चीख कर रोने के साथ एक सुविधा ये रहती है कि इसमें यूँ लगता है जैसे दुख का ज्वालामुखी फट पड़ा है और आँसुओं की शक्ल में लावा बह निकला... कुछ दिन, शायद कुछ महीने बहेगा और फिर सब कुछ पहले जैसा सामान्य हो जाएगा, लेकिन सिसकना मतलब खुद को सुलगाना... धीमे-धीमे दर्द में डूब जाना औऱ फिर उसका आनंद उठाना। पता नहीं कितना अंदर उतर गई थी कि अपने दुख के साथ बस कोई पास आया सवेरे-सवेरे गाते जगजीतसिंह की आवाज ही सुनाई दे रही थी मुझे। कॉरीडोर में हो रही चिल्लपों पर मेरा ध्यान ही नहीं गया। दरवाजा बजा तो झटके से उबरी... खोला... वो ऊर्जा से लबालब बाहर खड़ी थी। मैंने थोड़ा साइड में होकर उसके आने के लिए जगह बनाई और वो धड़ाक् से आकर कुर्सी में धँस गई।
कितने दिन हो गए, नजर नहीं आ रही है तू...- उसने सीधा सवाल किया। नजरें मेरे चेहरे की ओर थी... तीखी और चीरती हुई। मैं चाह रही थी कि कैसे भी उसकी नजरों से बच पाऊँ, मैं जानती थी कि ये नामुमकिन है, फिर भी... कई बार नामुमकिन की आस भी जागती है ना...!
वो खड़ी हुई और एक चक्कर मेरे छोटे से कमरे का लगाया। खुदा याद आया सवेरे-सवेरे... – सुनकर उसका ध्यान गया। बड़ी हिकारत से उसने आदेश दिया – सबसे पहले तो इसे बंद कर। उसका मतलब गज़ल से था। कैसे सुन लेती है यार इतना उबाऊ और बोरिंग...? मुझे तो नींद ही आ जाए। - हमेशा की तरह गज़लों को लेकर उसका एक ही जुमला।
फिर मुस्कुराती है और कहती है – कितना दर्द है यार तेरे सीने में, कहाँ से लाती है, इतना दर्द...? जरा अपना सोर्स बाँट लिया कर। दर्द भी बँट जाएगा।
वैसी ही जिंदादिली...। मैं प्लेयर बंद कर देती हूँ।
चल अब फटाफट तैयार हो जा। बाहर चल रहे हैं। - उसका आदेश।
मैं जानती हूँ कि अब मेरे कहने का कोई मतलब है नहीं, फिर भी चांस लेती हूँ – यार मेरा मन नहीं है बाहर जाने का, तू किसी और को ले जा ना...! - रिकवेस्ट भी है मेरे कहने में।
नहीं, जाना तो तेरे साथ ही है, चल जल्दी से तैयार हो जा। - वो कहती हुई फिर से खड़ी हो जाती है। उसमें इतनी ऊर्जा है कि वो 10 मिनट किसी एक जगह टिककर नहीं बैठ पाती है। छोटे से कमरे के छोटे से अंतराल में कई बार चक्कर लगाएगी।
मैं फिर से जोर लगाती हूँ – प्लीज....
वो खारिज कर देती है – नो प्लीज... गेट रेडी फास्ट।
पता नहीं क्या करने वो बाहर जाती है। मैं अब भी खुद से लड़ती हुई असमंजस में टँगी हुई हूँ, वो लौटकर आती है, झिड़कता-सा स्वर – क्या है यार... अभी तक वहीं खड़ी है। कितना टाइम वेस्ट करती है तू... समझती क्यों नहीं, स्साली जिंदगी भाग रही है, हमें उसके साथ कदम मिलाकर चलना है और तू है कि...! – उसने मुझे धकियाते हुए कमरे से बाहर किया। मैं हाथ-मुँह धोकर लौट रही थी, तभी मुझे याद आया कि मुझे देखकर उसने अभी तक कोई सवाल नहीं किया है, इस विचार ने ही मुझे सहमा दिया। उसके साथ जाना मतलब फिर से अपने दुख से दो-चार होना..., लेकिन क्या करें, कोई चारा नहीं है।
तालाब की पाल पर पैर लटकाकर जा बैठे हम दोनों ही।
तो... – उसने सवाल टाँग दिया।
मैंने उसकी तरफ देखा तो आँखों में पानी उतर आया।
सो सुकेतु डिच्ड यू...? – फिर से बेधती नजरें। टीस उठा था घाव, लेकिन वो इतनी ही निर्मम है।
आँखों में दयनीयता उभर आई थी मेरे, शायद ये प्रार्थना करती कि इस विषय को छोड़ दे यार... लेकिन मैं जानती थी ऐसा नहीं होगा। मैंने नजरें झुका ली।
आई न्यू इट... ही इज रियली ए बास्टर्ड... – वो बहुत गुस्से में थीं।
मेरा गला रूँध गया था – फिर तूने मुझे बताया क्यों नहीं?
अब वो उतर आई थी, भीतर – मैं बताती तो क्या तू मान जाती? मैं जानती थी, तू गल गई है, घुल गई है। सच्चाई का वजन तुझसे सहा नहीं जाएगा, इसलिए नहीं कहा। फिर... – वो कहीं शून्य में चली गई थी। न जाने कैसे आँसू उतर आए थे – फिर कहीं हमें ये लगता है ना हो सकता है ये हमारे साथ न हो...।
मैं थोड़ा हल्की हो रही थी, उसे थाम लेना चाहती थी – तू तो ऐसे कह रही है जैसे तुझे भी प्यार हुआ है।
इस बीच वो कहीं गुम हो गई थी। जब मैंने पूछा तो उसने बात टाल दी - तू उसे भूल जा... वो तेरे लायक यूँ भी नहीं था।
मेरी बेबसी उभर आई थी। - और कोई चारा है? सहना ही सच है... – मुझे लगा कहीं पढ़ा है।
बहुत देर तक हम दोनों अलग-अलग खुद से उलझते रहे। फिर एकाएक उसने कहा – तुझे लगता होगा ना कि मैं जल्लाद हूँ, निर्मम, क्रुएल...। क्यों तुझे दर्द के साथ छोड़ नहीं देती, या फिर क्यों उस घाव को छेड़ती रहती हूँ, जिसके भर जाने की शिद्दत से जरूरत है।
मैं फिर भरी हुई आँखों से उसे देखती हूँ। शायद मेरी आँखें उस जिज्ञासा को कह देती है। वो कहती है – पता है, जब जख्म नासूर बनने लगता है तो उसे ऑपरेट करना पड़ता है। और चाहे जिस्म को ऑपरेट करो या फिर भावनाओं को... दर्द तो होता ही है। और डॉक्टर को तो जरा भी भावुक नहीं होना चाहिए, नहीं तो वो इलाज नहीं कर पाएगा...।
तो तू मेरी डॉक्टर है...? – मैंने मुस्कुराकर पूछा था और खुद से ही चौंक गई थी .... क्या मैं इतने दिनों से तकलीफ में थी? – सच में हम महसूस भी नहीं कर पाते हैं और जिंदगी पता नहीं किस दरार से रिस कर अंदर आने लगती है।
कहानी का मॉरल सूत्र – 3
जिंदगी अपने रास्ते ढूँढ लेती है
चाहे जिस्म को ऑपरेट करो या फिर भावनाओं को... दर्द तो होता ही है
ReplyDeleteएहसास और उहापोह का सटीक चित्रण ..
आदरणीया नीरव जी , आपकी रचना खनक नहीं अंदर तक हिला कर रख देती है सारगर्भित पोस्ट आभार
ReplyDeleteAnubhooti ki parakastha ka sparte jazbaat.
ReplyDeleteBadhayi swikaren.'
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प्यार की परिभाषा!
ब्लॉग समीक्षा का 17वां एपीसोड--
शानदार...
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