Wednesday, 5 October 2011

‘जो भी है बस यही एक पल है’

शरद की मीठी-सी शाम का मजा खराब कर रहे थे लाउड-स्पीकर पर भजन के नाम पर बज रही पैरोडी। एक तरफ घर पहुँचने की हड़बड़ी, दूसरी तरफ जाते हुए कुछ जरूरी काम निबटाने की मजबूरी और उस पर ट्रेफिक की समस्या और ये दिमाग का फ्यूज उड़ा देने वाला शोर...। घट-स्थापना का दिन और चारों ओर त्योहार का उल्लास... हरेक को जैसे कहीं जाने की जल्दी थी... मुझे भी थी, घर पहुँचने की। घर पहुँची तो पोर्च की कुर्सी भी खाली थी और झूला भी... दादी नहीं थी।
कहाँ है दादी?
तबीयत ठीक नहीं है, आराम कर रहीं हैं। - जवाब मिला।
मेरे कमरे के सामने की तरफ ही है दादी का कमरा... कमरे से निकलते हुए यदि उनके कमरे का दरवाजा खुला हो तो वो नजर आ ही जाती है। आज शाम के वक्त उन्हें बिस्तर पर लेटे देखकर कुछ खटका हुआ। जाकर देखा तो चेहरा सुस्त नजर आया, लगा कि तबीयत कुछ ज्यादा ही खराब है। करवट लेने की ताकत भी नहीं नजर आई... तुरंत गाड़ी निकाली... अस्पताल ले जाने के लिए...।
वैसा ही माहौल था, बल्कि बढ़ती रात में गहराते उत्सव का शबाब अपने चरम की ओर बढ़ रहा था। हवा में खुनक आ घुली थी और मौसम में उत्साह... लेकिन यहाँ मन में कुछ गहरे जाकर अटक गया था। पता नहीं किस वक्त वो नामालूम-सा पल दबे पाँव आया और आकर गुजर गया और दादी 'होने' से 'न-होने' में बदल गई। हम न उस पल को देख सके, महसूस कर सके तो उसे रोक पाना तो यूँ भी संभव नहीं था।
गए थे एक भरे-पूरे इंसान को लेकर, लौटे एक खाली बर्तन-से शरीर के साथ...। आत्मा (मुझे यकीन नहीं है आत्मा पर, जिसे देख नहीं सकते, छू नहीं सकते, महसूस भी नहीं कर सकते। जिससे न प्यार किया जा सकता हो, न नफरत... तो फिर उसके होने का यकीन कैसे किया जा सकता है? ) नहीं थी... मैं सहमत नहीं हूँ – जान चली गई थी। अंदर दादी का पार्थिव शरीर था और बाहर उन्हीं की आरामकुर्सी पर मैं थी। सभी दादी के साथ की अपनी-अपनी यादों की जुगाली कर रहे थे। कुछ यादें रात के उस काले कैनवस पर चमकती और बुझ रही थी।
उधर यादें, इधर विचार... क्या जीवन का अर्थ इतना ही है? बस... जान निकलते ही सब खत्म... यदि आत्मा ही सच है तो फिर वो कहाँ है... हम उसे देख, छू, महसूस तो कर ही नहीं पाते हैं, उसके तो बस किस्से ही किस्से हैं... और यदि शरीर सच है तो फिर जो पार्थिव देह हमारे सामने पड़ा है वो क्या है? हम उसी से प्यार करते हैं, वही सारी भावनाओं, सारी अभिव्यक्तियों का माध्यम है... सारे प्यार, विचार, कर्म के लिए कर्ता... लेकिन क्या कम हो जाता है जिसे हम मरना कहते हैं! तो बुद्धि कहती है कि आत्मा सच नहीं है, अनुभव कहता है कि शरीर सच नहीं है, तो फिर सच है क्या...? या फिर कुछ भी सच नहीं है... जब जीवन ही सच नहीं है तो फिर हर चीज भ्रम है... और कितनी अजूबा-सी बात है कि ये एक भ्रम कितने भ्रमों की रचना करता है और उसे पोषित करता है। सालों-साल जिसे हम जीवन कहते हैं, चलता है और हम सारी दुनियादारी उसी के सहारे निभाते चलते हैं, एक क्षण बिना ये सोचे कि एक दिन... बल्कि एक क्षण... वो कोई भी क्षण हो सकता है, आएगा और बे-आवाज गुजर जाएगा... एक जीता-जागता जीवन, मौत में बदल जाएगा। जिसे सारे जीवन सच माना उसे वह एक क्षण भ्रम में बदल देगा...।
हम 'हैं' से 'थे' हो जाएँगें। तो न गुजरा वो सच है और भविष्य तो भ्रम है ही... फिर सच क्या है? चाहे दुनिया का सारा दर्शन इस एक प्रश्न के इर्द-गिर्द घूमता हो, लेकिन जवाब किसी के पास नहीं है। हम जानते हैं कि वो एक क्षण हम सबके जीवन के सच को भ्रम बना देगा, फिर भी हम अपने होने को पूरा सच मानकर चलते हैं, उस नासमझी... उस मासूमियत को सालों-साल खींचते चलते हैं और एक क्षण... बस एक क्षण उस सालों से संचित विचार और सच को झटके से झूठ में बदल देता है। मृत्यु जीवन से अर्थ छीन लेती है, तो फिर जीवन का होना क्या... लेकिन जितनी फिलॉसफी पढ़ी है और तर्कों से जितना जाना है वो तो यह कहता है कि कुछ नहीं होने का अस्तित्व कुछ होने से ही है... तो पहले हम हैं तभी तो हम नहीं होंगे...। फिर-से सब गड्ढमड्ढ... रात गुजर रही थी और विचारों का बोझ लगातार बढ़ता रहा था। कहीं कोई सिरा नजर नहीं आ रहा था। उलझते-उलझते लगा कि जीवन की तरह ही ये विचार भी अर्थहीन है, क्योंकि इनकी कोई मंजिल नहीं है। फिर एक सवाल... तो क्या जीवन की कोई मंजिल है? मान ही लें कि जीवन की मंजिल मौत है... सवाल खत्म... विचार भी खत्म...।
रात गहरी होने लगी थी... अँधेरा घना और सन्नाटा तीखा हो चला था। शरद की खुनक का अहसास अब गाढ़ा हो चला था...। आसमान खुला था और गहराते अँधेरे में तारों की टिमटिमाहट ने न जाने कैसे बचपन को जिंदा कर दिया था। गर्मियों की रातों में जब देर रात तक जागती आँखें एकटक तारों को ही देखती थी। याद आती थी कोई पहेली... सिर पर मोतियों का थाल जैसी और लगता कि हाँ आसमान ठीक वैसा ही तो है। किसी तारे पर यूँ ही आँखें ठहर गई... नींद का खुमार, उदासी का बुखार, ठंड़ी होती रात और गाढ़े होते अँधेरे में यूँ ही एक पल फिर से आया... न जो गुजरा वो सच है और न जो आएगा वो सच होगा... ‘जो भी है बस यही एक पल है’...। सांत्वना सी महसूस हुई... और पता नहीं कैसे नींद आ गई।
कहानी का मॉरल – सूत्र 130
मृत्यु ‘होने’ और ‘न-होने’ के बीच का महज एक क्षण है.

2 comments:

  1. दार्शनिक नहीं कलात्मक अनुभूति....

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  2. सब ठाट पड़ा रेह जाएगा जब लाड़ चलेगा बंजारा ..... आपकी इस पोस्ट से वो हिन्दी फिल्म का एक पूराना गीत याद आया यह जीवन है इस जीवन का यही है यही है रंग रूप ....

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