Sunday, 17 April 2011

भरीपूरी प्यास...! - 5

सर्दी
शाम को मैं ऑफिस से जल्दी घर आ गया था, थोड़ा बुखार-सा लग रहा था तो डॉक्टर से दवा लेता हुआ पहुँचा था। आरती पीहू को लेकर अपनी माँ के घर गई हुई हैं, तो खुद ही बीमार और खुद ही तीमारदार होना है। मैं पहुँचा तो कुसुम खाना बना रही थी, उससे खिचड़ी बनवाई, खाई और दवा लेकर जल्दी ही सो गया। तेज बुखार से बदन दर्द कर रहा था। दवा के असर होने तक तो दर्द में पूरी तरह से डूब ही चुका था। पता नहीं रात का कौन-सा समय रहा होगा, जब तेज गर्मी और पसीने के साथ बुखार उतर गया और दर्द भी चला गया। तेज दर्द के बाद की राहत और कड़े परिश्रम से पाई सफलता की अनुभूति एक-सी ही होती है। एक धुला-पुँछापन होता है, कुछ गरिमा से सह लिए जाने का गौरव... खुद को प्रति विश्वास और आस्था के साथ ही बड़ा सात्विक-सा अहसास होता है... अरे...! ये सब कहाँ से आ रहा है... ओह लूनी... ये तुम हो।
खासी ठंड के बीच सुबह से ही बादलों का जमघट था। ऑफिस से छुट्टी ले रखी थी। जब कुसुम आई तो उससे तेज अदरक वाली कड़क चाय बनवाई और खिड़की के पर्दे खोल दिए। बारिश शुरू हो चली थी। ऐसा भी कब होता है? दर्द से निकलने के बाद गहरी, सात्विक शांति... साफ-सुथरा और उदास-सा सौंधापन... तुम अक्सर कहती थी, बीमारी के बाद हम बिल्कुल नए हो जाते हैं... नए-नकोर... सब पुराना जो हमारे अंदर जंक होता है, बह जाता है और जो काम का होता है, वो भी धुल-पुँछकर चमकने लगता है। सच तुमसे अलग होने के बाद आज पहली बार उसे मैं ठीक उस तरह से महसूस कर पा ऱहा हूँ, जिस तरह से तुमने कहा है। कितनी अजीब तरह का पागलपन था तुम्हारे अंदर ... पता नहीं कहाँ हो और उस पागलपन का क्या करती होगी? कभी-कभी खुद से ही पूछता हूँ – क्या वो आँच अब भी तुम्हारे चेहरे पर नजर आती है? क्या कोई आग अब भी तुम्हारे अंदर दहकती है?
मुझे याद आ रहा है जब हम सब अपने प्रोजेक्ट से सिलसिले में राहुल के गाँव गए थे। यही दिन थे, राहुल ने हमें अपने और अपने रिश्तेदारों के खेत दिखाए। हम सब खेत में ही मटर खा रहे थे, तब तुमने पूछा था – तुम्हारे गाँव में कोई फूलों की खेती करता है?
हम सबने एक साथ पूछा था – फूलों की खेती...!
हाँ
राहुल ने जबाव दिया था – हाँ एक परिवार करता है, लेकिन हम उस तरफ नहीं जाते हैं, कुछ पारिवारिक झगड़े हैं।
लेकिन मुझे वो खेत देखना है, क्या वो रजनीगंधा लगाते हैं? – तुम अब जिद्द पर आ गई थी।
हाँ, शायद...- राहुल ने जवाब दिया था।
तब तो मुझे उस खेत में जाना ही है। हम सबने तुम्हें बहुत समझाया, लेकिन तुम अपनी जिद्द पर अड़ी रही। तुमने कहा - ठीक है, मैं खुद ही उन लोगों से मिल लूँगी। और... और तुम गईं थीं वहाँ... औऱ जब लौटी थी तो हाथ में रजनीगंधा के स्टिक्स लेकर... बिल्कुल बौराई-बौराई सी। और फिर... जब उनका लड़का शहर आया था, तब तुमसे मिलने कॉलेज भी आया था और ... तन्मय को हँसी आ गई थी। फिर वो बार-बार तुमसे मिलने आने लगा था, तुम खीझी भी थी दो-एक बार लेकिन उसका आना बंद नहीं हुआ था। जब मैंने तुमसे कहा था कि वो तुम पर चांस मार रहा है तो तुम कितने दिनों तक मुँह फुलाए रही थी...? बोलो लूनी क्या तुम उन दिनों का हिसाब मुझे दो सकती हो...? अचानक तन्मय उदास हो गया, फिर मैंने भी तुम्हें मनाने की कोशिश कहाँ की... तुम ही क्यों मेरे पास भी तो उन दिनों का हिसाब नहीं है।
क्रमशः

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