वो जितनी भी बार करीब से गुज़री उतनी ही बार मैं कुछ अटका... कुछ उलझा...। ऐसा नहीं है कि मैं दिलफेंक हूँ और हर खूबसूरत औरत को देखकर आँहें भरने लगता हूँ। खुद मेरी बीवी भी खासी खूबसूरत है और एक प्यारी-सी बेटी भी है। कुल मिलाकर एक संतुष्ट जीवन जी रहा हूँ। बल्कि यूँ कहूँ कि मुझे कभी किसी को देखकर ऐसा नहीं लगा, जैसा आज लगा... शायद इसलिए भी कि उसमें कुछ ऐसा है, जो खूबसूरती से कुछ अलग है... जब हमें शब्द नहीं मिलते हैं तो हम अरीब-करीब के शब्दों से ही काम चला लेते हैं, शायद ‘आकर्षक’ के आसपास कुछ होगा। यूँ यहाँ लगभग हरेक शख़्स परिचित है, ममेरी बहन के घर शादी है तो जाहिर हैं यहाँ सारे ही परिचित होंगे फिर उसे देखकर भी अनजानापन तो नहीं लगा, लेकिन कुछ तय नहीं कर पा रहा हूँ कि कौन है और इससे मैं आखिरी बार कब और कहाँ मिला था?
हाथीदाँत से सफेद सिल्क पर पीले और लाल रंग की चौड़े बॉर्डर वाली साड़ी, सूना गला और कान में मोती के झुमके, कंधे तक कटे करीने से सँवरे बाल, थोड़ा ऊँचा कद... बस इतना ही देख पाया था। मैं अपनी मौसेरी बहन के बेटे से बात कर रहा था, उसी दौरान वो मेरे सामने से करीब चार बार गुजरी होगी। दस साल विदेश में रहा और हाल ही में लौटा हूँ। इतने सालों में बच्चे बड़े हो गए और बड़े अधेड़, पिछले दो दिनों से बस लोगों से मिलता ही रहा हूँ। रागिनी साथ नहीं आई उसे छुट्टी नहीं मिल पाई, फिर वो अपने ससुरालियों के बीच कंफर्टेबल भी नहीं थी, तो मैंने ही सोचा क्यों बेकार में उसे धर्मसंकट में रखूँ। इससे मेरी व्यक्तिगतता को भी आँच नहीं आएगी और उसे भी बंधन से आजादी मिलेगी।
तो तू यहाँ है, आकार से बातें कर रहा है, चल मैं तुझे बहुत देर से ढूँढ रही हूँ। - सरिता दीदी ने आकर मेरी बाँह पकड़ते हुए कहा। मैंने आकार के सिर पर हाथ रखा – फिर मिलते हैं बेटा। - कहकर दीदी के साथ चल पड़ा। बहुत देर से सवाल चुभला रहा था, अंदर रूका पड़ा था या फिर कहूँ कि उसे बाहर आने का मौका भी नहीं मिला था, लेकिन दीदी को देखते ही वो याद आ गया, वो सामने खड़ी दिखी तो आसानी भी हो गई। - दीदी, ये कौन हैं? – मैंने उसकी तरफ आँखों से इशारा कर पूछा।
अरे ये... इसे नहीं पहचाना? ये चेतना की दोस्त है आद्या... तु भूल गया... – वे बड़ी अर्थपूर्ण हँसी हँसी थी।
अचानक मैं सनसना गया – ओ आद्या – बस बुदबुदाया था। तब तक दीदी मुझे खींचकर उसके पास ले गई। - आद्या इसे पहचाना...?
उसके चेहरे पर कुछ अनमने से भाव आए। फिर शायद अपने भावों पर काबू कर लिया और अनिश्चितता में गर्दन हिलाकर नहीं कहा। मुझे थोड़ा झटका तो लगा, लेकिन उसके चेहरे पर आते-जाते भावों ने मुझे ये एहसास करा दिया कि चाहे मैं उसे पहचान नहीं पा रहा हूँ, लेकिन वो मुझे पहचान गई है।
ये ऋषभ... मेरा कज़न...। – दीदी ने कहा। तब तक उसने अपने भावों पर पूरा नियंत्रण कर लिया था, पूरी तरह से स्थिर, शांत और संयत हो गई थी।
अच्छा... – फिर मेरी तरफ मुड़कर बहुत शालीनता से हाथ जोड़कर मुझे नमस्कार किया और कहा – बहुत सालों बाद मिल रहे हैं। - फिर से उसके चेहरे पर कुछ बादल आकर गुजर गए थे। मुझे कहना चाहिए कि उसका अपने इमोशन पर कमाल का नियंत्रण था। इस बीच सरिता दीदी कहीं ओर चली गई थी। हम दोनों को बातें करता देख उसके साथ जो मेहमान थे वो भी कहीं चले गए। मैंने पूछा – खाना हो गया?
नहीं अभी बाकी है, आपका...?
चलिए लेते हैं। - मैंने कहा, और पता नहीं कैसे मैंने एक अप्रासंगिक सा सवाल कर डाला – योर फैमिली ....?
वो थोड़ा चौंकी, मैंने आखिर बेवकूफी जो कर दी थी – ही इज इन जापान, आन ए प्रोजेक्ट, एंज योर्स...
रागिनी तो दिल्ली ही है, बेटी की परीक्षा चल रही है और उसे भी छुट्टी नहीं थी... – फिर थोड़ा हिचक कर बोल पड़ा – यू नो ससुराल में कौन लड़की कंफर्टेबल होगी? फिर मैंने भी जिद्द नहीं की। आखिर थोड़े स्पेस की जरूरत तो उसे भी होती ही है ना... नहीं!
उसने बड़े अनमनेपन से हाँ में गर्दन हिला दी। शादी की रस्में चल रही थी और साथ में खाना भी हो रहा था। बातों का सिलसिला वहीं टूट गया और एक अप्रत्याशित चुप्पी हम दोनों के बीच फैल गई। इस बीच मैंने नजरें बचाकर उसे चुपके से देखा। जिस चीज ने उसे आकर्षक बनाया था, वो उसका आत्मविश्वास था, तभी तो इतने लोगों में सिर्फ उसकी उपस्थिति को मैंने पकड़ा था। साँवला रंग, छोटी-सी नाक और बड़ी-बड़ी आँखें, याद आया कि पहले की तुलना में थोड़ी भरी-भरी हो गई है, शायद यही वजह रही होगी कि उसका रंग पहले की तुलना में थोड़ा खुल गया है और पैर... हाँ पैर का लचकना, एकाएक तीखी जिज्ञासा हो आई। पैर अभी भी लचकता है क्या? जब वो प्लेट रखने के लिए गई तो मैंने फिर कनखियों से उसकी तरफ देखा। नहीं... अब उसका पैर नहीं लचकता है। मैं कह नहीं सकता कि मुझे निराशा क्यों हुई थी। उसके पैर नहीं लचकने से या फिर पास्ट में लिए अपने ही निर्णय की याद करके।
क्रमशः
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डंके की चोट पर
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