Sunday, 21 August 2011

बदलते दौर में.... (दूसरी किश्त)

पिछले अंक से आगे...

पता नहीं नींद थी या नशा... कि दरवाजे की तेज और लंबी डिंग-डांग के बाद सौम्या हड़बड़ा कर उठी। न जाने कितनी देर से कोई कॉलबेल बजा रहा था। इस समय कौन होगा...? एक मिनट में चेतना कितने हिस्सों में सक्रिय हो गई... इस दरमियान सवाल-जवाब भी हो गए, घड़ी में समय भी देख लिया गया और शीशे में अपना हुलिया भी... दरवाजे की तरफ लपकी, झाँक कर देखा.... क्षितिज था...।
हाय... – उसके उल्लास ने सौम्या को हल्की-मीठी थपकी दी।
बट श्वेता नहीं है...- सारा शिष्टाचार भूलकर सौम्या ने सूचना दी।
ओ... – क्षितिज के चेहरे का सारा उल्लास पुँछ गया... लगा कि सौम्या की इस सूचना ने उसे गहरी खाई में उतार दिया। वो असमंजस में दरवाजे पर ही टँगा रहा तो सौम्या खुद से बाहर आई - तो क्या हुआ... मैं तो हूँ... कम...। श्वेता ने तुम्हें बताया नहीं था कि वो वीकएंड पर बाहर जाने वाली है?
नहीं...- वो कुछ सोचने लगा, फिर बोला – वो मुझे कुछ भी कहाँ बताती है?
वो सोफे पर कुशन गोद में लिए बैठ गया। सौम्या ने उसके सामने की कुर्सी पकड़ ली। दोनों थोड़ी देर अपने-अपने में कही डूब गए। फिर सौम्या ने ही पहल की। - आज तुम्हारा ऑफ होगा...?
उसने बहुत सकुचाते हुए – हाँ में गर्दन हिलाई। फिर जैसे उसे भी कुछ याद आया, पूछा – तुम आज घर में हो...? – फिर कुछ झिझका – मैंने यहाँ आकर तुम्हें डिस्टर्ब तो नहीं किया, शायद तुमने रेस्ट करने के लिए ब्रेक लिया हो...।
नहीं... – हँसी सूख गई थी और आँखें नम हो चली थी, कहते-कहते, किसी तरह खुद को संभाला – बस यूँ ही।
ओ... – ऐसा लगा जैसे मेरे बिना कहे ही बहुत कुछ समझ गया है वह और उसने उस सबको वहीं छोड़ दिया।
अब... दोनों ने ही अपनी-अपनी राह पकड़ ली...। थोड़ी देर तक दोनों ही चुप रहे। वो उसी कमरे का न जाने कौन-सी बार उसी तरह से मुआयना कर रहा है, जैसे शायद पहली बार किया होगा, हाँलाकि उसमें अब तक कुछ भी नहीं बदला है। सौम्या को जैसे कर्टसी की याद आई हो... – चाय लोगे...?
वो हड़बड़ा गया... थोड़ा मुस्कुराया... – बाहर चलना चाहोगी...? – उसके चेहरे पर जिस कदर मायूसी नजर आई उसे देखते हुए सौम्या को अपना दर्द भूल गया... फिर उसने सोचा, हो सकता है उसका भी मन बदले...। आखिर तो अपने दुखों को लादे-लादे घूमना भी क्या अकलमंदी है। दुख माँजता है, जरूर माँजता होगा, लेकिन दुनिया में रहते हुए खुद को मँजने के लिए छोड़ देना कितनों को नसीब होता होगा...? उसका दिमाग अजीब तरह से काम करने लगा... कभी डूबता लगता है तो कभी उबर कर उसे चुनौती देता।
क्षितिज बड़े असमंजस में उसके उत्तर का इंतजार कर रहा है, सौम्या इसे भूलकर खुद में ही उलझ गई...फिर तुरंत लौटी, मुस्कुरा कर पूछा - आधा घंटा वेट कर पाओगे... – सफाई दी – एक्चुली मैं अभी ही सोकर उठी हूँ, यू नो... – और लापरवाही से हाथ हवा में लहराकर छोड़ दिए।
क्षितिज को भी जैसे कोई जल्दी नहीं थी – यू टेक योर टाइम... आय एम फाइन...।
सौम्या बाथरूम में घुसने से पहले क्षितिज को चाय का कप और टीवी के रिमोट का झुँझुना थमाकर गई थी। वो भी कुछ देर रिमोट के बटन के साथ खेला, लेकिन स्क्रीन पर आते चित्रों में उसे कोई राहत नहीं दिखी और उसने आज़िज आकर टीवी बंद कर दिया।

थोड़ी देर बाद सौम्या नीली जींस पर पीला कुर्ता पहने बाहर आई। उसके बाल गीले थे और उसने कंधे पर एक छोटा पर्स टाँग रखा था। सेंडल पहनते पहनते ही बोली... चलें...। ताला लगाते हुए सौम्या ने क्षितिज से पूछा – लंच किया अभी या नहीं?
उसने बेखयाली में सिर हिलाकर नहीं कहा। तो चलो पहले हम लंच करते हैं, फिर कहीं चलते हैं। उसने एक रिक्शा रोका और दोनों उसमें सवार हो गए।
क्रमशः

No comments:

Post a Comment