन मैं यहाँ भी हार गई। अब मैं न तो वह रही जो मैं थी और न ही वह जो तुमने चाहा था। और दुनिया को लेकर भी मेरी सारी समझ मेरे अपने स्वभाव से उपजी है, मुझे लगता है कि मुझे वो सब कुछ जानने की कतई जरूरत नहीं है, जो मुझे सचेत करे, चौकन्ना बनाएँ। आखिर क्यों मुझे उस सबको जानना चाहिए जो मुझसे मेरी सहजता छीन सकता है। ये मेरी बुराई ही है कि मैं दिखाई देने के पार जाकर नहीं देखती। असल में मैं देखना चाहती ही नहीं, सोचती हूँ, उससे हासिल क्या होगा?
ऐसा सोचना बहुत पेनफुल था, करना तो फिर... लेकिन फिर लगा कि आय हैव नो ऑप्शंस... तुम जो हो वो हो, लेकिन मैं वो भी नहीं हूँ जो मैं हूँ और वो भी नहीं जो तुम चाहते हो। बहुत मुश्किल वक्त था, जब मुझे निर्णय करना था। तुम शायद समझ पाओ कि मेरे लिए खुद को खत्म करना आसान लगा बनिस्बत इसके कि इस रिश्ते को खत्म कर दूँ। सोचकर देखो कि किस तरह की मजबूरी रही होगी मेरी।
मैं एक जीत चाहती हूँ तुम पर, जीते जी न सही मर कर ही। वैसे तो नहीं जीत पाती, इसलिए...।’ वो रूक जाता है... एक धीमी-सी कराह उभरती है और डूब जाती है, उसी अँधेरे मौन में जिसमें से उसकी आवाज़ आ रही थी। बहुत देर तक सब कुछ बिल्कुल शांत रहता है।

उस दिन वो पूर्वा की लिखी हुई कतरनें लेकर बैठा था... मेरे सामने। एक-एक करके उसने उसे अपने पलंग पर बिखरा दिया था। देख, क्या-क्या लिखा करती थीं वो, कितना कुछ। फिर एकाएक चुप हो गया, हवा में खो गई उसकी नज़र... फिर लौट आया उसने मेरे कंधे पर अपना हाथ रखा... सिसकी रोकते हुए कहा-‘अब सोचता हूँ तो लगता है कि किसको लिखकर दिया था उसने ये सब... किसको? मुझे....? कौन हूँ मैं, और क्या किया मैंने उसके लिखे का... मुझे क्यों...? क्या मैं इसके लायक हूँ...?’ वो फिर से शून्य में खो गया और सिसकने लगा।
पूर्वा मेरी हमज़ाद... जुड़वाँ। आयडेंटिकल नहीं थे, लेकिन कुछ गहरे जुड़ा हुआ था, हम दोनों के बीच। साथ-साथ बड़े हो रहे थे, उसका हर बदलाव मैं देख रहा था, महसूस कर रहा था। यहाँ तक कि उसके बड़े होने की घटना को भी मैं ही देख रहा था। मलय दाखिल हुआ था, हमारी जिंदगियों में। मेरा दोस्त होकर। जैसे मैंने उसके दोस्त हैरिस को स्वीकार किया था, उसने मलय को, लेकिन हैरिस को लौटना पड़ा था, मलय ठहर गया था। पूर्वा मुझसे छुपाने लगी थी, कुछ... बहुत कुछ। मैं जान नहीं पाया था, लड़कियों के बड़े होने का सबसे पहला संकेत गोपनीयता हुआ करती है, ये मैं आज जान पा रहा हूँ। पूर्वा की डायरी मुझे नहीं मिली होती तो यकीन ही नहीं होता कि मलय और पूर्वा के बीच कुछ बहुत गहरा, बहुत गाढ़ा सृजित हो रहा था। जब मैंने पहले पहल उसकी डायरी पढ़ी थी तो मुझे लगा था कि मैं ठगा गया हूँ। मैंने जाना था कि मैं उसके हरेक मूवमेंट का गवाह हूँ, साक्षी भी, लेकिन मैं नहीं था। मलय था, इसलिए मैं बहुत हर्ट था। वक्त लगा था, ये जानने में कि भाई कब दूर हो जाता है? और कब कोई और उसकी बहन की जिंदगी में करीब हो जाता है। तो क्या देह भी रिश्तों की सीमा है... ये बड़ा खतरनाक सवाल था, और मैं इससे बचना चाह रहा था, क्योंकि पूर्वा मेरी बहन थी। हाँ थी... वो अब नहीं थीं... नहीं मेरी बहन तो वो अब भी थी, लेकिन वो नहीं थी। मर गई थी, अपनी जान उसने खुद ली थी। पूरी डायरी पढ़ते-पढ़ते मुझे लगा था कि पूर्वा एब्नॉर्मल थीं। क्योंकि मैं मनोविज्ञान पढ़ रहा हूँ तो मैंने समझा कि वो एक उलझा हुआ किरदार थी।
उस रात हम दोनों देर तक यूँ ही टहलते रहे थे। मलय में बदलाव देख रहा था, गहरा बदलाव। हाँलाकि वो डूबता-उतराता लगता था, लेकिन फिर भी कभी-कभी ऐसा लगता था कि वो, वो नहीं है। उस रात हम दोनों बहुत देर तक चुपचाप टहलते रहे थे। फिर एकाएक उसने कहा था ‘समीर, मैं जब खुद को देखता हूँ तो लगता है कि मैं इस सबको डिज़र्व करता हूँ। आखिर सिर्फ उसने ही नहीं, मैंने भी तो उससे प्यार किया था। मैं उसके स्तर पर जाकर उसे क्यों नहीं समझ सका? मैं क्यों नहीं समझ सका कि उसमें एक बहुत छोटी बच्ची है, जो ज़हनी तौर पर बहुत नाज़ुक है, मैं क्यों नहीं समझ सका कि सारी दुनिया के आगे जो बहुत परिपक्व और मैच्योर नज़र आने की कोशिश करती है वो पूर्वा असल में एक खोल में है... खोल के भीतर वो बहुत नाज़ुक और बहुत संवेदनशील है। और जब मैंने उसे नहीं समझा है तो जाहिर है कि इस दुख का हकदार भी हूँ मैं...। तुम्हें पता है, उसने ऐसा क्यों किया? ’
इस बार उससे मिलना बहुत लंबे समय बाद हुआ था। कुछ दुनियादारी के काम थे, सो बाहर था। जब हम मिले तो चलते हुए नदी के किनारे जा पहुँचे थे। तीन-चार महीनों के अंतराल में मैंने पाया कि वो बहुत बदल गया है। घाट की सीढ़ियों पर बैठे हुए वो दूसरी तरफ देख रहा था। लगा कि वो बहुत स्थिर हो गया है। इतना कि न दुख नज़र आता है और न ही सुख। जब मैंने उसकी आँखों में देखा तो लगा कि वो पारदर्शी हो गया है। मैंने नज़रे झुका ली, वो शायद बहुत कुछ समझ गया। ‘पता है दुख जीवन का सच है। और कोई चाहे कुछ भी कह ले लेकिन अगला-पिछला जन्म कुछ नहीं होता है, जो कुछ भी होता है, यहीं होता है। मैंने उससे प्यार तो किया, लेकिन उसकी कद्र तक नहीं पहुँच पाया। मुझे लगता है कि मैंने उससे जितना प्यार किया, लगभग उतनी ही तकलीफ भी दी... तो जब तक वो थी, तब तक मैंने प्यार को भोगा और अब उसके नहीं होने पर उस तकलीफ को सहूँगा जो मैंने उसे दी थी। हिसाब बराबर... ।’ हालाँकि ये मेरे मन में ये सवाल तब तक नहीं उठा था, लेकिन जब उसने कहा तो लगा कि वो खुद को देखने लगा है, दूर से। ‘... लेकिन सोचता हूँ कि उस गुनाह का क्या और कहाँ हिसाब होगा, जिसकी वजह से उसने अपनी जान ली। आखिर तो जाने-अनजाने वजह तो मैं ही हूँ ना!’ मेरे लिए कुछ भी कहने की कोई गुंजाईश नहीं थी। ‘होगा... होगा... किसी वक्त उस सबका भी हिसाब होगा। अभी मेरी सज़ा पूरी हुई नहीं है। मैंने कहीं पढ़ा था कि हर दुख किसी गुनाह का परिणाम है, अब लगता है भोगा सच लिखा होगा लिखने वाले ने।’ मैंने उसकी तरफ देखा, भावहीन चेहरा था, जैसे वो किसी और के बारे में बात कर रहा हो। मैंने याद किया आज दिन भर में एक बार भी उसकी आँखें नहीं भीगी... एक बार भी उसकी आवाज़ नहीं लरज़ी, लगा कि वो शायद अपने दुख से बाहर आ गया है, लेकिन तुरंत ही लगा कि यदि दुख से बाहर आ गया होता तो इतना निर्लिप्त होकर दुख को नहीं सोचता-कहता... तो क्या उसने खुद को खुद से अलग कर लिया है? मुझे याद आया उसने एक दिन कहा था... ‘आजकल मैं अक्सर खुद से अलग हो जाता हूँ, देखता हूँ कि आखिर इस दुख से मुझे कहाँ-कहाँ दुख रहा है। पता है, कभी-कभी खुद को तड़पते देखते हुए अजीब-सा नशा होता है... जैसे मैं अपने किसी दुश्मन को तड़पते हुए देख रहा हूँ। मैं समझ ही नहीं पा रहा हूँ, कि मैं क्या कर रहा हूँ और मुझे हो क्या रहा है?’ मैं उसकी तरफ देख रहा था और वो झुककर नदी के पानी में अपना अक्स... मुझे दो-दो मलय दिख रहे थे, शायद ऐसा हो भी रहा हो।
कहानी का मॉरल - सूत्र 139
ज्ञान का लक्ष्य इंसान को 'भोक्ता' से 'दृष्टा' बनाना है



Friday 5 April 2013

बेखुदी का बड़ा सहारा है....


तू नींद की गोलियां कब से लेने लगी?
अरे... मैं पूर्वा के क्लिनिक में हूं। आजकल वो खुद को ही चौंकाने लगी है। कभी रात-रात भर जाग कर निकालने में... कभी ऑफिस में पागलों की तरह काम करते हुए, जब सब चले जाते हैं और ऑफिस बंद करना होता है तब प्युन आकर कहता है, ऑफिस बंद करना है, तो कभी 60 की स्पीड पर पुल चढ़ती गाड़ी में रिवर्स गियर लगाते हुए या फिर चलती गाड़ी में न्यूट्रल गियर लगाते हुए...। अब तो वो इतनी चौंकने लगी है कि जब वो नहीं चौंकाती है तब भी चौंकती है।

कितनी देर से बालों में कंघी घुमाती जा रही है उसे खुद भी याद नहीं.... रक्षा जब घर भर की सफाई करके जाने लगी तब उसने ही टोका... दीदी, क्या हुआ?
क्या हुआ!
तब से कंघी कर रही हैं?
ओह... कुछ नहीं ऐसे ही।
क्या कहती... ! कि आजकल धुन-सी सवार रहती है। टहलने निकलती है तो याद ही नहीं पड़ता कि कितनी दूर निकल आई है। चलती ही चली जाती है, बस...। नहाती है तो घंटा-घंटा भर... पानी ही उँडेला करती है। कई बार किताब हाथ में होती है और नज़रें शून्य में, कितनी ही देर तक वो यूँ ही बैठी रहती है।

जानती है कि यदि फोन आएगा तो बजेगा, लेकिन फिर भी चाहे कोई काम कर रही हो, लौट-लौटकर फोन के पास आती है। फोन पास हो तो उठा-उठा कर की-पैड अनलॉक करती है और देखती है कि कहीं ऐसा न हो कि वो काम में मशगूल हो गई हो और कोई मैसेज ही आया हो। अब तो जानने भी लगी है कि अब न तो फोन आएगा... न मैसेज... पर कोई आस है जो उसे मानने से रोके हुए है। दिन में हजार बार फोन के कांटेक्ट नंबर तक जाती है... मैसेज बॉक्स के न्यू मैसेज पर जाती और फिर लौट आती है। दिन में कई-कई बार वो फोन को बंद करती है और खुद से वादा करती है कि अब घंटे भर तक शांति से काम करेगी... घंटे भर बाद फोन चालू करेगी। काम करना शुरू करती है, लेकिन नज़रें घड़ी पर टिकी रहती है... फिर खुद ही को समझाती है ‘यदि किसी और का अर्जेंट कॉल होगा तो...!’ और 10 मिनट नहीं गुज़रते फोन चालू हो जाता...। नहीं... उसे अब उसकी जरूरत नहीं है, आखिर मान क्यों नहीं लेती... वो ही तो कहता था कि ‘मान लो तो आसानी होती है।‘ लेकिन बस मान ही तो नहीं पा रही है। खुद से सवाल पूछती है... आखिर वो क्या कहे, जिससे उसे समझ आए कि अब ये सब खत्म है... क्या और कैसे कहे? वो किन शब्दों में कहेगा, तब तुझे समझ आएगी... किन शब्दों में तू सुनना चाहती है? या कब तक उसकी जिंदगी से जौंक की तरह चिपकी रहना चाहती है, कब तक उसका खून पीते रहना चाहती है, कब तक?
वो समझाती है खुद को... हाँ, अब ये सब खत्म है। आगे सोच, अब क्या? लेकिन वो मान ही नहीं पाती है। उसने ही तो कहा था कि उसकी चिता वो खुद सजाएगा... अरे, ये सब किसी भावुक क्षण में कह दिया, तो क्या उसे जीवन भर ढोएगा... क्यों ढोएगा?

कितने दिनों तक ये होता रहा कि वो रास्ते भर लोगों की शक्लें देखते हुए गंतव्य तक पहुंचती... शायद वो रास्ते में ही नज़र आ जाए। पहले की तरह, जब वो नाराज़ हुआ करती थी तो गाड़ी के सामने खड़ा होकर लिफ़्ट मांगता था। उफान आता था और फिर एकदम बैठ जाता था। नहीं... अब कभी-कभी ऐसा नहीं होगा... वो खुद को समझाना चाहती है। दुखी लोगों की, पात्रों की हिम्मत को नज़ीर बनाती... फिर ज़ब्त छूट जाता। नहीं जानती कब से ऐसा होने लगा है, लेकिन उसे लगता है कि अनंतकाल से ऐसा ही होता आ रहा है।
ये तो सबसे पहले ही तय हो चुका था कि यदि किसी की जिंदगी में भी कोई और दाखिल होगा तो अच्छे दोस्तों की तरह हम एक-दूसरे को बता देंगे... यदि ऐसा कुछ है तो वो मुझे बता सकता था। इस तरह की उदासीनता उसे खोखला कर रही है और ये बात भी उसने कई बार कही है कि झगड़ लो... खींच लो मुझे अपनी तरफ, लेकिन ठंडापन नहीं। नहीं बर्दाश्त होता है... न जाने कितनी बार उसने ख़यालों में फांसी लगा ली है। न जाने कितनी बार उसने ये शहर, ये घर, ये मोबाइल नंबर छोड़ने की योजना बना ली है... लेकिन बस कुछ हो ही नहीं पाता।
पहले तो उसने मैसेज भी किए... फोन भी। वो या तो जवाब नहीं देता, या जवाब ऐसे देता कि वो तिलमिला जाती। धीरे-धीरे उसने हर चीज ज़ब्त करना शुरू कर दी। वो इस रिश्ते को हर हाल में बचाना चाहती थी। जान रही थी कि कुछ सड़ रहा है बहुत बुरी तरह से... अब उसके लिए वो वैसी नहीं बची है। उसकी कोई भी चीज उसे लुभाती नहीं है। बल्कि तो हर चीज उसे चिढ़ाती है... खिझाती है या जाने ऊबाने ही लगी हो। वो सहज थी उदास होती थी तो उसके सामने रो लिया करती थी और उत्साह में होती थी तो नजर आने लगती थी। उसके हर सुख-दुख से उसको वास्ता था, अब वो दुख में तड़प-तड़प कर रह जाती है और उस तक हल्की-सी आँच भी नहीं पहुँचती... यदि वो खुश होती है तब भी वो उदासीन ही बना रहता है। पहले उसकी उदासी, उसका रोना, उसका भटकाव.... उसकी इच्छा, उसका कहा हर चीज का मतलब हुआ करता था। धीरे-धीरे हर मतलब खत्म होने लगा। उसने देखा, लेकिन अनदेखा करती रही।

प्रेम केमिकल लोचा है... तो क्या इसका कोई इलाज नहीं है? ये कभी ठीक नहीं होता? दुनिया में लोग क्या-क्या सह लेते हैं? और मुझसे इतना-सा दुख सहा नहीं जा रहा है! सारे सहने वाले लोग एक-एक कर सामने आते हैं... उसे लगता है कि उनसे पूछे कि कैसे सह लिया...? मुझी से क्यों नहीं सहा जा रहा है? उसे याद आ रहा है कहीं पढ़ा हुआ... सहना ही सच है। और दुख जब घेरता है तो सारे रास्ते पहले ही अवरूद्ध कर देता है। हम दुख के सामने हमेशा ही निहत्थे होते हैं।

वो बार-बार उस दिन की घटना को रिवाइज करती है। उसने खुद को पूरी तरह से खोल कर रख दिया था, नहीं जानती थी गलती कर रही है। बताया था... हाँ उसे टीनएज में एक लड़के से प्यार हुआ था, जिसे वो आज खुद ही प्यार होना नहीं कह पाती है। फिर इस उम्र में किसे प्यार नहीं होता... ? प्यार क्या कहो... बस एक गड़बड़... वो लड़का उसे पसंद करता था। जाहिर है कोई आपको पसंद करे और आप उससे संपर्क में रहें तो थोड़ा बहुत सॉफ्ट कॉर्नर तो हो ही जाता है... बस। ये उस वक्त का सच था। आज वो उससे पूरी तरह से बाहर आ गई है। वो उसके सामने आ खड़ा हो तो उसके भीतर कोई नया परिवर्तन नहीं होगा। यदि इसकी कोई माप है तो माप कर देख लें। एक कॉमन दोस्त उसे कुछ दिन पहले मिला था, और कुछ दिनों से वो उससे संपर्क में है।
उसे लगता है कि उससे संपर्क कहीं न कहीं उसके बारे में जानने के लिए ही है। जबकि वो ये सवाल खुद अपने आप से बीसियों बार पूछ चुकी है कि क्या वो उस लड़के के बारे में कुछ भी जानना चाहती है? वो नहीं जानना चाहती है। ऐसा भी नहीं है कि वो उस लड़के का नाम ही नहीं लेना चाहती है और न ही ऐसा है कि वो उसके बारे में कुछ जानना चाहती हो या उससे मिलना चाहती हो... बस। इतना ही तो कहा था उसने कि ‘तुम जो चाहो समझो, मेरा दिल जानता है कि मुझे उसके बारे में कुछ भी जानने में जरा भी दिलचस्पी नहीं है। ये कतई जरूरी नहीं है कि जो कुछ भी तुम्हारे साथ होता है, बस वही मेरे साथ भी होता हो... आखिर मेरी बनावट और बुनावट तुमसे अलग है।’ बस... इतना ही तो कहा था और चली आई थी वो...। उसके बाद न तो उसने फोन किया, न मैसेज... मिलना तो खैर रात का सपना ही हो चला है। इन सारे दिनों में उसने खुद से बहुत सारे वादे कर लिए हैं। वो अब किसी बात पर रिएक्ट नहीं करेगी। उसकी नीयत पर, किरदार पर, जीवन पर, दर्शन पर, कर्म पर, रिश्तों पर, जीने-पहनने-खाने के तरीकों पर... किसी भी चीज पर किसी कमेंट का वो बुरा नहीं मानेंगी... यदि मानेंगी तो न तो प्रतिकार करेगी और न ही कहेगी... लेकिन सोचती है कि आखिर इन सारे वादों का हासिल क्या है? ये सब तो तब होगा न जब वो लौटेगा... और अब वो नहीं लौटेगा... कभी नहीं। तुझे खुद ही खुद को संभालना है। यही तुझमें बुराई है कि तू बहुत जल्दी अपनी भावनात्मक निर्भरता खो बैठती है। खो दी है... अब... अब क्या ये सोच...।
सोच चल रही है, गाड़ी चल रही है... खुली खिड़की से गर्म हवा के थपेड़े पड़ रहे हैं। न जाने कब से रेडियो में वो गाना चल रहा है, जिसे वो सख्त नापसंद करती है... लेकिन आजकल उसे कुछ भी नहीं लगता... न अच्छा-न बुरा... लगे तो तब न... जब वो खुद हो पाए। घर बस पहुँचने ही वाली है... बहुत दूर से उसे ‘उसकी’ गाड़ी दिख गई। बहुत सारे भाव आते गए-जाते गए... आसपास दुनिया जैसे सरसरा कर निकलती रही लेकिन उसे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था, सुनाई नहीं दे रहा था सिवाय बिल्डिंग के नीचे खड़ी उस गाड़ी के...। ओ... ओ.... ओ.... गफलत में उसका पैर ब्रेक की बजाए एक्सीलरेटर पर पड़ गया... ओह... सड़क पार करता बच्चा बच गया... न जाने कैसे, तुरंत उसे अपनी गलती समझ आई और पूरी ताकत से ब्रेक लगा दिया। बच्चे की माँ के साथ-साथ सारे लोग उसकी गाड़ी के आसपास जमा हो गए.... हंगामा होने लगा। सारे लोग कुछ-कुछ कह रहे हैं, लेकिन उसे तो जैसे कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा है उसे बस वो गाड़ी दिखाई दे रही है। वो इस भीड़ को चीरकर उसकी तरफ भागना चाह रही है, लेकिन फँस गई है। उसकी पूरी चेतना बस उस गाड़ी पर लगी हुई है। तभी उसने उसे देखा। वो गाड़ी में बैठकर चला गया...। निराशा गाढ़ी हो गई... लेकिन नीत्शे याद आ गए ‘जो कुछ सड़ रहा है, उसे एक धक्का और दो’... एकसाथ निराशा और स्थिरता चलने लगी है... सोचा देखें कौन जीतता है। उसका ज़हन जैसे युद्धभूमि बना हुआ है... कटे सिर, कटे हाथ-पैर, चिथड़ा और लहूलुहान शरीर... कितना दर्द, कहाँ से आता है और आता है तो जाता क्यों नहीं है? अब किसी भी सवाल-जवाब, सोच-विचार का कोई मतलब नहीं है, वो जा चुका है। उसने भीड़ से माफी माँगी तब छूटी।

वो लगातार सिर पर चल रहे पंखे को घूर रही है। आँखों को कोरों से आँसू बहते जा रहे हैं और वो बस पंखे को एकटक देखती जा रही है। उसने सुना कि फोन बज रहा है, लेकिन ये ध्वनि उस तक पहुँच नहीं पा रही है... फोन बस बजता ही जा रहा है।
कहानी का मॉरल – सूत्र 142
दुख विकल्पहीन है.